राजनीति

भ्रष्टाचार की जंग और राजनीतिक रंग

हिमकर श्याम

व्यवस्था के विरूद्ध कोई आंदोलन खड़ा करना जितना मुश्किल है, उससे ज्यादा कठिन है उसे संपूर्ण भावना के साथ बरकरार रखना और उसे मजबूती प्रदान करना। देश में जितने आंदोलन हुए हैं उनका अंत एक सा ही रहा है। सारे आंदोलन अंत में राजनीति की बलि चढ़ गये। राजनीति का रंग चढ़ते ही आंदोलन में बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। आंदोलन अपना मूल स्वरूप और चरित्र पीछे छोड़ देता है। कई बड़े आंदोलनों की परिणति देश देख चुका है। टीम अन्ना के हालिया रूख से लगता है कि उसपर भी राजनीति का रंग चढ़ने लगा है। राजनीति के रंग में रंग कर भ्रष्टाचार की जंग नहीं जीती जा सकती है।

जेपी ने व्यवस्था परिवर्तन के लिए जो संघर्ष किया था वह अंत में इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने की मुहिम बन कर रह गया। संपूर्ण क्रांति केवल मोहभंग की ओर ले गयी। तब जेपी ने 1974 में होनेवाले चुनावों के मद्देनजर पूरे देश का दौरा किया था, उनकी सारी सक्रियता इंदिरा गांधी की वैधानिकता को नष्ट करने और चुनावों में पराजित करने पर केंद्रित थी। परिणामतः जेपी आंदोलन अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रहा। वीपी सिंह का बोफोर्स घोटाले के खिलाफ किया गया आंदोलन भी सत्ता परिर्वतन तक ही सीमित रहा। राजनीतिक महत्वाकांक्षा की वजह से ही बाबा रामदेव के देशव्यापी अभियान को मुंह की खानी पड़ी थी। पूर्ववर्ती लोगों ने जो गलती की थी टीम अन्ना उसी राह पर जाती दिखायी दे रही है।

हिसार लोकसभा उपचुनाव में अन्ना फैक्टर के रूप में देखा जा रहा है। टीम अन्ना ने कांग्रेस के खिलाफ वोट डालने की अपील की थी। कांग्रेस उम्मीदवार जयप्रकाश तीसरे स्थान पर रहे। यह ध्यान देने योग्य है कि हिसार कांग्रेस का गढ़ नहीं रहा है। यहां मुख्य लड़ाई विश्नोई और चैटाला के बीच ही थी। नतीजों को टीम अन्ना की जीत के तौर पर देखना और उसमें अन्ना इफेक्ट तलाश कर अन्ना और उनके आंदोलन को छोटा करने का प्रयास किया जा रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी जंग की सारी बहस इस बात पर आकर टिक गयी है कि पांच राज्यों खासकर यूपी में होनेवाले उपचुनाव में अन्ना का क्या असर होगा। टीम अन्ना हिसार के नतीजों को अपनी सफलता मानकर यूपी के चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने का ऐलान कर चुकी है। टीम अन्ना का दावा है कि उसकी मुहिम से यूपी में कांग्रेस की बची सीटें भी खत्म हो जाएंगी।

कांग्रेस का सीधे तौर पर विरोध कांग्रेस के अलावा टीम अन्ना के कुछ सदस्यों को नागवार लग रहा है। टीम के प्रमुख सदस्य संतोष हेगड़े इस पर अपनी असहमति जता चुके हैं वहीं इस मुद्दे पर राजेंद्र सिंह और पीवी राजगोपाल ने कोर कमेटी से इस्तीफा दे दिया है। राजेंद्र सिंह और पीवी राजगोपाल का टीम अन्ना से अलग होना इस टीम के लिए एक झटका है। राजेंद्र सिंह ने कहा है कि जिस तरह हिसार में प्रचार किया, वो गलत था क्योंकि आंदोलन दलगत राजनीति की ओर जा रहा है। टीम अन्ना के कांग्रेस हराओ अभियान पर मेधा पाटेकर भी खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर कर चुकी हैं। पहले दिल्ली में प्रशांत भूषण और फिर लखनऊ में अरविंद केजरीवाल पर हमले की घटनाएं चिंतित करने वाली हैं। प्रशांत भूषण पर हुए हमले के बाद टीम अन्ना कोई भी टिप्पणी करने से बचती रही। टीम में बिखराव साफतौर पर दिखने लगा है। टीम अन्ना को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके सहयोगी अलग-अलग मुद्दे पर अलग-अलग राय रखने के बावजूद एकजुट कैसे रहें। मजबूत संगठन न होना आंदोलन की कमजोरी साबित हो सकती है।

अन्ना के आंदोलन का गैर राजनीतिक स्वरूप इसकी सबसे बड़ी शक्ति रहा है। अन्ना ने लोगों को भरोसा दिलाया कि जनशक्ति के दबाव में शासकों को झुकाया जा सकता है। आंदोलन का वास्तविक मकसद भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए देश में एक सशक्त जन लोकपाल की स्थापना को लेकर है। कांग्रेस को हरा भर देने से इसका मकसद पूरा नहीं होगा। जब तक इस आंदोलन में पारदर्शिता नजर आयी तब तक संदेह की ऊंगुली नहीं उठी। जैसे ही इसपर राजनीति का रंग चढ़ा, लोगों के मन में आंदोलन को लेकर आशंकाएं होने लगी। भ्रष्टाचार का मुद्दा पीछे छूटता जा रहा है। भ्रष्टाचार की जंग के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जाने लगा। शीतकालीन सत्र में जनलोकपाल बिल पेश किये जाने के आश्वासन के बाद अन्ना ने अपना अनशन तोड़ा था। इस बीच प्रधानमंत्री ने अन्ना को पत्र लिख कर कहा है कि चुनाव में प्रत्याशी खारिज करने के मतदाताओं को अधिकार दिये जाने की उनकी मांग पर सरकार विचार करेगी। अन्ना के अनशन के दौरान बैकफुट पर खड़ी कांग्रेस को यह कहने का मौका मिल गया है कि अन्ना के पीछे आरएसएस और भाजपा का हाथ है। टीम अन्ना भले ही सक्रिय राजनीति से दूर रहने की बात कहते रहे हो लेकिन सीधे तौर पर किसी पार्टी का विरोध जायज नहीं है। अन्ना टीम को यह लगने लगा है कि वह देश, देशवासियों और संसद सबसे ऊपर हैं। टीम अन्ना का उतावलापन और अहंकार आंदोलन की सेहत के लिए ठीक नहीं है।

राजनैतिक नेतृत्व के प्रति उदासीनता के माहौल ने ही अन्ना को जननायक बनाया है। आंदोलन का अराजनीति स्वरूप अन्ना आंदोलन के दौरान उभरी ऊर्जा का मुख्य कारण था। अन्ना के आंदोलन के दौरान जो व्यापक जनसमर्थन मिला, उसका व्यापक इस्तेममाल करने में टीम अन्ना चूक रही है। जन आंदोलन के लिए कम अंतराल भी दीर्घ अंतराल की तरह होता है। इस अवधि में जन आंदोलन और अधिक जोर पकड़ सकता है और क्षीण भी हो सकता है। पूरी ऊर्जा के साथ इसमें शामिल लोग इससे ऊब भी सकते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में जो माहौल बना था उसे बचाकर रखना एक बड़ी चुनौती है। राजनीतिक रंग चढ़ने के कारण आंदोलन को काफी नुकसान हो रहा है। यह जन आंदोलन अब चंद लोगों के इर्द गिर्द सिमटकर रह गया है। कोई भी आंदोलन मात्र इसके नेताओं और सदस्यों के बलबूते ज्यादा समय तक नहीं चलाया जा सकता। वैसे भी वैसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपना सबकुछ न्योछावर कर देने को तैयार रहते हैं। अन्ना के अनशन के दौरान जो माहौल बना था उससे लगने लगा था कि देश को बहुत जल्द भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अनशन को बीते अभी दो माह भी नहीं हुए हैं और भ्रष्टाचार अपनी जगह और अपनी गति से कायम है।

टीम अन्ना भ्रष्टाचार और लोकपाल की बात छोड़ कांग्रेस को हरानेकी बात करने लगी है। अन्ना का कहना है कि वह ईमानदार प्रत्याशी का समर्थन करेंगे। टीम अन्ना यह कैसे तय करेगी कि कांग्रेस के अलावा किसी दल में बेईमान प्रत्याशी नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध जारी जंग में किसी भी तरह के राजनीतिक रंग से परहेज जरूरी है। जन लोकपाल आंदोलन का यह ऐसा मोड़ है, जहां सिविल सोसाइटी और खुद अन्ना को इस बिखराव को समेटने का प्रयास करना चाहिए। अन्ना की मुहिम दलगत चुनावी राजनीति से परे एक जन आंदोलन है यही उसे मिले जनसमर्थन की बड़ी वजह है। जब तक आंदोलन पर राजीतिक रंग नहीं चढ़ा था तब तक देश की जनता ने अन्ना की टीम का दिल से समर्थन किया। जनता का मोहभंग इस बार हुआ तो भविष्य में किसी गैर राजनीतिे आंदोलन की सफलता संदिग्ध हो जाएगी।