दिलीप बीदावत

थार रेगिस्तान में तापमान पचास डिग्री तक पहुंचने, हर तीसरे साल
अकाल, दुकाल, त्रिकाल पड़ने पर यहां के ग्रामीण जन परेशान तो होते हैं,
पर विचलित नहीं होते। यही कारण है कि दुनिया भर के रेगिस्तानों में
थार का रेगिस्तान ही अकेला ऐसा क्षेत्र है जहां जीवन की सघनता और
बहुलता है। यहां की जैव विविधता ने जटिल भौगोलिक और मौसमिक
परिस्थियों में भी जीवन की आस को कभी छोड़ा नहीं और अपने आप को
सदैव परिस्थितियों के अनुकूल ढ़ाल कर जीवन की संभावनाओं को ढूंढा
है। जाहिर सी बात है कि रेगिस्तान है, तो पानी की कमी होगी। परंतु इसे
पानी की कमी नहीं कह कर रेगिस्तान के साथ कुदरत का व्यवहार कहना
ज्यादा उचित होगा। यह वह क्षेत्र है जहां पाताल से खारा और आकाश से
मीठा जल बरसता है। लेकिन घनी वर्षा रेगिस्तान को दल-दल बना सकती
है जिससे जिससे पूरे क्षेत्र का लवणीय झील में तब्दील होने का खतरा हो
सकता है। प्रकृति के फैसले के अनुरूप यहां के जीव जंतुओं ने जहां अपने
जीवन को उपलब्ध संसाधनों के अनुकूल ढाल लिया है और दूसरी
प्रजातियों के साथ परस्पर सहयोग कर जीवन की संभावनाओं को बनाए
रखा है, वहीं मानव जाति ने जल संग्रहण के अनूठे खजानों का निर्माण
कर स्वयं के लिए, जीव जंतुओं के लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए
जीवन को निर्बाध रूप से चलने का इंतेज़ाम कर लिया था। भारत के ऐसे
क्षेत्र, जहां वर्षा थार के रेगिस्तान से कई गुना अधिक होने के बावजूद
पेयजल के लिए त्राहिमाम होता है, रेगिस्तान के लोग अपने पुरखों के
खजानों से पानी सींच कर संकट को टाल देते हैं।
समय बदला, विकास हुआ, तकनीकी के जरिए मानव ने प्रकृति को
नियंत्रण में करने का प्रयास किया। अपने जीवन को सुखी और संपन्न
बनाने के लिए ऐसी सुविधाओं का विकास किया कि जरूरतें इशारे भर में
सामने मौजूद हो
जाए। पानी पाताल
में हो चाहे नदियों
को बांध कर बनाए
गए बांधों में। भारी
क्षमता वाले
विद्युत चलित पंपो
से पाताल और
सतही पानी को
खींचने और पाइपों लाइनों के जरिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर
पहुंचाने की कवायद ने नल से जल की संस्कृति का विकास किया, तो
मानव पानी के मूल्य को भूल गया। जिसको जितना मिला, जी भर कर
उपयोग किया और जिसको नहीं मिला वह आज भी पानी के एक घड़े के
लिए मीलों का सफर करता है। सात पीढ़ियों के लिए धन-दौलत और
संसाधन जमा करने वाला इन्सान इस बात से बेपरवाह है कि धरती पर
पीने और जीने लायक पानी कितना है, और सूख गया तो नल में जल
कहां से आएगा? आने वाली सात पीढ़ियों के जिंदा रहने के लिए पानी
और हवा बचेगी भी या नहीं? नल में जल देख कर इतना मोहित हो गया
कि पुरखों के दिए जल संग्रहण के कीमती खजानों को भूल गया। उनको
अपनी आंखों के सामने लुटता देख कर चुप है। हजारों सालों की अथक
मेहनत से बने इन कीमती खजानों को आज बनाने की कल्पना करें, तो
अरबों डाॅलर भी कम पड़ जाएं। पानी उपलब्ध कराने के लिए पानी सेे भी
तेज गति से पैसा बहाने वाली हमारी सरकारें दिशाहीन नीतियां और
योजनाएं बनाती है, जो पानी कम और परेशानियां अधिक देती है।
रेगिस्तान का कोई ऐसा गांव या ढाणी नहीं होगी, जहां पानी के पारंपरिक
स्रोत नहीं हो। गांवों के नाम ही पानी के स्रोतों के आधार पर पड़े है।
किसी गांव के आगे सर तो किसी गांव के आगे बेरा, बेरी, नाडी, सागर,
तला आदि जुड़ कर गांवों का नामकरण हुआ है। पानी के ठांव के बिना
गांव का नाम ही कहां। लेकिन पिछले पांच-छः दशकों में पानी उपलब्ध
कराने की सरकारी योजनाओं के वशीभूत लोग पारंपरिक जल स्रोतों को न
केवल भूलते जा रहे हैं, बल्कि उनकी बर्बादी के चश्मदीद गवाह बन रहे हैं।
बाड़मेर से लेकर जैसलमेर, बीकानेर, चूरू, नागौर जोधपुर, पाली, जालोर से
लेकर अरावली की
तलहटी वाले सीकर,
झुंझुंनू तक में हजारों
की तादात में बने
पुराने जोहड़, तालाब,
नाडे, नाडियां, कुंड,
बावड़ियां, चूने और
पत्थर से बने पक्के
कलात्मक तालाब,
बेरियां कहीं जर्रजर होकर खंडहर के रूप में अपने वजूद को बनाए हुए हैं,
तो कहीं मिट्टी, कचरा, कीचड़ से भरे गांव कचरा पात्र बन गए हैं। अब
यह अवैध खनन के ठिकाने बन गए हैं। कभी घर के आंगन से भी साफ-
सुथरा रखा जाने वाला पायतन अब मरे हुए पशुओं और घर-आंगन का
कचरा फैंकने के काम आने लगे हैं। एक पीढ़ी जिसने इन पारंपरिक जल
स्रोतों से पानी पीया है, जल स्रोतों के लिए बनाए गए नियम-कायदों का
पालन किया है, मानसून आगमन से पूर्व सामुहिक व्यवस्था में मिट्टी,
गाद निकाली है, आज इन स्रोतों की बर्बादी पर केवल इतना ही बोल पाती
हैं, कि अब समय बदल गया है।
गांधीवादी विचारक स्व.श्री अनुपम मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘आज भी खरे
हैं तालाब’ में तालाबों की निर्माण प्रक्रिया और बर्बादी के आंखों देखे
अनुभवों को कुछ इस प्रकार लिखा है ‘‘सैकड़ों हजारों तालाब अचानक
शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की,
तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैकड़ों हजार
बनती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए
समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार को शून्य ही बना दिया।’’ शायद
यही समय का बदलाव है। नई पीढ़ी जो अंगुलियो के इशारों से संसार
नापती है, ने इन स्रोतों को गांव के कचरा पात्र के रूप में ही देखा है, इन
बहुमूल्य खजानों को मरणासन्न स्थिति में देखा है, पानी को नल और
बोतल में देखा है। पुराने पानी के स्रोतों को फिर से जिंदा करने और
उनसे पानी पीने की बात उनके गले ही नहीं उतरती। दो पीढ़ियो के बीच
की संवादहीनता से ज्ञान और संस्कार का फासला चौड़ा हो गया।
समय बदल गया है। प्रकृति बदल रही है। मौसम का मिजाज बदल रहा
है। रेगिस्तान में पानी के संकट ने दस्तक देनी शुरू कर दी है। न केवल
पानी का संकट बल्कि यूं कहें त्रिकाल का संकट। रेगिस्तान में पानी का
संकट नहीं है। बरसात के पानी को सहेजने और युक्ति से बरतने का
संकट है। पानी के प्रति बरती जा रही बेपरवाही का संकट है। नहर और
पाइप लाइन के जरिए लाए जा रहे पराए पानी के भरोसे अपने ठांमों को
फोड़ देने का संकट है। नहरों में बहने वाले अथाह पानी में अपने संस्कारों
को डूबो कर मार देने का संकट है। पुराने स्रोतों को फिर से ठीक करने के
लिए धन का संकट नहीं है, मन बनाने का संकट है। देर से ही
सही समाज, सरकार, सामाजिक संगठनों, मीडिया प्रतिष्ठानों ने पारंपरिक
जल स्रोतों की सुध लेने, बरसात के पानी को सहेजने, पानी के मसले पर
समाज को संगठित करने, फिर से इकाई, दहाई, सैकड़ा हजार बनाने की
मुहीम चलाई है। सरकार ने जल शक्ति मंत्रालय बनाया है। जल-शक्ति के
साथ जन-शक्ति को जोड़कर पारंपरिक जल स्रोतों फिर से संवारने का
समाज के सामने यह अवसर भी है। अपने पारंपरिक जल स्रोतों को फिर
जिंदा करने, पानी के संस्कारों के शून्य को भरने, भावी पीढ़ी के हाथों में
इन अमूल्य खजानों का भविष्य सौंपने के लिए हजारों हाथों को फिर से
उठाने की जरूरत है ताकि आने वाली सात पीढ़ियां चौरासी लाख जीव
प्रजातियों के साथ जीवन-यापन कर सके। (चरखा फीचर्स)
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CEO
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