हम खुद को हर हाल में स्वीकार करें

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-ः ललित गर्ग:-

जीवन का एक बड़ा सच है कि इंसान जिस दिन रोना बंद कर देगा, उसी दिन से वह जीना शुरू कर देगा। थके मन और शिथिल देह के साथ उलझन से घिरे जीवन में यकायक उत्साह का संगीत गंूजने लगे तो समझिए-जीवन की वास्तविक शुरुआत का अवसर आ गया। शुष्क जीवन-व्यवहार के बोझ के नीचे दबा हुआ इंसान थोड़ी-सी मुक्त सांस लेकर आराम महसूस करता है। जीवन की जड़ता उत्साह में बदल जाती है। स्वार्थ एवं भावशून्य मन से जीवन जीने वाले लोग मानव-जीवन मंे उदासीनता भरते हैं। उत्साहमय मन, परोपकारी जीवन से और सारग्रही बुद्धि से यदि जीवन जीया जाएं तो ही जीवन में प्रसन्नता और नई आशा का संचार करेंगे।
सम्यक दिशा दिखाने वाले को मार्गदर्शक कहा जाता है, जीवन को कहंा बांधना चाहिए, कौन-सी दिशा में मानव की गति होनी चाहिए वगैरह बातों का सुंदर सूचन ही जीवन को अर्थपूर्ण बनाता है। संकट में होशमंद रहने और हर मुसीबत के बाद उठ खड़े होने का जज्बा विशुद्ध भरतीय है और यही सुखी, प्रसन्न एवं सार्थक जीवन है। बहुत आसान है यह कह देना कि खुश रहना तो हम पर निर्भर करता है। यह एक चुनाव है। पर कई दफा इतने तनाव, अभाव, बीमारियां और चुनौतियां घेरे रखते हैं कि खुश रह पाना कठिन हो जाता है। ब्लॉगर लोरी डेशने कहती हैं, ’‘खुशी के लिए एक नहीं, कई चुनाव करने पड़ते हैं। चुनाव ये कि, हम खुद को हर हाल में स्वीकार करें, कि अपनी जिम्मेदारियां उठाएं और सबसे जरूरी कि कठिन घड़ियों में भी हिम्मत बनाए रखें।
हम जहां हैं और जहां पहुंचना चाहते हैं, अकसर इस बीच की दूरी लंबी और रास्ता कठिन ही होता है। कई बार तो कदम-कदम पर निराशा से ही मुलाकात होती है। लगने लगता है कि जो छोटा सा काम आज कर रहे हैं, उसके जरिए तो वहां तक पहुंचना नामुमकिन है। नतीजा, हम जो कर सकते हैं, वह भी नहीं करते। मशहूर एंकर ओप्रा विन्फ्रे कहती हैं, ‘जब तक वो नहीं कर सकते, जो करना चाहते हैं, तब तक हम वो जरूर करें जो किया जाना जरूरी है।’
इंसान की सारी रचनात्मकता इस जीवन-भाव की तलाश ही है। यदि भीतर का यह सकारात्मक भाव न होता तो जीवन बेहद एकरस उबाऊ और मशीनी होकर रह जाता। मोजार्ट और बीथोवेन का संगीत हो, अजंता के चित्र हों, वाल्ट व्हिटमैन की कविता हो, कालिदास की भव्य कल्पनाएं हों, प्रसाद का उदात्त भाव-जगत हो… सबमें एक जीवन घटित हो रहा है। एक पल को कल्पना करिए कि ये सब न होते, रंगों-रेखाओं, शब्दों-ध्वनियों का समय और सभ्यता के विस्तार में फैला इतना विशाल चंदोवा न होता, तो हम किस तरह के लोग होते! कितने मशीनी, थके और ऊबे हुए लोग! अपने खोए हुए जीवन-भाव को तलाशने की प्रक्रिया में मानव-जाति ने जो कुछ रचा है, उसी में उसका भविष्य है। मनुष्य में जो कुछ उदात्त है, सुंदर है, सार्थक और रचनामय है, वह सब जीवन है। यदि आप उगती भोर को देखकर अपने अंतर में एक पवित्रता-बोध महसूस करते हैं, नदियों का प्रवाह आपके भीतर यात्राएं जगा जाता है और खिलते हुए फूलों, बारिश में भीगते हरित-पत्रों की सिहरन में जीवन-राग गूंजता हुआ सुनते हैं, तो आपमें यह जीवन-भाव बसा हुआ है। यह कब, कहां, कैसे जाग उठेगा कहा नहीं जा सकता। पर इसके जागने के बाद जीवन के नए आयाम खुलने लगते हैं, नई दिशाएं बुलाने लगती हैं।
यह बड़ा सत्य है कि स्वार्थी एवं संकीर्ण समाज कभी सुखी नहीं बन सकता। इसलिए दूसरों का हित चिंतन करना भी आवश्यक होता है और उदार दृष्टिकोण भी जरूरी है। इसके लिए चेतना को बहुत उन्नत बनाना होता है। अपने हित के लिए तो चेतना स्वतः जागरूक बन जाती है, किन्तु दूसरों के हित चिंतन के लिए चेतना को उन्नत और प्रशस्त बनाना पड़ता है। लेकिन ऐसा नहीं होता। इसका कारण है मनुष्य की स्वार्थ चेतना। स्वार्थ की भावना बड़ी तीव्र गति से संक्रान्त होती है और जब संक्रान्त होती है तो समाज में भ्रष्टाचार, गैरजिम्मेदारी एवं लापरवाही बढ़ती है। हर व्यक्ति को आगे बढ़ने का अधिकार है। संसार में किसी के लिए भेदभाव नहीं है। जिस प्रगति में सहजता होती है, उसका परिणाम सुखद होता है। किसी को गिराकर या काटकर आगे बढ़ने का विचार कभी सुखद नहीं होता, काटने का प्रयास करने वाला स्वयं कट जाता है।
प्रगतिशील समाज के लिये प्रतिस्पर्धा अच्छी बात है, लेकिन जब प्रतिस्पर्धा के साथ ईर्ष्या जुड़ जाती है तो वह अनर्थ का कारण बन जाती है। संस्कृत कोश में भी ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा में थोड़ा भेद किया गया है, पर वर्तमान जीवन में प्रतिस्पर्धा ईर्ष्या का पर्यायवाची बन गई है। उसके पीछे विभिन्न भाषाओं में होने वाला गलाकाट विशेषण का प्रयोग इसी तथ्य की ओर संकेत करता है। ईर्ष्यालु मनुष्य में सुख का भाव दुर्बल होता है। उसकी इस वृत्ति के कारण वह निरंतर मानसिक तनाव में जीता है। उसके संकीर्ण विचार और व्यवहार से पारिवारिक और सामाजिक जीवन में टकराव और बिखराव की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। आचार्य श्री तुलसी ने ईर्ष्या को असाध्य मानसिक व्याधि के रूप में प्ररूपित किया है, जिसका किसी भी मंत्र-तंत्र, जड़ी-बूटी व औषधि से चिकित्सा संभव नहीं है। ईर्ष्यालु मनुष्य स्वयं तो जलता ही है, दूसरों को जलाने का प्रयास भी करता है।
स्वामी रामतीर्थ ने ब्लैकबोर्ड पर एक लकीर खींची तथा कक्षा में उपस्थित छात्रों से बिना स्पर्श किए उसे छोटी करने का निर्देश दिया अधिकतर विद्यार्थी उस निर्देश का मर्म नहीं समझ सके। एक विद्यार्थी की बुद्धि प्रखर थी। उसने तत्काल खड़े होकर उस लकीर के पास एक बड़ी लकीर खींच दी। स्वामी रामतीर्थ बहुत प्रसन्न हुए। उनके प्रश्न का सही समाधान हो गया। दूसरी लकीर अपने आप छोटी हो गई। उन्होंने उस विद्यार्थी की पीठ थपथपायी और उसे आशीर्वाद दिया। रहस्य समझाते हुए उन्होंने कहा-अपनी योग्यता और सकारात्मक सोच से विकास करते हुए बड़ा बनना चाहिए। किसी को काटकर आगे बढ़ने का विचार अनुचित और घातक है।
तरक्की की यात्रा अकेले नहीं हो सकती। जरूरी है कि आप अपने साथ दूसरों को भी आगे ले जाएं। उनके जीवन पर अच्छा असर डालें। इसके लिए बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं होती। कितनी ही बार आपकी एक हंसी, एक हामी, छोटी सी मदद दूसरे का दिन अच्छा बना देती है। अमेरिकी लेखिका माया एंजेलो कहती हैं,‘जब हम खुशी से देते हैं और प्रसाद की तरह लेते हैं तो सब कुछ वरदान ही है ।’ सामुदायिक चेतना और सकारात्मकता का विकास हो, सबका प्रशस्त चिंतन हो, स्वयं और समाज के संदर्भ में तब कहीं जाकर समाज का वास्तविक विकास होता है। आज राष्ट्र का और पूरे विश्व का निरीक्षण करें, स्थिति पर दृष्टिपात करें तो साफ पता चल जाएगा कि लोगों में स्वार्थ की भावना बलवती हो रही है।

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