हम जानते हैं पर मानते नहीं

श्‍याम नारायण रंगा

हमारे समाज में और आस पास के माहौल में काफी दोहरे मुँह वाले लोग रहते हैं। लोग कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। व्यक्ति के कहने और करने में बिल्कुल भिन्नता रहती है। यही प्रवृति आज समाज में सारी और दिखाई दे रही है। हालात ऐसे हो गए हैं कि ये समझ पाना मुश्किल हो गया है कि कौन कैसा है और पता नहीं कब किस रूप में सामने आ जाए। चारों तरफ ऐसे झूठ का माहौल है कि सारे वातावरण में झूठ ही झूठ घुलामिला नजर आता है। व्यक्ति की उपस्थिति उसके झूठी उपस्थित नजर आती है। आज कोई भी व्यक्ति किसी का असली चेहरा नहीं जान पाता है।

उदाहरण के लिए हम बात करें तो व्यक्ति आदर्श व समझ की बड़ी बड़ी बातें करता है परन्तु जब उसके सामने उन आदर्शों और उपदेशों को अपनाने की बात आती है तो यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि ये तो सिर्फ कहने की बातें है अपनाई थोड़ी जाती है। मतलब जो बात उसने खुद ने कही उसे ही वह अगले ही पल मानने या उसके अनुसार चलने से मना कर देता है।

इस संदर्भ में एक कहानी मेरे जेहन में आती है कि एक सेठजी रोज एक महात्मा जी का प्रवचन सुनने जाते थे और महात्मा जी का बड़ा सम्मान भी करते थे। महात्मा के गुणगान सबके सामने ऐसे गाते थे जैसे उनके समान कोई और महात्मा है ही नहीं। ये महात्मा जी अपने प्रवचनों में रोज प्रत्येक जीव के प्रति प्रेम करने की बात कहते और प्रत्येक जीव को न मारने का प्रवचन देते थे। एक दिन सेठ जी इस सत्संग में अपने बेटे को भी लेकर गये। बेटे ने बड़े श्रद्धा से प्रवचन सुना। सेठ जी अगले ही दिन बेटे को अपनी दुकान पर ले गए और दुकान बेटे के भरोसे छोड़ खुद प्रवचन सुनने चले गए। पीछे से दुकान में एक गाय ने मुँह मार लिया और वहाँ पड़ा सामान खाने लगी। यह देखकर बेटा गाय के पास बैठ गया और उसे सहलाने लगा। थोड़ी देर में सेठजी आए और यह दृष्य देखकर आग बबूला हो गए और बेटे को भला बुरा कहने लगे तो बेटे ने महात्मा जी का उल्लेख करते हुए कहा कि गाय को कैसे हटाता, वह तो अपना पेट भर रही थी और उसे मारने पर जीवों पर हिंसा होती। सेठजी समझ गए और तुरंत बोले कि बेटा प्रवचन सिर्फ सुनने के लिए होते हैं और उस पाण्डाल तक के ही होते हैं, वहाँ के प्रवचन दुकान पर नहीं लाए जाते सो आगे से ध्यान रखना।

कहने का मतलब यह है कि सब लोग जानते हैं कि सच क्या है और झूठ क्या तथा सही क्या है और गलत क्या और मजे की बात यह है कि सारे लोग आपस में चर्चा सही सही बातों की करते हैं और हर वक्त अपने आप को सही साबित करने की कोशिश में ही लगे रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का अपने दोस्तों के सामने और समाज के सामने ऐसा ही व्यवहार होता है जेसे सारा संसार तो गलत है पर मैं एकदम सही हूँ और सत्य के मार्ग पर चलता हूँ। प्रत्येक व्यक्ति हर वक्त यही साबित करने में लगा रहता है कि मैं एकदम सही हँ ओर कभी गलत नहीं करता हूँ। मतलब यह है कि ऐसा प्रत्येक व्यक्ति सही और गलत की अच्छी समझ रखता है और पहचान सकता है कि कौनसी बात सही है और कौनसी गलत है। परन्तु जब व्यवहार में उस बात को अपनाने की बात आती है तो सब के सब पीछे हट जाते हैं और व्यवस्था और सिस्टम की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को मालूम है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, भ्रश्टाचार नहीं करना चाहिए, सत्य का सहारा लेना चाहिए, चापलूसी नहीं करनी चाहिए, धर्म पर चलना चाहिए, कपट और धोखा नहीं करना चाहिए आदि आदि लेकिन ये सब कुछ जानने के बाद भी व्यक्ति इन बातों को मानता नहीं है। वह झूठ बोलता है, जमकर भ्रश्टाचार करता है, परनिंदा करता है, अधर्म और भ्रष्‍ट व्यक्तियों का साथ देता है, अपने राश्ट्र ये गद्दारी करता है। इसका यह मतलब हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति जानबूझकर यह सब करता है और वह जानता है कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए फिर भी वह करता है और मानता नहीं है।

हमारे धर्मगुरू, कवि, नेता, वकिल, डॉक्टर, पत्रकार आदि आदि सभी वर्गों के लोग एक दूसरे के सामने बड़ी सैद्धान्तिक और समझ की बातें करते हैं लेकिन जैसे ही अपनी गद्दी से उतरते हैं या माहौल से हटते हैं सब भूल जाते हैं। धर्मगुरू एक गद्दी पर बैठ कर सन्यास, बैराग, धर्म, परोपकार, सच, आस्था, भक्ति, त्याग, बलिदान की बातें करते हैं परन्तु जैसे ही भाशण पूरा होता है वे ही महँगी गाड़ियों में सवारी करते हैं और एयरकन्डीसन्ड कमरों में जीवन बीतातें हैं और ऐसे भी मामले आए हैं कि ये धर्मगुरू भोग, लिप्सा व वासना के चक्रव्यूह में फॅंसे रहते हैं। इसी तरह वकील कानून की बात करता है उसकी रक्षा करने की बात करता है परन्तु यह जानते हुए कि अमुक व्यक्ति ने हत्या की है उसे बचाने का प्रयास किया जाता है। ऐसे कितने वकील है कि जिन्होंने यह जानकर अपना क्लाईंट छोड़ दिया कि क्लाइन्ट गलत है। डॉक्टर बातें बहुत करते हैं लेकिन भारी भरकम फीस के बिना देखने वाले डॉक्टरों की संख्या बहुत कम है। मेरे कहने का यही सार है कि किसी को भी यह समझाने की जरूरत नहीं है कि उसे क्या करना चाहिए क्योंकि प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति यह जानता है कि वह कर क्या रहा है और करना क्या चाहिए। उसे सही गलत में भेद करना आता है पर वह करता नहीं है।

यही कारण है कि आज हमारे देष में इतनी समस्याएँ हैं। हमारी कथनी करनी में भेद है। प्रत्येक व्यक्ति अगर अपनी कथनी और करनी में फर्क करना बंद कर दे तो सारी समस्याएं ही समाप्त हो जाएंगी। व्यक्ति जैसा अपने आप को समाज और दोस्तों के सामने प्रकट करता है वेसा ही व्यवहार अपने जीवन में करना शुरू कर दे तो हमें किसी अन्ना हजारे या किसी समाज सुधारक ही जरूरत ही नहीं पड़ेगी। हमें जरूरत है कि हम सब अपने आप को सुधार लें और जो जो अच्छी और सही बातें हम जानते हैं उसे मानना भी शुरू कर दे और खुद अपनी समझ से काम लेना शुरू कर दें। बोलने व करने के इस भेद ने आज हमें ऐसे चौराहे पर ला खड़ा कर दिया है कि हम किसी पर भी भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। पता नहीं कब कौन धोखा दे जाए आज मनुष्‍य का मनुष्‍य पर से और अपनों का अपनों पर भरोसा उठ गया है। आज सच्चे और ईमानदार रिश्‍तों का जो अभाव समाज में देखा जा रहा है वह इसी कारण है कि हम अपनी कथनी करनी में भेद कर कर हैं। संशय भरे इस माहौल में कोई भी किसी पर भी विष्वास नहीं कर पा रहा है। सब को यह डर लगा रहता है कि क्या पता कब कौन पलट जाए। आज आम आदमी की यह सोच बन गई है कि यार हम किसी से अपने संबंध क्यों खराब करें बस थोड़ा भला बोलना ही तो है भले ही वह झूठ हो और इसी प्रवृति ने इस समस्या को जन्म दिया है। हम सत्य बोले प्रिय बोले और असत्य प्रिय न बोले तभी समाज का भला होगा और तभी राष्‍ट्र का भला होगा। हम अपनी कथनी और करनी में एकता लाएँ और जो जानते हैं उसे मानना भी षुरू करे तो निश्‍चय ही समाज में समझ का माहौल बनेगा और हम निरंतर विष्वास के रिश्‍तों में बंधकर एक सुदृढ़ समाज और ईमानदार राष्‍ट्र का निर्माण कर सकेंगे।

7 COMMENTS

  1. आपका धन्यवाद् की आपने मेरा लेख पसंद किया और आप इससे सहमत है और उम्मीद है आगे भी आप लोगो के होस्लाफजई मिलती रहेगी आप लोगो का ye pyar hi है की mai आगे se आगे likhta rahta hu

  2. हम जानते हैं पर मानते नहीं क्योंकि इन दो क्रियाओं के परस्पर कार्यरत हो पाने को देश में अनुकूल वातावरण उपलब्ध नहीं है| प्रवक्ता.कॉम पर लेखकों और टिप्पणीकारों ने इस चिंताजनक स्थिति को लेकर कई समाधान सुझाए हैं| अधिकतर सुझाव व्यक्तिवाद में लिप्त भारतीय से स्वयं कुछ कर लेने की अपेक्षा तक ही सीमित हैं| इसके विपरीत आज के उपभोक्तावाद युग में वो सभी संभावनाए उपस्थित हैं जिन्हें व्यक्तिगत जीवन में किसी तरह पूरा करने को लालायित सामान्य भारतीय पारंपरिक नैतिकता खो बैठा है| भारतीय जीवन में इस दुःखद परिवर्तन को समझने के लिए मैं प्राय: गाय को खूँटी से रस्सी तोड़ दूर भटकने का दृष्टांत देता हूं| खूँटी से बंधी गाय को पानी और चारा नियमित रूप से मिल जाता है लेकिन दूर भटकती गाय को सड़क पर कचरा खाने और लोगों की डांट दुत्कार सुनने को मिलती है| जब हम परिवार और समाज से बंधे धार्मिक विचारधारा में जीवन यापन करते थे तो व्यक्ति और समाज में घनिष्ठ संबंध और अपूर्व संतुलन होता था| वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद ने मानो भारतीय सामाजिक आधार डांवाडोल कर दिया है| या यूं कहिये कि घर में बैठे बिठाए बच्चा टेलीविजन पर भारतीय चलचित्र में हिंसा, अशलीलता, और धारावाहिक ओपेरा से प्रभावित समय से पहले ही प्रौढ़ता बिना जवान हो गया| खेद की बात यह है कि समाज के स्तंभ, अध्यापकगण और धार्मिक गुरुजन भी जीवन की निरर्थक दौड़ा दौडी में फंस कर रह गए हैं| नेतृत्वहीन भारतीय समाज आज भ्रष्टाचार और कुरूतियों का अखाड़ा बना हुआ है|

    कुछ समय से मैंने पूर्वकालीन भारतीय समाज की परिभाषा को समझने और उसकी पाश्चात्य समाज से तुलना करने का प्रयत्न किया है| संक्षिप्त में भारतीय समाज पारंपरिक और धार्मिक भावनाओं पर निर्धारित होने के कारण लोगों में व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन मिलता रहा है| पाश्चात्य समाज में परस्पर सहयोग देखने में मिलता है और इस कारण संगठन उनके समाज का मूलाधार है| हम सशक्त एक अरब इक्कीस करोड अकेले हैं और पश्चिम में मुट्ठी भर बहुतेरे हैं|

    यदि हम चाहते हैं कि भारतीय समाज में शिष्टाचार हो, भारतीय समाज में नैतिकता हो, भारतीय समाज में सभी वर्ग के नागरिकों में स्वाभिमान हो तो हमें उसके लिए सामूहिक रूप में उपयुक्त वातावरण बनाना होगा| वर्तमान शासकीय व्यवस्था में यह कदापि संभव नहीं है| हमें चाहिए कि बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान आन्दोलन के अंतर्गत भद्र, सचरित्र, न्यायप्रिय, व राष्ट्रवादी लोग राजनीति में आएं और तुरंत भारत पुनर्निर्माण में लग जाएं| अच्छी शासन प्रणाली ही समाज को सुदृढ़ और देश को शक्तिशाली बना सकती है|

  3. जीवन मे व्यवहारिकता के तौर पर कहने से करना कठिन है जैसे की अधिकार जताना आसान है परन्तु कर्तव्यों को निभाना बहुत कठिन | हम व्यक्तिगत रूप से जब भी कुछ करना चाहते है तो बहुत सारी कठिनाईया आती है | इस प्रकार कभी न चाहते हुए भी हम गलत कर बैठते है परन्तु एक संस्कारवान व्यक्ति अपने को बार बार गलत करने से बचाता है | मूलभूत रूप से ऐसे लोग चाहे जिस पद पर हो समाज के आदर्श होते है | संस्कार हमे अपने माता पिता एवं अपने आस पास के लोगो एवं वातावरण से प्राप्त होता है | मैने बचपन से देखा है एवं अभी अपनी ७४ साल की माता से यही बात सुनने को मिलती है की कैसे संयूक्त परिवार मे हमे पाला है | माता पिता अपने बच्चो को पालने मे ही गलती करते है ,एवं कभी कभी माता पिता के एक से विचार मिलना कठिन होता है, कभी कभी दोनों मे बच्चो के प्रति होड़ होती है जिसमे बच्चे के विकाश से ज्यादा खुद को महान बनाने के और पैसे कमाने की लगन होती है | जब भी लोग बात करते है तो तर्क कम कुतर्क ज्यादा | इस प्रकार एक पढ़ा लिखा व्यक्ति भी दो तरह की जिन्दगी जीता है जैसे हाथी के दात खाने के और दिखाने के और | कुल मिलाकर एक पढ़ा लिखा व्यक्ति यदि संस्कार विहीन है तो अपने पद ,प्रतिष्टा एवं स्नेही जनों के संबंधो का दुरुपयोग करके आगे तो बढेगा एवं समाज के नैतिकता का पतन करेगा अर्थात वह समाज के एक लिये एक अभिशाप ही सिद्ध होगा | आजकल हर क्षेत्र मे ज्यादातर सफल लोगो की यही कहानी है और ए धरा चलती रहेगी |
    हम इतना सुनते है , पढते है , बात विचार करते है परन्तु कुछ फर्क नहीं | इस संसार मे जो जितना सफल कहा जाता है वह नैतिक, सामाजिक , धार्मिक रूप से उतना ही गिरा हुआ है |ॐ रेखा सिंह

  4. मीणा जी को पढकर लिख रहा हूं।
    मेरे विचारसे, समाज में निम्न प्रकारकी आपसी प्रक्रियाएं चलते रहती है। वैसे यह विषय संदिग्ध है, पर कुछ वैचारिक स्तरपर मेरी सोच प्रस्तुत।
    तीन प्रकारसे लोग व्यवहार सीखते हैं।
    {क} (१) वें, जिन का कोई भला करता है, तो वे भी भलाई करना चाहकर दूसरों की भलाई करना सीख जाते हैं। सतसंग से भी यह बरताव सीखा जा सकता है। यही प्रक्रिया बूराई की भी हो सकती है।
    (२) दुर्जन इससे विपरित होते हैं। जिनका आप भला भी करें, तो भी वे अपनी बुराई छोड नहीं सकते। वे संसार में बुराई ही करती रहेंगे।
    (३) कुछ इस संसार के उजाले ऐसे होते हैं, कि उनकी कोई बुराई भी, करें, तो भी वे सभीकी भलाई ही करते रहते हैं। भलाई करे, तो भलाई ही करेंगे। अर्थात इनकी भी वयक्तिक मर्यादाएं होती हैं।

    {ख}(४) दूसरी प्रक्रिया जो समाज में चलते रहती है, वह संग की है।सतसंग से व्यक्ति (बाल मन पर अधिक प्रभाव) देखा देखी अच्छी बाते सीखता है, दुःसंगसे बूरी। सत्संग में फिर अच्छे संगी आपसमें सहायता करें तो व्यक्ति भी अच्छाई अपने आचरण में लाना सीख लेता है। अच्छाई से अच्छाई पोषित होकर, प्रोत्साहित होती है। कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं इस भांति समाजमें बदलाव क्रियान्वित करती है।
    (५) अच्छाई की सराहना और अच्छा बनने के लिए प्रेरित करती है। रामकृष्ण परमहंस इसे “सत से सत” जगाना कहते हैं। आपका एक सत देखकर सराहना करने पर, आपको मेरा भी सत देखकर भले शब्द कहने की इच्छा होना, इसीमें आता है। इससे अच्छाई बढ कर फैल भी स्दकती है।
    (६) असत से आप किसीका असत भी जगा सकते हैं। इसको अंग्रेज़ीमें Escalation कहा जा सकता है। बुराई से बुराई भी पोषित होती है।
    कुछ सत्संगी इकाइयां समाजमें भलाई के लिए काम करती है।
    विशेष सूचना: जब कोई संस्था राजनैतिक स्वार्थसे प्रेरित होकर दिखावे के लिए कुछ अच्छा काम करती है, तो उसकी प्रेरणा देने कि क्षमता घट जाती है।
    (७) और एक बात: समाज श्रेष्ठ जनों का अनुकरण भी करता है।==> यद यद आचरति श्रेष्ठ: तत्तेवेतरो जनाः॥ गीता:

  5. जैसे एक परिवार में सभी व्यक्ति समझदार नहीं होते तो एक व्यवस्था में सभी व्यक्ति समझदार कैसे हो सकते है, जब किसी व्यक्ति के आस पास के लोग गलत संसाधनों का इस्तेमाल करके आर्थिक रूप से समृद्ध हो जाते है और समाज में ये प्रचारित कर दिया जाता है की आर्थिक समृद्धि ही सफलता का पैमाना है और बालमन से ही हम इस प्रचार के जाल में फंस जाते है तो व्यस्क होकर सज्जन व्यक्ति बन पाना एक दुरूह कार्य हो जाता है,
    पिछले २००० सालों में समाज में आई ये गिरावट एक दिन में दूर नहीं की जा सकती, भारतीय प्राचीन समाज द्वारा किसी राष्ट्र की व्यवस्था को ऊपर से नीचे की और चार चरणों में बांटा गया है
    १. धर्म व्यवस्था
    २. समाज व्यवस्था
    ३. राज व्यवस्था
    ४. अर्थ व्यवस्था
    लेकिन इन २००० वर्षों खास कर पिछले २०० वर्षों में इस व्यवस्था को एकदम उलट दिया गया है जिसके कारण ये संस्थाए कमजोर हुई और इन चारों व्यवस्थाओं पर राष्ट्र के कुछ सबसे बुरे और भ्रष्ट लोगों द्वारा कब्ज़ा कर लिया गया, जिसमे हर व्यवस्था में उच्च स्तर पर शोषण करने वाले है और निम्न स्तर पर शोषित होने वाले, समस्या केवल ये नहीं है बल्कि ये है कि जिन शोषित होने वालों को उच्च स्तर पर स्थापित कर दिया जाता है वो भी भ्रष्ट होते है वजह जिस व्यवस्था में हम जी रहे है उसमे भ्रष्ट व्यक्ति ही ऊपर आ सकता है
    इसलिए जरूरी है कि हम चिंतन करें और उसी व्यवस्था को पुनः स्थापित करें जिससे समाज का कल्याण हो सके

  6. आपके प्रतिउतर के लिए धन्यवाद् और मेरी उम्मीद है की आपकी प्रतिकिरिया लोगो को प्रेरित करेगी की वो अपने आस पास के माहोल में सकारात्मक विचारो को ग्रहण करे
    हम सब कथनी करनी मई भेद बंद कर दे और कथनी और करनी मई समानता रखे तो ही एस समस्या का समाधान होगा

  7. प्रिय श्याम नारायण रंग जी,
    नमस्कार!
    आपका आलेख ” हम जानते हैं पर मानते नहीं” पढ़ा, जिसका आपने खुद ही निष्कर्ष निकलते हुए लिखा है कि-

    “…….मेरे कहने का यही सार है कि किसी को भी यह समझाने की जरूरत नहीं है कि उसे क्या करना चाहिए क्योंकि प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति यह जानता है कि वह कर क्या रहा है और करना क्या चाहिए। उसे सही गलत में भेद करना आता है पर वह करता नहीं है।…..”

    मुझे नहीं लगता कि कोई भी सच्चे ह्रदय का स्वामी इन्सान आपके आलेख से असहमत होगा! ये अलग बात है कि इस आलेख में लोगों को लड़ाने और उन्हें गाली देने के लिए मसाला नहीं है, इसलिए कथित विद्वान इस आलेख पर टिप्पणी करेंगे, (आपके पूर्व प्रदर्शित किसी भी आलेख पर उनके दर्शन नहीं हुए हैं) मुझे इसमें संदेह है! अत: मैं इस आलेख को सामने रखकर एक सवाल उठाने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ, मैं ऐसी आशा करता हूँ कि मेरा यह सवाल कथित विद्वान और राष्ट्रभक्तों को जरूर टिप्पणी करने को उद्वेलित करेगा, बशर्ते उनमें संवेदना जिन्दा होगी?

    सवाल यह है कि-
    आपके अनुसार

    “..हमारे धर्मगुरू, कवि, नेता, वकिल, डॉक्टर, पत्रकार आदि आदि सभी वर्गों के लोग एक दूसरे के सामने बड़ी सैद्धान्तिक और समझ की बातें करते हैं लेकिन जैसे ही अपनी गद्दी से उतरते हैं या माहौल से हटते हैं सब भूल जाते हैं।..”

    मित्र समाज को रसातल की ओर ले जा रही यह गंभीर स्थिति एक दिन में नहीं आयी और न ही ये हालात मात्र “मैकाले की शिक्षा का परिणाम तो मने नहीं जा सकते”, क्योंकि इसमें तो हमारे ध्यानी-ज्ञानी और दिव्य शक्तियों के कथित जानकर “धर्मगुरू” भी शामिल हैं, जिनका मैकाले की शिक्षा से दूर का भी वास्ता नहीं रहा और यदि रहा भी होगा तो उनके पास तो “देवभाषा संस्कृत”, “देव वाणी वेद एवं गीता” का ज्ञान था, जो मैकाले जैसों के प्रभावों से मुक्त रखने में अभेद्य कवच बताया जाता रहा है? यदि फिर भी हमारे “धर्म गुरू” भी मुखौटे लगाने लगे हैं, तो कहीं न कहीं खोट हमारे अपने ही अन्दर है!

    आपके इस “विद्वता और गरिमा” से सराबोर आलेख की ये उपलब्धी होगी यदि हम यहाँ पर इस बात पर चर्चा कर सकें कि “आपके आलेख में वर्णित हालातों के लिए कौन जिम्मेदार है?” क्योंकि जिम्मेदार कारकों को ढूंढें बिना समाधान की दिशा में सही कदम कैसे बढ़ाये जा सकते हैं? और सही दिशा में कदम उठाये बिना दशा नहीं बदल सकती! यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि आज हम हर दिन सामाजिक मूल्यों का ह्रास होते देख रहे हैं!

    आशा है कि अन्य मित्र इस चर्चा में शामिल होकर इसे आगे बढाने में योगदान करेंगे!

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