समाज

हमें नकल छोड़नी होगी

डॉ. नीरज भारद्वाज

बचपन के सुने किस्से-कहानियां समय के साथ-साथ बहुत बार सार्थक से दिखाई देते हैं। गाँव के चौक-चराहें, बरगद के नीचे, चौपाल में बैठे बुजुर्गों के अनुभवों की बात किसी पुस्तक में शायद नहीं लिखी है। उनका अनुभव उनके साथ बैठकर ही लिया जा सकता है। हम बंद कमरों में बैठकर मोटी-मोटी किताबों के माध्यम से देश-दुनिया के व्यवहार को जानने की कोशिश करते हैं। लेकिन बुजुर्गों का सामाजिक अनुभव चाल-ढाल से ही व्यक्ति के बारे में बता देता है। अब धीरे-धीरे महानगरों में गाँव की परिपाटी बदल चुकी है। लोग अपने स्वार्थ में माया नगरी में धन कमाने के चक्कर में लगे हैं। एक दूसरे से बड़ा बनने की होड़ ने रिश्तों को समाप्त कर डाला है। लोग तेजी से मनोरोगी बनते जा रहे हैं, जब आपकी कोई सुनने वाला ही नहीं है तो आप मनोरोग से ग्रस्त हो ही जाओगे।

किस्से-कहानी हमारे समाज का ही अंग होते हैं और उसमें मनोरंजन, कल्पना, संवेदना सभी कुछ मिलाकर लिखा जाता और सुनाया जाता है। एक कहानी याद आती है कि एक बार एक भालू शहद खा रहा था, बंदर भी वहीं पर उछल-कूद कर रहा था। भालू को पता था कि बंदर नकलची होता है। उसने बंदर को थोड़ा सा शहद चटा दिया। बंदर को शहद अच्छा लगा। बंदर शहद मांगता रहा, लेकिन भालू ने उसे दोबारा नहीं दिया। थोड़ी देर बाद बंदर ने भालू से पूछा, आखिर आपको यह मिला कहां, इतना ही बतला दें। भालू ने ततैया के छत्ते की ओर इशारा कर दिया। बंदर को भालू के हाथ का छत्ता और ततैया का छत्ता एक समान सा दिखा। बंदर ने बिना सोचे-समझे ततैया का छत्ता तोड़ लिया। उसमें शहद तो था ही नहीं। ऊपर से ततैयों ने बंदर को डंक मार-मार कर घायल कर दिया। नकलची बंदर बड़ा परेशान हुआ, पूरा शरीर दर्द से तड़पता रहा। भालू इस दृश्य को देखकर मुस्कुराता रहा।

यहां बंदर कोई और नहीं है, हम सभी हैं, ऐसा कई बार लगता है। हमारे पास थोड़ा धन, पद, वैभव आदि आ जाए, बस उसी की उछल कूद में लग जाते हैं। लोन पर घर, लोन पर गाड़ी, लोन पर बच्चों को देश-विदेश में पढ़ाना, घर में नौकर-चाकर से काम करना आदि।कहीं भी इधर-उधर धन को लगा देना आदि।समर्थ होने के बाद भी लोग असमर्थ से दिखाई देते हैं।क्योंकि हमने ऐसे छत्ते में हाथ डाला है, जहाँ शहद नहीं है, केवल ततैयों के डंक हैं। कहने का भाव है कि हम तो केवल एक किस्त बनकर रह गए हैं। किस्तों को भरने, उनका ब्याज, जोड़-घटा करने में ही लगे रहते हैं। जो मिला है उसका सुख कम, आगे कि चिंता में अधिक फंस जाते हैं।

हमने नकल का एक आवरण ओढ़ लिया है, ऐसा भी लगता है। एक घर होने के बावजूद दूसरा घर, फ्लैट, प्लांट या अन्य शहर में कोई जमीन खरीदने की एक परंपरा चल निकली है। एक दूसरे को देखकर अर्थात देखा-देखी हम सभी यह कर रहे हैं।नौकरी करने वाला व्यक्ति स्टॉक मार्केट में पैसा लगा रहा है, इसके लिए विज्ञापनों को सुना जा सकता है। चाहे हमें उस विधा का ज्ञान है या नहीं है। उसने लगाया है तो मैं भी लगाकर देख लूं। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि फिल्मों ने लोगों को नकल करना सिखा दिया और फिल्मों से लोग नकल भी करने लगे। फिल्मों के माध्यम से फैशन हमारे जीवन में आ गया। कुछ गिने-चुने सिनेमा के लोग पूरे देश के फैशन को चलते हैं, ऐसा भी लगता है। हम अंधी दौड़ में उनके पीछे-पीछे भाग लेते हैं। उसके प्रभाव-कुप्रभाव को नहीं देखते। बस उसे लेना ही हमारा उद्देश्य हो जाता है।

फिल्मी नकल के चलते और बहुत सारी फिल्मों के चलते हमारी संस्कृति, हमारी पारिवारिक व्यवस्था, हमारे देवी-देवताओं पर कुठाराघात किया गया है। फिल्मों की नकल करके समाज में बड़ा परिवर्तन आ गया। हम उसे ही सत्य मानकर उनकी चाल में रमते चले गए। रूपले पर्दे कोकुछ लोगों ने सत्य मान लिया, जो सत्य है ही नहीं। हमारी सृजनशीलता धीरे-धीरे समाप्त हो रही थी,इसी बात को देखकर देश के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने देश के श्रम, कौशल, कला, संस्कृति आदि के विकास पर बल दिया। लोकल फॉर वोकल से देश के उत्पादों और सेवाओं का उपयोग करने की बात की। लोगों को भी बात समझ में आई, देशी व्यापार में बढ़ोत्तरी हुई। लोगों को काम-रोजगार मिला। विचार करें तो हमें नकल से नहीं अक्ल से काम लेना चाहिए। हमें नकल नहीं सृजन करना है।

डॉ. नीरज भारद्वाज