दिन का विवाह: समझदारी भरा एक कदम

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प्रायः लोग शादी-विवाह का निमन्त्रण पत्र तो यथासमय भेजते ही हैं; पर उसका दिन निश्चित होने पर फोन से भी बता देते हैं, जिससे व्यक्ति अपना वह दिन सुरक्षित कर ले।

ऐसे फोन आने पर मैं प्रायः पूछता हूं कि विवाह दिन में है या रात में ? लोग आश्चर्य से कहते हैं – विवाह तो रात में ही होता है। दिन में शादी कौन करता है ? ऐसे में पिछले दिनों हिन्दुस्थान समाचार में कार्यरत मित्रवर डा0 अमित जैन दिन में होने वाले अपने विवाह का निमन्त्रण देने आये, तो सुखद आश्चर्य और अत्यधिक प्रसन्नता हुई। उन्होंने समारोह की कुछ अन्य विशेषताओं के बारे में भी बताया, तो वहां जाने की उत्सुकता होनी स्वाभाविक ही थी।

वहां खानपान तो सामान्य विवाहों जैसा ही था; पर भौंडे नाच-गान की बजाय कलाकारों के एक दल ने हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि के लोकनृत्य प्रस्तुत किये। सेना के बैंड ने भी कई अच्छी धुन सुनाकर आनंदित किया। जितने समय भी मैं वहां रहा, मन को अच्छा लगा। अतः मैंने अमित को इस साहस के लिए बधाई दी।

प्राचीन भारतीय परिपाटी दिन के विवाह की ही है। श्रीराम, श्रीकृष्ण या गौतम बुद्ध आदि के विवाह दिन में ही हुए थे। हिन्दू विवाह का मुख्य आधार ‘सप्तपदी’ है। उसके बिना विवाह पूरा नहीं होता। यह कभी भी हो सकती है। कहीं-कहीं वर और वधू दोनों सूर्य या उगते हुए ध्रुव तारे को देखकर या पर्वत के प्रतीक पत्थर पर पैर रखकर मंत्रोच्चार करते हुए अपने अटल दाम्पत्य की कामना करते हैं।

कृषिप्रधान भारत में प्रत्येक सामाजिक व धार्मिक आयोजन खेती की सुविधा से जुड़ा है। व्यक्ति, परिवार और समाज के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होने के कारण विवाह तभी होते हैं, जब लोग फुर्सत में हों तथा मौसम भी ठीक हो। प्रायः फसल कटने के बाद जब किसान के पास धन होता है, तभी वह कपड़े और गहने आदि खरीदकर बच्चों के विवाह करता है। विवाह के दिनों में हलवाई, बैंड, टैंट, वाहन, दर्जी, सुनार, धोबी, मजदूर आदि सबके काम चल पड़ते हैं। यह भारत की अर्थव्यवस्था को चलाने वाला सबसे बड़ा इंजन है।

वस्तुतः पहले तो विवाह के कार्यक्रम कई दिन चलते थे। ग्रामीण क्षेत्र में दो-तीन दिन तक बारात रुकने और उसके स्वागत सत्कार की बात 40-50 साल पहले तक होती ही थी; पर अब तो चार-छह घंटे में ही स्वागत से लेकर विदाई तक सब निबट जाते हैं।

परम्परा चाहे अच्छी हो या खराब, पर उसे बनने और बिगड़ने में सैकड़ों साल लगते हैं। इस दृष्टि से हम वैवाहिक परम्पराओं में हुए परिवर्तन को देखें। इसमें मुख्य भूमिका मुस्लिम आक्रमणों की है, जिनका दुष्प्रभाव हमारी समाज व्यवस्था पर भरपूर हुआ है।

हिन्दू धर्म में नारी को बहुत सम्मान से देखा जाता है; पर इस्लाम में उसे पुरुष की खेती कहकर भोग्या माना गया है। लड़ाई में जहां हिन्दू योद्धा विपक्षी स्त्री को हाथ नहीं लगाते थे, वहां मुसलमान उनसे दुराचार को मजहबी कर्तव्य और वीरता मानते थे। ऐसे में हिन्दू मनीषियों ने विचार विमर्श कर कुछ निर्णय लिये। प्रायः ये निर्णय कुंभ में होते थे। वहां आये लाखों लोग लौटकर इन्हें अपने गांव में प्रचलित कर देते थे। धीरे-धीरे फिर वही परम्परा बन जाती थी।

भारत में युवक के विवाह के लिए 25 वर्ष (ब्रह्मचर्य आश्रम) तथा कन्या के लिए कम से कम 16 वर्ष की अवस्था निर्धारित थी। मुस्लिम हमलावरों की नजर प्रायः कुमारी कन्याओं पर रहती थी। अतः छोटी कन्याओं के भी विवाह का निर्णय लिया गया, जिससे उनकी मांग में सिंदूर देखकर शत्रु उन्हें परेशान न करें।

सोचिये, जब कन्या तीन या चार साल की होगी, तो वर भी सात या आठ साल का ही होगा। इस प्रकार बाल और शिशु विवाह चालू हुए। अक्षय तृतीया पर आज भी बिना मुहूर्त देखे, हजारों बच्चे ब्याह दिये जाते हैं। झंझट से बचने के लिए कन्या को जन्म लेते ही मार देने की तत्कालीन कुप्रथा का वर्तमान रूप ही ‘भ्रूण हत्या’ है।

भारत में कई विदुषी तथा मंत्रदृष्टा नारियां हुई हैं; पर अब शत्रुभय से कन्याओं को घर पर पढ़ाया जाने लगा। अतः उनकी शिक्षा सीमित हो गयी। महिलाएं युद्धविद्या में भी निपुण होती थीं। कैकेयी युद्धक्षेत्र में दशरथ के साथ गयी थी। वहां पति की जान बचाने पर ही उसे दो वर मिले थे। श्रीकृष्ण जब रुक्मिणी को, उसके निवेदन पर विवाह हेतु हरण कर द्वारका लाये, तो रथ रुक्मिणी ने ही चलाया था।

आज भी लड़कियां प्रायः गिट्टू, रस्सीकूद या चैघड़ जैसे घरेलू खेल ही खेलती हैं। लड़के भले ही दूर खेलने चले जाएं; पर लड़कियों को घर के आसपास ही खेलने को कहा जाता है। यह उन नियमों के ही अवशेष हैं। पिछले दिनों पाकिस्तान से हजारों हिन्दू विस्थापित होकर भारत आये हैं। उन्होंने बताया कि मुसलमान गुंडों के भय से वे अपनी बेटियों को आठ-दस साल का होते ही ब्याह देते हैं।

कुछ परम्पराओं के खंडहर अभी शेष हैं, जो हमलावरों से रक्षा के लिए अपनायी जाती थीं। जैसे स्त्रियों का बारात में न जाना। पुरुषों द्वारा सशस्त्र जाना। दूल्हे द्वारा तलवार बांधना और उसकी धार की जांच के लिए किसी डाली को काटना। फेरों के समय दूल्हे के किसी निकट संबंधी का उसके पीछे सशस्त्र खड़े रहना आदि।

पहले लोग स्वाभाविक रूप से लाठी रखते ही थे। विवाह के दौरान खाली समय में अभ्यास के लिए वे परस्पर कुछ हाथ भी आजमा लेते थे। परिस्थिति बदली, तो वह लाठी क्रमशः डंडा और फिर डंडी बन गयी, और उन्हें चलाने के नाम पर ‘डांडिया नाच’ होने लगा। कई जगह वर पक्ष की महिलाएं, पुरुषों की अनुपस्थिति में स्वांग करती हैं। अब तो इसमें भौंडापन अधिक होता है; पर इसका हेतु रात भर जागकर घर को सुरक्षित रखना ही था।

उन दिनों बारात में दूल्हे के साथ, उस जैसा, उसी परिवार का एक सहदूल्हा (सहबाला) भी ले जाया जाता था, जिससे आक्रमण होने पर उसे सहदूल्हा झेल ले; पर असली दूल्हा सुरक्षित रहे। ऐसा न होने पर सहदूल्हे से ही कन्या को विवाह दिया जाए। अर्थात कैसे भी उस निर्दोष कन्या का जीवन बरबाद न हो। आजकल किसी बच्चे को कुछ देर दूल्हे के साथ बैठाने की प्रथा इसी का अवशेष है।

रात का विवाह और तारों की छांव में विदाई भी तभी की देन है।  मुस्लिम सैनिक रात के अंतिम प्रहर में शराब पीकर सोते रहते थे। ऐसे समय में नववधू और दहेज आदि को ले जाना सुरक्षित समझा गया। कई जगह बारात के आने और जाने के मार्ग अलग-अलग रखे जाते हैं। यह भी शत्रुओं को भ्रम में डालने के लिए ही होता था।

ये कुछ आंखों-देखी बातें हैं। ऐसी कई परम्पराएं हैं, जो जाति, क्षेत्र परिवार या बिरादरी के अनुसार निभाई जाती हैं। थोड़ा सा भी सोचने से उसका मूल कारण और वर्तमान में उसकी निरर्थकता समझ में आ जाती है; पर हम ‘लकीर के फकीर’ बने उन्हें ढो रहे हैं।

दिन के विवाह से अनावश्यक खर्च और बेहूदापन बच सकता है। विवाह में पैसे का जैसा नंगा और गंदा नाच होता है, उससे अविवाहित निर्धन युवक और कन्याओं के दिल फट जाते हैं। सामाजिक असंतोष और बढ़ रहे अपराधों का यह भी एक बड़ा कारण है।

रात में युवा मंडली प्रायः शराब पीकर हुल्लड़ करती है। दिन में ऐसा नहीं होगा। इससे बिजली भी बचेगी। रात में घर खाली होने से चोरी का भय रहता है। रात भर जागने से अगले कई दिन तक शरीर स्वस्थ नहीं होता। और नवयुगल ? अतिथियों को विदा करने के चक्कर में वे बेचारे अपना नवजीवन ठीक से प्रारम्भ भी नहीं कर पाते। ऐसे कई तर्क हैं। फिर भी लोग दिन में विवाह नहीं करते।

यहां महाजनो येन गत, स पन्थाः वाली कहावत को याद करें। अर्थात यदि समाज के प्रतिष्ठित लोग इस दिशा में आगे बढ़ें, तो यह परम्परा ठीक हो सकती है।

मेरे एक परिचित उद्योगपति ने एक संत के सम्मुख संकल्प लिया कि वे रात के विवाह में नहीं जाएंगे। कुछ दिन तो यह नियम चला; पर इससे मित्र और संबंधी ही नहीं, पत्नी और बच्चे भी नाराज होने लगे। अतः अब वे रात के विवाह में जाते तो हैं; पर वहां एक घूंट पानी तक नहीं पीते। उनके तीन पुत्रों में से एक का विवाह दिन में हुआ; पर घर वालों के दुराग्रह से बाकी दो के रात में। उन्होंने यह नियम अपने बेटों के विवाह में भी निभाया।

जिस पुत्र का विवाह दिन में हुआ, उसके वैवाहिक संस्कार सम्पन्न होने पर उन्होंने वेदी पर खड़े होकर कहा कि इस विवाह से मेरे डेढ़ लाख रु0 बचे हैं। यह धन मैं अपने गांव के मंदिर, सरस्वती शिशु मंदिर तथा वनवासी बच्चों के एक छात्रावास को दान देता हूं।

वे उद्योगपति एक प्रतिष्ठित समाजसेवी हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी वे सक्रिय और जिम्मेदार कार्यकर्ता हैं। उनके संकल्प से प्र्रेरित होकर कई लोग उनका अनुसरण कर रहे हैं। मेरे एक मित्र अंग्रेजी में छपे निमन्त्रण पत्र वाले विवाह में नहीं जाते। इस कारण कई लोगों ने स्वयं को सुधारा है। अर्थात झुकती है दुनिया, झुकाने वाला चाहिए का सूत्र हर समय लागू होता है।

अब समय आ गया है कि हम देश, काल और परिस्थिति के कारण बनी परम्पराओं को समझें और उनमें से जो कालबाह्य हो चुकी हैं, उन्हें छोड़ दें। वर्षा होने पर छाता खोलना बुद्धिमानी है; पर वर्षा बंद हो जाने पर भी उसे खोले रहना निरी मूर्खता है। रात के विवाह को भी इसी संदर्भ में देखने की आवश्यकता है।

 

5 COMMENTS

  1. लेख अति उत्तम है | हमे इसे अपने जीवन और परिवार मे उतारने की कोसिस करनी चाहिए | जैसा की लेखक ने कहा की वह व्यक्ति अपने ३ पुत्रो मे से एक की शादी दिन मे करके धन अपव्य को बचाकर नेक कार्य में दान कर दिए | यही हमे अपनाना चाहिए | सत्य और प्रेणादायक लेख के लिए लेखक को धन्यबाद |

  2. लेख अति उत्तम था….. और जानकारी योग्य भी..

    धन्यवाद…
    आर त्यागी

  3. एक विवाह का निमंत्रण संस्कृत में छपा हुआ प्रत्यक्ष देखा हुआ है। विवाह भी दुपहर सम्पन्न हुआ था।
    चिन्तन प्रेरक आलेख के लिए लेखक को, अनेक धन्यवाद।

  4. Shri Vijay Kumar,

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  5. विवाह जैसे संस्कार को हम ने ही कुरीतियों से जकड दिया है.आज के युग में जब इन बातों का कोई महत्व नहीं रह गया है,फिर भी हम उन्हें ढोए जा रहे हैं.मजे की बात ये है कि पढ़ा लिखा समाज भी इन लकीरों को पीटे जा रहा है,अन्यथा लाखों रुपये समय व मानव शक्ति की बर्बादी, से बचा जा सकता है.सब लोगों को बुलाना खुशियों को परस्पर बाँटना है,तो साथ ही साथ ही समाज की स्वीकृति बताना है.इस हेतु नई पीढ़ी को भी आगे आ कर कदम बढ़ाना चाहिए.

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