ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने देश-धर्म-संस्कृति को क्या योगदान किया?

0
42

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

               यह ऐतिहासिक तथ्य है कि महाभारत युद्ध के बाद तेजी से देश इसकी प्राचीन वैदिक धर्म एवं संस्कृति की अवनति हुई। वेद वेदों का ज्ञान लुप्त होता रहा और देश में अज्ञान, अन्धविश्वास, मिथ्या परम्परायें एवं कुप्रथायें प्रचलित होती रहीं। देश समाज में घोर अविद्या के काल में ही देश विदेश में वेदेतर अनेक मतमतान्तरों का आविर्भाव हुआ। यह सभी मत इनके ग्रन्थ अविद्या से युक्त हैं। इनमें से किसी में ज्ञान की पूर्णता नहीं है जैसी वेद एवं वैदिक साहित्य में है। वेद सर्वोत्तम विद्या के ग्रन्थ होने पर भी सभी मत पक्षपात व अपने हिताहित के कारण उन्हें स्वीकार करना तो दूर उसका अध्ययन कर अपने निष्कर्ष भी प्रकाशित नहीं करते। ऐसा करना मनुष्य जीवन का सदुपयोग न होकर दुरुपयोग ही कहा जा सकता है। जीवन में मनुष्य की सबसे पवित्र एवं मूल्यवान वस्तु सद्ज्ञान वा विद्या ही होती है। ज्ञान व उसके अनुरुप आचरण करने से ही मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक सभी प्रकार की उन्नति होती है। ऐसा न करने से मनुष्य इन लाभों से वंचित रहता है। मत-मतान्तरों के लोग पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होने के कारण वेद व वैदिक साहित्य की उपेक्षा करते हैं। वेदों के मर्मज्ञ ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में महत्वपूर्ण शब्द लिखे हैं मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्या आदि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। इसके आगे वह लिखते हैं कि उन्होंने जो सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ बनाया है उसमें ऐसी बात नहीं है। न ही किसी का मन दुःखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। 

               ऋषि दयानन्द (1825-1883) के समय में देश धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त अवनत दशा में था। लोगों को ईश्वर आत्मा के सत्यस्वरूप तथा ईश्वर की उपासना की यथार्थ वैदिक विधि का ज्ञान भी नहीं था। यदि होता तो फिर ऋषि को तो आर्यसमाज बनाने की आवश्यकता थी, वेदोद्धार की और ही वेद प्रचार की। उन्हें समाज से अविद्या, अन्धविश्वास, मिथ्या प्रथाओं सामाजिक विषमताओं को दूर करने की भी आवश्यकता पड़ती। वह सत्य की खोज में घर छोड़कर देश भर में विद्वानों के पास न जाते और देश भर में उपलब्ध धार्मिक साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर के सत्यस्वरूप व मृत्यु के बाद आत्मा की गति आदि अनेक विषयों पर ज्ञान प्राप्ति के लिये प्रयत्न न करते। उन्हें मृत्यु पर विजय प्राप्ति के उपाय यदि अपने ज्ञानी पिता व स्थानीय विद्वानों से मिल जाते तो उन्हें घर छोड़ कर सत्य की खोज में न जाना पड़ता। इस कार्य के लिये उन्होंने गृह त्याग कर लगभग 16 वर्ष तक देश के अनेक धर्मस्थानो ंतथा वन-पर्वतों में ऋषियों वा योगियों की खोज की। उन्हें विद्या की खोज की आवश्यकता इस लिये पड़ी की उनके प्रश्नों के उत्तर देश के विद्वानों के पास नहीं थे।

               धर्म के वास्तविक स्वरूप मनुष्य की स्वाभाविक शंकाओं के उत्तर देश के विद्वानों के पास नहीं थे, इस कारण ऋषि दयानन्द को अपनी आयु के 14 हवें वर्ष से 38 वें वर्ष तक देश के अनेक स्थानों पर भ्रमण करने सहित योगाभ्यास एवं विद्वानों की संगति करनी पड़ी। मथुरा के दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द सरस्वती जी के सान्निध्य में लगभग 3 वर्ष (1860-1863) तक अध्ययन करने पर उनकी आत्मा ज्ञान प्राप्त कर सन्तुष्ट हुई। इसके बाद उन्होंने गुरु को दिये वचनों के अनुसार देश व विश्व से अज्ञान व अविद्या को दूर करने के लिये धर्म व वेद का प्रचार करना आरम्भ किया। इसी लिये उन्होंने अज्ञानयुक्त धार्मिक मान्यताओं का खण्डन, सत्य मान्यताओं का मण्डन, अन्धविश्वास, मिथ्या परम्पराओं तथा सामाजिक विषमताओं का खण्डन कर उन सबके वैदिक समाधान प्रस्तुत किये। ऐसा करते हुए उन्हें विधर्मियों से शास्त्रार्थ भी करने पड़े जिसमें विजयश्री सदैव उनको ही प्राप्त हुई। जिन लोगों ने निष्पक्ष होकर स्वामी दयानन्द के साहित्य का अध्ययन किया है, वह सदा सदा के लिये उनके हो गये। उनके शिष्यों में प्रायः सभी मतों के विद्वान व अनुयायी रहें हैं जिन्होंने वेद व आर्य साहित्य का अध्ययन कर वैदिक धर्म का वरण किया और अपने जीवन में उनका प्रचार प्रसार किया। आज भी आर्यसमाज में कुछ शीर्ष विद्वान हैं जिन्होंने आर्यधर्म की महत्ता के कारण इसे अपनाया है और इसके प्रचार प्रसार में पूरी निष्ठा व समर्पण से संलग्न हैं।

               वैदिक धर्म का सत्य स्वरूप विलुप्त होकर इसके स्थान पर धर्म में अनेक अन्धविश्वास, कुरीतियां एवं मिथ्या परम्परायें जुड़ गई थी जिससे समाज में अनेक प्रकार की विकृतियां गई थी। जन्मना जातिवाद ने अनेक भेदभावों को जन्म दिया था जिससे समाज देश कमजोर हुए तथा वैदिक धर्म भी कमजोर अप्रभावी सा हुआ। ऋषि दयानन्द के समय में लोग ईश्वर जीवात्मा आदि का सत्यस्वरूप भूल चुके थे। ऋषि दयानन्द ने वेद प्रचार तथा साहित्य सृजन कर देश देशान्तर में इस अभाव की पूर्ति कीं। उपासना के विषय में भी ऋषि दयानन्द की बहुत बड़ी देन है। उन्होंने ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना पर अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि में प्रकाश डाला है और सन्ध्या नाम से उपासना की विधि भी लिखी है। ऋषि दयानन्द के समय में आर्यों के पांच नित्य कर्मों मे से एक प्रमुख कर्म देवयज्ञ भी अप्रासंगिक एवं अप्रचलित हो गया था। इसकी विधि भी किसी को ज्ञात नहीं थी। ऋषि ने वेद प्रमाणों से देवयज्ञ एवं नैमित्तिक यज्ञों का प्रचार किया व उनकी शास्त्रीय विधि भी प्रचारित की। आज आर्यसमाज के सभी अनुयायी देवयज्ञ एवं नैमित्तिक यज्ञों सहित वेद पारायण यज्ञों को करते हैं जिनकी एक विशेषता यह होती है कि इसमें किसी प्रकार की हिंसा नहीं की जाती जैसी कि मध्य काल में हुआ करती थी। यह ध्यातव्य है कि मध्यकाल में वैदिक यज्ञों में पशु-हिंसा का समावेश होने पर ही नास्तिक मत बौद्ध और जैन मतों का प्रादुर्भाव हुआ था। यदि यज्ञों में तथा समाज में विकृतियां न आयी होती तो देश में यह दोनों अवैदिक मत आविर्भूत न होते।

               आर्यसमाज ने वेद के आधार पर समाज में फैले दर्जनों अन्धविश्वासों कुरितियों को दूर किया। इन अन्धविश्वासों ने मनुष्य का जीवन दूभर कर दिया था। आर्यसमाज ने स्त्री शूद्रों सहित सब वर्णों को समान रूप से वेदाध्ययन तथा वेद के प्रचार प्रसार का अधिकार प्रदान किया। सामाजिक समरसता लाने के लिये भी आर्यसमाज ने अनेक कार्य किये। दलितोद्धार का कार्य भी ऋषि उनके अनुयायियों के द्वारा ही किया गया। वस्तुतः देश में दलितोद्धार की प्रभावशाली पहल आर्यसमाज ने ही की। दलितों को ईश्वर की सन्तान बताकर उनके सभी अधिकार आर्यसमाज द्वारा उन्हें प्रदान कराये गये। शिक्षा जगत में भी आर्यसमाज ने गुरुकुल एवं डी.ए.वी. स्कूल व कालेज स्थापित कर एक क्रान्ति को जन्म दिया। ऋषि दयानन्द से पूर्व व वर्तमान समय में भी विधर्मियों द्वारा हिन्दुओं का लोभ, बल, भय और छल आदि से धर्मान्तरण किया जाता था। जनसंख्या बढ़ाने के अनेक अन्य अनुचित साधन भी अपनाये जाते रहे हैं। आर्यसमाज ने सबको चुनौती दी जिससे वह पहले की तरह से धर्मान्तरण नहीं कर पा रहे हैं। हिन्दू समाज में भी वर्तमान में पूर्व की अपेक्षा काफी सुधार हुआ है। वर्तमान में व्यवस्था के दोषों के कारण धर्मान्तरण का कार्य होता है जो कि आर्य हिन्दू जाति के अस्तित्व के लिये खतरा बन गया है। इस पर देश की सरकार को जनसंख्या नियंत्रण नीति व कानून बनाने की आवश्यकता है। आर्यसमाज ने देश में सबसे पहले धर्म, भाषा तथा स्वसंस्कृति के प्रति स्वाभिमान जगाया। उन्होंने सिद्ध किया कि वैदिक आर्य धर्म संसार का सबसे प्राचीन एवं ज्ञान व विज्ञान पर आधारित धर्म है जो अविद्या व अन्धविश्वासों से सर्वथा रहित है। देश को आजाद कराने का मन्त्र भी ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश लिखकर दिया था जिसकी प्रेरणा से ही कालान्तर में देश में आजादी की चर्चा व उसे प्राप्त करने के संगठित प्रयत्न आरम्भ हुए। ऐसे अनेक कार्य हैं जो आर्यसमाज ने किये हैं। अतः समूचा देश व समाज आर्यसमाज के इन कार्यों के लिये उसके कृतज्ञ हैं। भले ही कोई इस बात को माने या न माने परन्तु यह सत्य है। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का देश में धर्मोन्नति, ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप का प्रचार, अविद्या व अन्धविश्वास निर्मूलन, गुरुकुल व विद्यालय स्थापित करने तथा समाज से भेदभाव व कुरीतियां दूर करने की दृष्टि से सर्वोपरि व महत्वपूर्ण योगदान है। इस दृष्टि से कोई अन्य संस्था आर्यसमाज से समानता नहीं रखती। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress