विश्ववार्ता

जाने क्या बात हुई…

india-pak-flagसवाल है, बात करना किसकी मजबूरी है, हमारी या पाकिस्तान की? दाऊद हमें चाहिए, हाफिज सईद हमें चाहिए, कश्मीर में शांति हमें चाहिए, ईरान से बिजली हमें चाहिए, अफगानिस्तान में अपना बढ़ा हुआ रूतबा हमें चाहिए, बांग्लादेश और नेपाल से आतंकवादियों और नकली नोटों घुसपैठ में कमी हमें चाहिए, चीन से यांगसिक्यांग में मुकाबले के लिए स्वस्थ लोकतांत्रिक पाकिस्तान हमें चाहिए, सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए पाकिस्तान की हामी हमें चाहिए और कश्मीर में शांति के लिए पाकिस्तान का साधु मन हमें चाहिए।

और, पाकिस्तान क्यों ऐंठा हुआ है? हमारे लिए सबसे ज्यादा जरूरी ऊर्जा के मुहाने पर (भारत-ईरान गैस पाइपलाइन) वह बैठा है, जो उसके इशारे पर उसके आतंकवादी कभी भी उड़ा सकते हैं। दाऊद उसके घर में अदृश्य होकर घूम रहा है। हाफिज सईद को वहां की अदालत बरी कर चुका है। बांग्लादेश पर उसकी पकड़ हमसे ज्यादा है, नेपाल में नकली नोटों का कारोबार हम नहीं रोक पा रहे हैं, अफगानिस्तान को वह शांत नहीं होने दे रहा है, संयुक्त राष्ट्र में हमारी स्थाई सदस्यता का वह मुखर विरोधी है। उसके पास भी परमाणु बम है। उसकी खुफिया एजेंसियां, लगातार हमारी एजेंसियों की आंखों में धूल झोंकते हुए मुंबई और संसद पर सफल हमला करने में सफल रहे हैं।

अब आते हैं, शर्म अल शेख की उन मीटिंग्स पर, जिसके बाद भारत-पाकिस्तान का साझा बयान दुनिया के सामने आया। वहां कहा गया कि आतंकवाद से परे सचिव स्तर की बातचीत शुरू होगी। और जारी रहेगी। बातचीत के कुछ घंटे बाद प्रधानमंत्री को संसद के पटल पर सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने क्या कहा। बीजेपी, लेफ्ट सहित विपक्ष ने इसे एक स्वर से नकार दिया। कहा गया कि हम पाकिस्तान से हार गए। हम अमेरिकी दबाव में आ गए। हमने मुंबई हमले के गुनहगारों से समझौता कर लिया।

सवाल है कूटनीति नाम की चिडिया कैसी होती है? इसका द्यूत क्रीड़ा कैसा होता है। अभी तक अनुभव बताता है कि इस चिडिया और तवायफ की अदा में कोई फर्क नहीं है। चांदनी बार फिल्म याद है। उस फिल्म में बार में काम करने आई नई लड़की का दुपट्टा सही करती पुरानी लड़की कहती है, इसे इस तरह रखो कि दिखे और छिपे भी। यह कूटनीति भी ऐसी ही होती है। लगता है कि आपने सब कुछ देख-समझ लिया, जबकि असल में आपके पल्ले कुछ नहीं पड़ा। आपको लगता है आपने जंग जीत ली, और अंत में आप हार जाते हैं।

असल में ऊपर जो हमने बात की कि बातचीत किसकी मजबूरी है। इस सच्चाई से हर भारतवासी को रू-ब-रू होना पड़ेगा। असल में 26-11 के बाद प्रणब दा ने जो हवा बनाई और फिर अमेरिकी बयानों, जी पार्थसारथी जैसे तथाकथित कूटनीतिक विशेषज्ञों और अब एक किताब (इसमें मुंबई हमलों के लिए पाकिस्तानी जनरल कियानी को जिम्मेवार ठहराया गया है) ने तय किया कि हमें केवल और केवल आक्रामक बने रहना है और पाकिस्तान त्राहिमाम करता हुआ भारत की शरण में आ गिरेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और प्रधानमंत्री महोदय ने ‘नाम’ के मंच पर साझा बयान जारी करवा दिया। इससे एकबारगी सभी विशेषज्ञ तोतारटंत ज्योतिषी लगने लगे, क्योंकि जिस तरह से मनमोहन सिंह ने जरदारी को प्रेस के सामने झिड़की लगाई थी, उससे इन पंडितों को अपनी हांकने में बहुत मदद मिली थी।

और यह स्वाभाविक था कि टेलीविजन देख रहे तथाकथित पढ़ा-लिखा भारतीय मानस यह मान चुका था कि आजकल में पाकिस्तान हाफिज सईद को देने ही वाला है। लेकिन जब वास्तविकता का घूंघट हटा तो हकीकत को स्वीकारना इन विशेषज्ञों को बहुत भारी पड़ रहा है। और यही कारण है कि सब एक तरफ से मौजूदा सरकार की आलोचना करने में लगे हैं। लेकिन अगर कुछ सवालों के जवाब ये पंडित और हम अपने-अपने अनुसार ढूंढ़ लें तो इतनी हायतौबा की जरूरत नहीं पड़ेगी।

सवाल 1- क्या मनमोहन सिंह गद्दार हैं, या उन्हें देश की प्रतिष्ठा प्यारी नहीं है?

सवाल2- क्या हम अमेरिका की तर्ज पर पाकिस्तान से जबर्दस्ती करके हाफिज सईद की वसूली कर सकते हैं?

सवाल3- क्या हम दाऊद, आईएसआई और उसके नकली नोटों की सफल काट कर सकते हैं?

अगर नहीं, तो हमें मुंह फुलाए बैठी सौतन के रोल से बाहर आना पड़ेगा, वरना हमें कोई मनाने नहीं आ रहा।

-अनिका अरोडा