ऐसे बाल दिवस के क्या मायने

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बच्चे भविष्य के निर्माता हैं। राष्ट्र की संपत्ति हैं। सभ्य समाज के निर्माण की पूंजी हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि उनका जीवन संकट में है और बचपन दांव पर। देश की सर्वोच अदालत को उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर लगातार चिंता जतानी पड़ रही है। बच्चों की सुरक्षा व स्वास्थ्य को लेकर केंद्र व राज्य सरकारों को ताकीद करना पड़ रहा है। यह अनुचित इसलिए नहीं कि देश में नौनिहालों का बचपन दांव पर है। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि विगत तीन वर्षो में तकरीबन दो लाख से अधिक बच्चे लापता हुए हैं जिनमें से अधिकतर बच्चों का इस्तेमाल बाल मजदूरी और देह व्यापार जैसे धंधों में किया जा रहा है। एक गैर सरकारी संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रतिदिन एक दर्जन से अधिक बच्चे लापता होते हैं और उनकी सुध नहीं ली जाती है। राष्ट्रिय मानवाधिकार आयोग का भी कहना है देश में हर साल चालीस हजार से अधिक बच्चे गुम होते हैं जिनमें से अधिकांश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। शर्मनाक यह भी है कि देश में बड़े पैमाने पर बच्चों का यौन शोषण हो रहा है। इस असंवेदनशील कृत्य का दायरा घर परिवार से लेकर स्कूलों तक फैला हुआ है। आए दिन स्कूलों में बच्चों के यौन शोषण की खबरें समाचारपत्रों की सूर्खियां बन रही हैं। यह सही है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बच्चों के यौन शोषण पर रोक लगाने से संबंधित एक विधेयक को मंजूरी दे दी है। लेकिन जड़ में पहुंच चुकी बुइाईयों को खत्म करने के लिए सिर्फ कानून बनाने के साथ उसका अनुपालन होना ज्यादा जरुरी है। अगर कानूनी दण्ड के भय से सामाजिक बुराईयों और आपराधिक कृत्यों पर लगाम लगता तो बालश्रम कानून लागू होने के बाद बच्चों पर होने वाले अत्याचार कम होते। गौर करें तो अभी पिछले दिनों ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने बाल मजदूरी को लेकर सख्त नाराजगी जताते हुए दिल्ली सरकार, दिल्ली पुलिस और श्रम विभाग को ताकीद किया है कि बाल मजदूरी से जुड़ी शिकायतों पर 24 घंटे के भीतर कार्रवाई हो और बचाए गए बच्चों को मुआवजा देने और उनके पुनर्वास का काम 45 दिनों में सुनिश्चित हो। यह पहली बार नहीं है जब न्यायालय ने बाल मजदूरी को लेकर सख्त रुख अपनाया हो। याद होगा 2009 में भी उसने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए दिल्ली सरकार को कड़े निर्देश दिए थे कि बाल मजदूरी रोकने के लिए ठोस प्रयास किया जाए। लेकिन विडंबना कि न्यायालय के आदेश का पालन नहीं हुआ और न्यायालय को बार-बार आदेश देना पड़ रहा है। नतीजा सामने है। देश में बाल श्रमिकों की तादाद बढ़ती जा रही है। राष्ट्रिय अपराध अनुसंधान ब्यूरो की रिपोर्ट भी बच्चों पर हो रहे अत्याचार का बयां करती है। उचित होगा कि केंद्र व राज्य की सरकारें टास्क फोर्स गठन कर बच्चों पर अत्याचार करने वाले लोगों और संगठनों की पहचान करें और उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई भी। लेकिन विडंबना है कि इस दिशा में ठोस पहल नहीं हो रही है और समाजद्रोही तत्वों का हौसला बढ़ता जा रहा है। वे बिना डर-भय के इन बच्चों का इस्तेमाल बालश्रम, वैश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी जैसे घृणित कार्यों में कर रहे हैं। एक जिम्मेदार राष्ट्र और संवेदनशील समाज के लिए यह स्थिति शर्मनाक है। जिस देश में बच्चे सुरक्षित, शिक्षित और स्वस्थ्य नहीं रहेंगे वह देश कभी तरक्की नहीं कर सकता। लेकिन दुर्भाग्य से देश की सरकारें इसे समझने को तैयार नहीं हैं और नौनिहालों की जिंदगी से खेला जा रहा है। कुछ वर्ष पहले सीबीआई ने दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष तथ्य पेश करते हुए कहा था कि देश में बच्चों का अपहरण करने वाले कई गैंग सक्रिय हैं। यहां तक कि उसने सदस्यों की संख्या भी बतायी थी। लेकिन दिलचस्प तथ्य यह है कि इन अराजक तत्वों और संगठनों की रीढ़ तोड़ी नहीं जा रही है और उन जैसे अन्य संगठन अस्तित्व में आ रहे हैं। यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि देश में कानून का राज होने के बाद भी आपराधिक तत्व बेलगाम है। दरअसल इसकी मुख्य वजह कानून पालन के प्रति उदासीनता है। अगर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होती तो यह नौबत न आती। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23 और 24 में व्यवस्था दी गयी है कि मानव तस्करी व बलात् श्रम के अलावा 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानें और जोखिम भरे कार्यों में नहीं लगाया जाए। 1976 का बंधुआ मजदूरी उन्मूलन एक्ट भी बच्चों को संरक्षण प्रदान करता है। लेकिन स्थिति यह है कि आज संविधान और कानून दोनों की खुलकर धज्जियां उड़ायी जा रही है। करोड़ों बच्चे आज भी बाल श्रमिक के रुप में जीवन गुजारते देखे जा सकते हैं। खेत-खलिहान से लेकर शहर-बाजार के छोटे-बड़े दुकानों पर उनकी मौजूदगी किसी से छिपा नहीं है। काम कराने वाले उनका जमकर शोषण कर रहे हैं। राष्ट्रिय मानवाधिकार आयोग द्वारा भी स्वीकार चुका है कि उसके पास बालश्रम के हजारों मामले दर्ज हैं। लेकिन विडंबना यह है कि उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं हो रही है। ऐसे में सवाल तो बनता ही है कि आखिर किन वजहों से बच्चों की जिंदगी लूटने वाले आपराधिक तत्व आजाद हैं? केंद्र व राज्य सरकारें इसे लेकर क्यों नहीं गंभीर हैं? उनकी उदासीनता का राज क्या है? इस लापरवाली और असंवेदनशीलता का ही कुपरिणाम है कि आज भारत बच्चों की तस्करी वाले दुनिया के खतरनाक देशों में षुमार है। आंकड़े बताते है कि भारत दुनिया में 14 साल से कम उम्र के सबसे ज्यादा बाल श्रमिकों वाला देश है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन बीस करोड़ से अधिक बच्चे जोखिम भरे कार्य करते हैं और उनमें से सर्वाधिक संख्या भारतीय बच्चों की है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ के मुताबिक विश्व में करीब दस करोड़ से अधिक लड़कियां विभिन्न खतरनाक उद्योग-धंधों में काम कर रही हैं। उसके अलावा उनका इस्तेमाल वैश्यावृत्ति और अश्लील फिल्म निर्माण क्षेत्र में भी हो रहा है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। एक आंकड़े के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली में ही सरकार के नाक के नीचे लाखों बच्चे श्रमिक, घरेलू नौकर और भिखारी के रुप में कार्य करते हैं। ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी सरकार को नहीं है। लेकिन वह अपना आंख-कान बंद कर चुकी है। समझा जा सकता है कि जब देश की राजधानी दिल्ली में बच्चों पर अत्याचार जारी है तो देश के बाकी क्षेत्रों में उन पर क्या होता होगा। चौकाने वाला तथ्य यह है कि अब माफिया तत्व अत्यंत सुनियोजित तरीके से बच्चों का इस्तेमाल हथियारों की तस्करी और मादक पदार्थों की सप्लाई में कर रहे हैं। भारत के लिए यह खतरनाक संकेत है। बाल मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इससे बच्चों का बालमन पर बुरा असर पड़ेगा और उनमें नशाखोरी और आपराधिक भाव प्रबल होंगे। सामाजिक समस्याएं बढ़ेगी सो अलग से। अगर केंद्र और राज्य की सरकारें चेतती नहीं हैं तो वह दिन दूर नहीं जब देशद्रोही ताकतें बच्चों का इस्तेमाल आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधियों में भी करेगी। जरुरत आज इस बात की है कि केंद्र व राज्य सरकारें लापता बच्चों के मसले पर संवेदनशीलता दिखाए। उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर ठोस कदम उठाए। आपराधिक तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करें। सरकार के अलावा समाज और स्वयंसेवी संस्थाओं की भी जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों की सुरक्षा के लिए आगे आएं। सिर्फ सरकार के कंधें पर बच्चों की जिम्मेदारी थोपकर निश्चिन्त नहीं हुआ जा सकता। बच्चों की सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए संपूर्ण समाज को संवेदनशील होना पड़ेगा। समझना होगा कि राष्ट्र की संरचना में सरकार से ज्यादा समाज की भूमिका होती है।

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