क्या होगी चुनाव बाद उत्तर प्रदेश की तस्वीर?(U.P elections)

उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में कोई भी दल फिलवक्त तो पूर्ण बहुमत लाता नहीं दिख रहा| राजनीतिक पंडितों की मानें तो बहुजन समाज पार्टी पुनः प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है मगर उसके स्पष्ट बहुमत तक पहुँच पाने में संदेह है| दूसरे नंबर पर समाजवादी पार्टी के रहने के संकेत मिल रहे हैं| यानी पूर्ववत स्थिति में कोई बदलाव नहीं दिखता| सबसे बड़ा दांव इस बार कांग्रेस ने खेला है; युवराज राहुल गाँधी को चुनावी मैदान में उतार कर| राहुल के प्रदेश में जारी ताबड़-तोड़ दौरों से सभी दलों के प्रमुख नेताओं की पेशानी पर बल पड़ना शुरू हो गया है मगर कांग्रेस को उतना जनसमर्थन नहीं मिल रहा जितना राहुल गाँधी का नाम है| फिर राज्य में लगभग मृतप्रायः कांग्रेस के नेताओं में राहुल वह जोश भी नहीं जगा पाए हैं जो उन्हें चुनावी वैतरणी पार कराने में मददगार साबित हो सकता है| रालोद प्रमुख अजीत सिंह से चुनावी गठबंधन कांग्रेस के लिए कितना कारगर होगा, यह वक़्त ही बताएगा| वहीं भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पहली सूची जारी करने में जितनी देर लगाईं थी, उससे वह तीन दलों के मुकाबले काफी पिछड़ी नज़र आ रही है| जहां अन्य दलों ने चुनावी कसरत को कई गुना आगे पहुंचा दिया है वहीं भारतीय जनता पार्टी अभी तक यह भी तय नहीं कर पाई है कि उमा भारती को चुनाव लडवाया जाए या नहीं| फिर चार बड़े दलों के अलावा उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी की चुनौती भी अन्य दलों को अपनी रणनीति बदलने पर बाध्य कर रही है| पिछले विधानसभा चुनाव में यूँ तो पीस पार्टी का एक भी उम्मीदवार जीतने में कामयाब नहीं हुआ था पर उसके वोट प्रतिशत ने जीतने वाले उम्मीदवार का मत प्रतिशत अंतर ज़रूर कम कर दिया था| कुल मिलाकर कहा जाए तो अभी तक उत्तर प्रदेश की आगामी राजनीतिक तस्वीर साफ़ नहीं हो पाई है कि मार्च में कौन सा दल इस प्रदेश की जनता का रहनुमा बनेगा? कुछ राजनीतिक विश्लेषक प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा की संभावनाओं से भी इनकार नहीं कर रहे| यानी उत्तर प्रदेश में सभी दलों के लिए इस बार बराबर का मौका है, सत्ता पर काबिज़ होने का|

 

राजनीतिक पंडितों के बीच भी यह कयास लगाए जाने शुरू हो गए हैं कि यदि कोई भी दल पूर्ण बहुमत नहीं ला पाता है तो प्रदेश में सरकार की सूरत क्या होगी? एक संभावना तो यह बनती नज़र आ रही है कि कांग्रेस समाजवादी पार्टी को सशर्त समर्थन दे और दोनों अपनी संयुक्त सरकार चलायें| एक संभावना यह भी नज़र आती है कि भारतीय जनता पार्टी पुनः मायावती को समर्थन देकर राज्य की गद्दी सौंप दे| राज्य की जनता भाजपा-बसपा गठबंधन पहले भी देख चुके हैं| हालांकि यह गठबंधन राज्य के बाशिंदों का कोई भला नहीं कर पाया था और मायावती ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे इस बेमेल गठबंधन पर लगाम लगा दी थी| इस लिहाज से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-सपा गठबंधन की राह ज़रा आसान सी नज़र आ रही है| इसके पीछे एक कारण कांग्रेस का केंद्र की सत्ता पर पकड़ मजबूत करना भी है| सभी देख रहे हैं कि गठबंधन धर्म से बंधी केंद्र सरकार कोई भी फैसला खुलकर नहीं कर पा रही है| वहीं केंद्र सरकार की प्रमुख सहयोगी तृणमूल कांग्रेस सरकार की नाक में दम किए हुए है| केंद्र के अधिकाँश नेता चाहते हैं कि यदि जल्द ही ममता से दामन नहीं छुड़ाया गया तो कांग्रेस को भविष्य में अत्यधिक नुकसान उठाना पड़ सकता है| अगर कांग्रेस ममता से संबंध विच्छेद करती है तो सपा उसके लिए मुफीद साथी के रूप में उभर सकती है| अभी तृणमूल कांग्रेस के १९ सांसद यू.पी.ए सरकार को समर्थन दे रहे हैं वहीं सपा के २२ सांसद गाहे-बगाहे सरकार को बाहर से समर्थन देते रहे हैं| २००९ में संसद में परमाणु करार के मुद्दे पर जब वाम दलों ने सरकार से समर्थन वापस लेकर सरकार को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने हेतु बाध्य कर दिया था और सरकार संख्या बल के लिहाज से अल्पमत में आ गई थी; तब भी समाजवादी पार्टी के सांसदों ने ही सरकार की लाज बचाई थी| फिर सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव पर आय से अधिक संपत्ति का जो मामला सी.बी.आई. की निगरानी में चल रहा है, उससे कांग्रेस सरकार ही उन्हें बचा सकती है| ऐसे में यह आशंका बलवती हो जाती है कि यदि केंद्र ममता से दामन छुड़ाकर सपा को सरकार में शामिल करती है तो उत्तर प्रदेश में भी इनका गठबंधन होना कोई बड़ी बात नहीं होगी|

 

अभी स्थिति यह है कि समाजवादी पार्टी अखिलेश यादव के नेतृत्व में मायावती सहित कांग्रेस और भाजपा को टक्कर दे रही है मगर अखिलेश में मुलायम सिंह यादव की तरह चमत्कारिक नेतृत्व और सूझ-बूझ की कमी है जो उसे कमजोर कर रही है| समाजवाद के नाम को ढ़ोने वाली पार्टी में परिवारवाद हावी हो चला है| पीस पार्टी और कांग्रेस के चुनावी मैदान में होने से सपा का पारंपरिक मुस्लिम वोट बैंक भी असमंजस की स्थिति से दो-चार हो रहा है| फिर कल्याण सिंह और अमर सिंह; दोनों सपा को नुकसान पहुंचाने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे| ऐसे में समाजवादी पार्टी राज्य में स्वयं के बल-बूते तो सरकार बनाने से रही और यदि वह राज्य में दूसरी बड़ी पार्टी बनकर भी आई तो भी उसे सरकार गठन हेतु गठबंधन का सहारा लेना होगा| ऐसे में कांग्रेस ही उसके लिए एकमात्र विकल्प बनकर उभर रही है| इससे दोनों के मंतव्य भी पूरे होंगे| एक को केंद्र में मजबूती मिलेगी तो दूसरी राज्य में सरकार चलाने में कामयाब रहेगी| हालांकि यह संभावना अभी दूर की कौड़ी ही लगती है मगर इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि दोनों ही दलों के बीच भावी रणनीति को लेकर कोई चर्चा न हुई हो| इन परिस्थितियों में देखना दिलचस्प होगा कि इस बार उत्तर प्रदेश की जनता राजनीतिक दलों को कैसा जनाधार सौंपती हैं और राजनीतिक दल उसका किस तरह इस्तेमाल करते हैं? फिलहाल राजनीति अपने चरम पर है और जनता पुनः किंकर्तव्यविमूढ़ हो राजनीतिक पैंतरों को समझने की कोशिश कर रही है|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

2 COMMENTS

  1. भाजपा के आने से कुशवाहा जैसे लोग फिर गुलछर्रे उड़ायेंगे.उन जैसो के लिए तो कोई अंतर नहीं पडेगा.

  2. मायावती, मुलायम या कोंग्रेस,
    वही हाल, सिर्फ बदलेगा भेस.
    क्योंकि ये सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं.
    —————————–
    अगर भाजपा आयेगी
    तो तकदीर यूपी की बदलेगी.

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