क्या शांतिकाली जी महाराज, स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के बाद अब स्वामी असीमानंद की बारी है?

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

पिछले कुछ समय से दक्षिण गुजरात के डांग जिले के वनवासी क्षेत्रों में सेवा कार्य कर रहे स्वामी असीमानंद भारत सरकार के निशाने पर हैं। चर्च किसी भी स्थिति में स्वामी असीमानंद को डांग से हटाना चाहता था क्योंकि इस वनवासी बहुल क्षेत्र में चर्च द्वारा चलायी जा रही अराष्ट्रीय और असामाजिक गतिविधियों का स्वामी जी विरोध कर रहे थे। सोनिया-कांग्रेस और वेटिकन सिटी में पिछले कुछ दशकों से जो साझेदारी पनपी है उससे यह आशंका गहरी होती जा रही थी कि अंततः भारत सरकार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चर्च की सहायता के लिए उतरेगी। यह आशंका तब सत्य सिध्द हुई जब भारत सरकार की केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने देश में कुछ स्थानों पर इस्लामी आतंकवादियों द्वारा किए गए बम विस्फोटों में अचानक ही स्वामी असीमानंद जी को लपेटना शुरू कर दिया। जांच एजेंसियों ने तीर्थ क्षेत्र हरिद्वार से स्वामी असीमानंद को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें ज्ञात-अज्ञात स्थानों पर रखा और उन्हें तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी। किसी मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए उनके बयान को लीक करते हुए उसे विदेशी शक्तियों द्वारा संचालित मीडिया के एक खास गुट को मुहैया करवाया गया और उनके चरित्र हनन का प्रयास किया गया। भारत सरकार ने यह प्रचारित किया कि स्वामी असीमानंद आतंकवाद से जुडे हुए हैं और इस्लामी अल्पसंख्यकों के विरुध्द साजिश रच रहे हैं। सरकार का कहना था कि असीमानंद ने यह स्वीकार किया है कि संघ परिवार और कुछ हिन्दू आतंकवादी घटनाओं से जुड़े हुए हैं। जांच एजेंसियों ने स्वामी जी को शारीरिक यातनाएं देकर उनसे एक पत्र राष्ट्रपति के नाम भी लिखवाया जिसमें स्वामी जी ने विस्फोटों में कुछ हिंदुओं के हाथ होने की बात कही। यह अलग बात है कि जेल से राष्ट्रपति को लिखा गया यह पत्र राष्ट्रपति तक पहुंचने से पहले ही सरकारी योजना के चलते मीडिया तक पहुंच गया। सरकार ने असीमानंद पर बहुत दबाव डाला कि सरकारी गवाह बन जाएं और सरकार की रणनीति के अनुसार भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवाद से जोड़ने की मुहिम में हिस्सेदार बनें। लेकिन असीमानंद ने स्वयं को और बंगाल में अपने अन्य बंधु-बांधवों के जीवन को स्पष्ट दिखाई दे रहे खतरे के बावजूद यह कार्य करने से इनकार कर दिया। अलबत्ता, स्वामी जी ने कचहरी को यह जरूर बताया कि जांच एजेंसियां उन्हें असहनीय यातनाएं दे रही हैं और उनसे अपनी इच्छानुसार झूठे बयान भी दिलवा रही हैं और राष्ट्रपति को चिटि्ठयां भी लिखवा रही हैं। मुख्य प्रश्न यह है कि सोनिया, कांग्रेस और भारत सरकार स्वामी असीमानंद की पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी हैं? इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। विदेशी मिशनरियां भारत के वनवासी क्षेत्रों में पिछले सौ सालों से भी ज्यादा समय से जनजातीय क्षेत्रों में लोगों के मतांतरण में लगी हुई हैं। इसके लिए इन मिशनरियों को विदेशी सरकारों से अरबों रूपयों की सहायता प्राप्त हो रही है। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों से राष्ट्रवादी शक्तियों और संघ परिवार के लोगों ने भी वनवासी क्षेत्रों में अनेक सेवा-प्रकल्प प्रारंभ किए हैं। जनजातीय क्षेत्र के लोग अब अपने इतिहास, विरासत और आस्थाओं के प्रति जागरुक ही नहीं हो रहे हैं बल्कि सेवा की आड़ में मिशनरियों द्वारा जनजातीय समाज की आस्थाओं पर किए जा रहे प्रहार का विरोध भी करने लगे हैं। पिछले दिनों एक आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेंस, जो लंबे अर्से से जनजातीय समाज के रीति-रिवाजों, उनकी आस्थाओं, विश्वासों, पूजा-स्थलों और देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ा रहा था और उनके विरुध्द अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर रहा था, को ओडिशा के जनजातीय समाज के लोगों ने मार दिया था। तथाकथित हत्यारों को फांसी देने की प्रार्थना को लेकर ओडिशा सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार की इस प्रार्थना को रद्द कर दिया और यह टिप्पणी की कि इस प्रकार की घटनाएं तीव्र प्रकार की घटनाए होती हैं। साधू-संतों ने भी अपने कर्तव्य को पहचानते हुए वनवासी क्षेत्र के जनजातीय समाज में कार्य प्रारंभ किया है। जाहिर है इससे चर्च का भारत में मतांतरण आंदोलन, खासकर जनजातीय क्षेत्रों में मंद पड़ता जा रहा है। चर्च को इससे निपटना है। लेकिन वह अपने बल पर यह काम नहीं कर सकता। इसलिए उसे सोनिया-कांग्रेस की सहायता की जरूरत है। सोनिया-कांग्रेस का वर्तमान संदर्भों में अर्थ भारत सरकार ही लिया जाना चाहिए।

 

चर्च ने अपने इस अभियान की शुरुआत सन 2000 में त्रिपुरा से की। त्रिपुरा के जनजातीय समाज में कार्य कर रहे स्वामी शांतिकाली जी महाराज की ‘नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा’ नामक ईसाई संगठन ने उनके आश्रम में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी। हत्या से पहले चर्च के आतंकवादियों ने उनसे हिंदू धर्म छोड़कर ईसाई बनने के लिए कहा। स्वामी जी के इनकार करने पर उन्हें गोली मार दी गयी। स्वामी जी कई वर्षों से त्रिपुरा के पहाड़ी क्षेत्रों में जनजातीय समाज में शिक्षा, संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। स्वामी जी के कामों के चलते चर्च भोले-भाले जनजातीय समाज के वनवासियों को यीशु की शरण में लाने में दिक्कत अनुभव करने लगा था। भारत में चर्च की चरागाहें मुख्य तौर पर यह जनजातीय समाज ही है। त्रिपुरा में शांतिकाली जी महाराज इसी चरागाह में विदेशी मिशनरियों के प्रवेश को रोक रहे थे। चर्च ने अंत में उसी हथियार का इस्तेमाल किया जिससे वह आज तक दुनिया भर मे ंचर्च के मत से असहमत होने वालों को सबक सिखाता रहा है। स्वामी जी की हत्या कर दी गयी। स्वाभाविक ही हत्या से पहले जिस प्रकार की योजना बनायी गयी होगी, उसी के अनुरुप हत्यारों का बाल-बांका नहीं हुआ। सरकार हत्यारों को पकड़ने के बजाय जनजातीय समाज को यह समझाने का अप्रत्यक्ष प्रयास करती नजर आयी कि ऐसा काम ही क्यों किया जाए जिससे चर्च नाराज होता है। चर्च को आशा थी कि शांतिकाली जी महाराज की निर्मम हत्या से देश के साधु-संताें और राष्ट्रवादी शक्तियां सबक सीख लेंगी और विदेशी मिशनरियों को राष्ट्रविरोधी कृत्यों और मतांतरण अभियान का विरोध करना बंद कर देंगी। परंतु ऐसा नहीं हुआ। जनजातीय क्षेत्रों में विशेषकर ओडिशा के जनजातिय क्षेत्र कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती वही कार्य कर रहे थे जो त्रिपुरा के जनजातीय क्षेत्र में स्वामी शांतिकाली जी महाराज कर रहे थे। त्रिपुरा के स्वामी जी की निर्मम हत्या का समाचार कंधमाल में पहुंचा ही। चर्च बड़े धैर्य से प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के आश्रम में इस हत्या से भय का वातावरण नहीं था बल्कि चर्च के इस अमानवीय कृत्य को लेकर उसकी भूमिका के प्रति दया और क्रोध का मिलाजुला भाव था। स्वामी शांतिकाली जी महाराज की हत्या से जनजातीय समाज के आगे चर्च का असली वीभत्स चेहरा एक झटके से उजागर हो गया। चर्च को सबसे बड़ी हैरानी तब हुई जब इस चेतावनी नुमा हत्या के बाद भी अपने समस्त भौतिक सुखों को त्यागते हुए पश्चिमी बंगाल के नभ कुमार ने सांसारिक जीवन को अलविदा कहते हुए स्वामी असीमानंद के नाम से गुजरात के डांग क्षेत्र के जनजातीय समाज में कार्य करने के लिए प्रवेश किया। डांग एक लम्बे अरसे से ईसाई मिशनरियों की शिकारगाह रहा है और झूठ, छल, फरेब और धोखे से चर्च वहां के जनजातीय समाज को भ्रमित कर इसाई मजहब में दीक्षित कर रहा है। उधर ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के प्रयासों से चर्च के षड्यंत्र अनावृत हो रहे थे। जनजातीय समाज के जाली प्रमाण-पत्र बनाने में चर्च की भूमिका उजागर हो रही थी। यहां तक की सोनिया-कांग्रेस के एक प्रमुख सांसद चर्च की इस जालसाजी में प्रमुख भूमिका अदा कर रहे थे। इस बार में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती से निपटने के लिए चर्च ने काफी अरसा पहले ही पुख्ता रणनीति तैयार की। योजना यह थी कि जैसे ही सरस्वती जी की हत्या की जाए उसके तुरंत बाद मीडिया की सहायता से राष्ट्रवादी शक्तियों और संघ परिवार पर कंधमाल में ईसाईयों को तंग करने और विस्थापित करने के आरोप मीडिया की सहायता जड़ दिए जाएं। यह ‘चोर मचाए शोर’ वाली स्थिति थी। इस योजना के अनुरुप ही अगस्त 2008 में जन्माष्टमी के दिन स्वामी शांतिकाली जी महाराज की हत्या की तर्ज पर ही आश्रम में घुसकर लक्ष्मणानंद सरस्वती को केवल गोलियों से ही नहीं मारा बल्कि कुल्हाड़ी से उनकी लाश के टुकडे भी किए गए। जनजातीय समाज का चर्च के प्रति गुस्सा पूर उफान पर था। परन्तु चर्च पहले ही अपनी योजना के अनुसार आक्रामक मुद्रा में आ चुका था। स्वामी जी की हत्या की औपचारिक तौर पर निंदा करने के बजाय ”क्रिश्चियन कौन्सिल” के अध्यक्ष जॉन दयाल ने कहना शुरु कर दिया की उन्हें तो बहुत पहले ही जेल में डाल देना चाहिए था। इधर चर्च ने शोर मचाया की राष्ट्रवादी शक्तियां और संघ परिवार के लोग अल्पसंख्यक ईसाइयों पर अत्याचार कर रहे हैं, उधर भारत सरकार से लेकर यूरोपीय संघ तक कंधमाल में जांच के नाम पर संघ परिवार को बदनाम करने के काम में जुट गई। लक्ष्मणानंद सरस्वती के असली हत्यारों को पकड़ने की बजाय सरकार ने कंधमाल के जनजातीय समाज के लोगों को पकड़कर जेल में डालना शुरू कर दिया। स्थिति यहां तक बिगड़ गयी कि कुछ लोगों को न्यायालय में यह याचिका देनी पड़ी कि सरकार जानबूझकर गलत दिशा में और गलत प्रकार से जांच कर रही है ताकि स्वामी जी के असली हत्यारे छूट जाएं। चर्च सीना तानकर भारतीय समाज को चुनौती दे रहा था-त्रिपुरा में स्वामी शांतिकाली जी महाराज और ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बावजूद कोई हमारा बाल-बांका नहीं कर पाया। सोनिया कांग्रेस अब नंगे-चिट्टे रूप में ही चर्च के साथ आ खड़ी हुई थी। स्वामियों के हत्यारों को पकड़ने की मांग करने के बजाय वह राष्ट्रवादी शक्तियों को आतंकवादी सिध्द करने में जुटी हुई थी। लेकिन दक्षिण गुजरात को जनजातीय क्षेत्र डांग चर्च की इन धमकियों के बावजूद भयभीत नहीं हुआ था। स्वामी शांतिकाली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के पीछे छिपी हुई शासकीय और अशासकीय शक्तियों को डांग में अपने आश्रम में स्वामी असीमानंद स्पष्ट ही देख रहे थे और इन हत्याओं के माध्यम से दी गई चेतावनी को देश का जनजातीय समाज भी समझ रहा था और स्वामी असीमानंद भी। लेकिन स्वामी असीमानंद ने चर्च की इन परोक्ष धमकियों के आगे झुकने से इनकार कर दिया। डांग में स्वामी असीमानंद के कार्यों की गूंज वेटिकन तक सुनायी देने लगी। फरवरी, 2006 में स्वामी असीमानंद जी ने डांग में जिस शबरी कुंभ का आयोजन किया था, वह ईसाई मिशनरियों और विदेशों में स्थिति उनके आकाओं के लिए एक खतरे की घंटी थी। शबरी कुंभ में देश भर से जनजातीय समाज के 8 लाख से भी ज्यादा वनवासी एकत्रित हुए थे। भील जाति की शबरी ने त्रेतायुग में दक्षिण गुजरात के इस मार्ग से गुजरते हुए श्री रामचंद्र को अपने जूठे बेर प्रेमभाव से खिलाए थे। सबरी माता का उस स्थान पर बना हुआ मंदिर सारे जनजातीय समाज के लिए एक तीर्थ स्थल के समान है। शबरी कुंभ जनजातीय समाज में सांस्कृतिक चेतना के एक नए युग की ओर संकेत कर रहा था। चर्च बौखलाया हुआ था। सोनिया-कांग्रेस से लेकर वेटिकन तक सब चिल्ला रहे थे। भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को कटघरे में खड़ा करने के प्रयास हो रहे थे। लेकिन स्वामी असीमानदं अविचलित थे। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या हो चुकी थी। चर्च इस प्रतीक्षा में था कि असीमानंद स्वयं ही डांग छोड़कर चले जाएंगे और वहां क ा जनजातीय समाज एकबार फिर उसकी शिकारगाह बन जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

 

इस बार असीमानंद की हत्या करना शायद चर्च के लिए इतना सहज व सरल नहीं रहा था। कंधमाल में जनजातीय समाज की प्रतिक्रिया को देखते हुए चर्च सावधान हो चुका था। इसलिए असीमानंद को ठिकाने लगाने के लिए नए हथियार का इस्तेमाल किया गया और उन्हें सोनिया-कांग्रेस के इशारे पर केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने एक दिन अचानक गिरफ्तार करके चर्च का अप्रत्यक्ष रूप से रास्ता साफ कर दिया। स्वामी असीमानंद को जांच एजेंसियां तरह-तरह से यातना दे ही रही हैं लेकिन फिर भी वे विचलित नहीं हुए। उन्होंने न्यायालय में निर्भीक होकर कहा कि जांच एजेंसियां धमकियों और यातनाओं मेरे मुंह में शब्द ठूंस रही हैं। लेकिन वे किसी भी स्थिति में मेरे शब्द न समझे जाएं। चर्च स्वामी असीमानंद को किसी भी हालत में डांग के जनजातीय समाज में जाने नहीं देगा और जाहिर है स्वामी जी अपने संकल्प से पीछे नहीं हटेंगे। जनजातीय क्षेत्र के लोगों को इस बात की आशंका होने लगी है कि कहीं स्वामी असीमानंद की भी स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की तरह ही हत्या न कर दी जाए। हवालात में कैदी की हत्या कैसे की जाती है-इसको सोनिया कांग्रेस की इशारे पर जांच कर रही एजेंसियों से बेहतर कौन जानता है? क्या स्वामी असीमानंद को भी स्वामी शांतिकाली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के रास्ते पर धकेल दिया जाएगा?

3 COMMENTS

  1. कांग्रेस का पूरा सहयोग इसाई मिशनरी को प्राप्त है ही भाजपा भी सेकुलर बन गयी है अब चर्च को अपने कार्यो को अंजाम, देने में सरकार की और से कोई चिंता करने की जरुरत नहीं है चर्च को डर है तो केवल साधू संत महात्माओ और संघ का जिसे वो आये दिन अपने तरीको से बदनाम करते रहते है मिडिया भी सरकार की तरह ही इन मिशनरियों के साथ है जो धर्म युक्त गतिविधियों को बदनाम करने में पीछे नहीं है इसी मिडिया ने स्वामी नित्यानंद पर आरोप का एक जाल बिछाया जिसके पीछे मिशनरिस का हाथ था और इन आरोपों को बुरी तरह से हवा में उछाला गया था परन्तु कोर्ट का फैसला आने के बाद मिडिया चुप है क्योंकि सही फैसले मिडिया द्वारा प्रसारित नहीं होते आसारामजी बापू पर आरोपों का एक संगीन जल भी इसी मिडिया की देन है शंकराचार्यजी पर भी आरोपों को भी मिडिया द्वारा बुरी तरह से हवा दी गयी परन्तु कोर्ट का सही फैसला आने पर मिडिया द्वारा उसे कोई तवज्जो नहीं दी गयी इसके पीछे क्या कारन है यह एक सोचने का vishya है है

  2. आदरणीय अग्निहोत्री जी…आपने चर्च व सोनिया-कांग्रेस का चिटठा खोल के रख दिया…शांतिकाली जी महाराज, स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के बाद अब सभी राष्ट्र विरोधी व हिन्दू विरोधी स्वामी असीमानंद के पीछे पड़े हैं…किन्तु स्वामी असीमानंद को हम नहीं खो सकते…उनको खोने से अच्छा है कि हम चर्च व सोनिया को खो दें…सारे फसाद की जड़ ही ख़त्म हो जाएगी…
    आदरणीय अग्निहोत्री जी इस आलेख के आपका बहुत बहुत धन्यवाद ..
    सादर…

  3. इन की गति विधियों के क्रियान्वयन की निम्न सीढियां है।
    (टिप्पणी कार ने Conversion and Conflict Resolution की George Mason University ,USA- की Conferenceमें (५ वर्ष पहले) सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था।) हम दो ही थे पर सभी (५०) को भारी पडे थे। यह मेरी (सविनय) अपनी नहीं, सनातन धर्म की उपलब्धि है।
    उनकी मॅजोरीटी के मत से कान्फ़ेरन्स का वृत्तांत पब्लिश होने से रोका गया; पब्लिश नहीं होने दिया।
    चर्च का कोई भी गुट तर्क में सनातन धर्म के सामने टिक नहीं सकता।
    यह उनकी गुप्त मिटिंगों में वे बार बार जान चुके हैं।
    इसलिए
    (१) केवल धन के बलपर ही कनवर्ज़न संभव है, यह बात, जानते हैं।
    (२) पश्चिमी देशों से, पापियों के उद्धार के लिए, चंदा जुटाया जाता है। { हम इनसे स्पर्धा कर नहीं सकते}
    (३) हरेक मिशनरी को मतांतरित इसाइयों की संख्या के अनुसार धन वितरण किया जाना।जैसे एजंट को दलाली मिलती है।
    —–हमारा शासन मीशनरी को विसा देता है।
    (४) भारत में पढे लिखे जानकार जनों में इसाइयत की तूती नहीं बजती।
    (५) इस लिए फिर बेकार “शर्मा”, “तिवारी”, ऐसे छद्म नामधारी {इनकी बडी डिमांड है}
    को लुभाया जाता है।{एक बार मुझे भी अप्रत्यक्ष अनुभव हुआ है।}
    इन “शर्मा”ओं की भाषा से, पता चलता है, कि यह अनपढ या अध-पढ है;
    और शर्मा-बर्मा नहीं है। ऐसे चलते पूर्ज़े , यहां रविवारको रेडियो पर होते हैं।
    ॥उनकी रण नीति॥
    (६) तो दूर के गरीब वनवासी प्रदेशों में, और कलकत्ते जैसे नगर के निर्धन महोल्लों में, यह काम
    को सरलता से करने में ही केवल सफलता का संभव दिखता है।
    (७) यह बिज़नेस है। जैसे एजंट होता है। दलाली पर काम करता है। यह लोग दलाल है।
    (८) दुर्भाग्य हमारा कि हमारा शासन भी भ्रष्ट है। चंद सिक्कों के लिए यह जय-चंद हमें डूबाएंगे।
    (९) त्रिनिदाद, सुरीनाम, गयाना इत्यादि में भी कुछ ऐसा ही इतिहास मै ने वहांके पण्डितों से सुना है।
    चेतिए। यह लोग बहुत स्पिरिच्य़ल है।

    (५) यह बिज़नेस है। जैसे एजंट होता है। दलाली पर काम करता है। यह लोग दलाल है।
    (६) दुर्भाग्य हमारा कि हमारा शासन भी भ्रष्ट है। चंद सिक्कों के लिए यह जय-चंद हमें डूबाएंगे।
    (७) त्रिनिदाद, सुरीनाम, गयाना इत्यादि में भी कुछ ऐसा ही इतिहास मै ने वहांके पण्डितों से सुना है।

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