चिंतन

राम जाने इस प्रदेश का आगे क्‍या होगा ?

-सिद्धार्थ मिश्र “स्‍वतंत्र”-  uttar pradesh

इसे सैफई महोत्‍सव कहूं या असंवेदनशीलता का नंगा नाच समझ नहीं आता है। जहां तक महोत्‍सव का अर्थ है तो वो है एक ऐसा उत्‍सव जिसमें राजा समेत प्रजा उल्‍लास के भाव से एक साथ सम्मिलित हों। किंतु उत्‍तर प्रदेश का हालात देखकर तो ये नहीं लगता कि ये वक्‍त उत्‍सव मनाने का है। दंगों, पंगों, घपलों और घोटालों से आजिज जनता से पूछिये कि क्‍या ये वक्‍त उत्‍सव मनाने का है ? जहां तक समाजवाद का प्रश्‍न है तो निश्चित तौर पर समाज से समाज की सम्‍मति से संबंधित शब्‍द है। अब ये कैसा नव समाजवाद है, ये समझ से परे है । एक ऐसा समाजवाद जहां लाभ की मलाई अपने परिजनों के बीच वितरित होती है, एक ऐसा समाजवाद जहां उत्‍सव प्राइवेट लिमिटेड परिवारों की स्‍वीकृति मात्र से मनाये जा सकते हैं। जो भी हो पर समाजवाद की ये व्‍याख्‍या मेरी समझ से तो परे है। रही बात माननीय मुलायम जी अथवा अखिलेश जी की तो इनका समाजवाद का पैमाना शायद इस प्रक्रिया के उलट है।

आप ही सोचिये, शहरों के लिये सड़कें, बिजली, बुनियादी सुविधाओं की बात पर बजट का रोना रोने वाली सरकार ऐसे उत्‍सवों पर अरबों रुपये फूंकते समय इतनी असंवेदनशील कैसे हो जाती है। स्‍मरण रहे कि सत्‍ता के कुकर्मों के दाग ऐसे उत्‍सवों से कभी नहीं धुल सकते। सच कहूं तो चुनाव पूर्व अपनी विनम्रता एवं युवा क्षवि को लेकर प्रदेश सत्‍ता में आये अखिलेश ने पूरे प्रदेश को सिवाय निराशा के कुछ और नहीं दिया है। हालांकि अपने दावों में प्रदेश सरकार इस तथ्‍य को अस्‍वीकार कर सकती है। रही बात इसके कारणों की, तो वो निसंदेह सरकार के सतही मानक हैं। यथा लैपटॉप और बेरोजगारी भत्‍ता देकर सारी समस्‍याएं समाप्‍त हो गयी हैं। यकीन मानिये, ऐसे तुच्‍छ प्रलोभन देकर जनता को भरमाना निसंदेह अखिलेश सरकार का शुतुरमुर्गी रवैया है। ज्ञात हो कि सरकार के इसी रवैये के कारण प्रदेश का विकास आज रूग्‍णावस्‍था में पहुंच चुका है। विकास तो बहुत दूर की बात है, सपा के सत्‍ता में आने के साथ ही आज अपराध अपने चरम तक जा पहुंचा है। रही बात इस पूरी ध्‍वंसलीला की जिम्‍मेदारी की, तो वो निसंदेह सिर्फ और सिर्फ प्रदेश सरकार की है। सर्वप्रमाणित तथ्‍य है कि दोषारोपण कर देने से हम अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते ।

विगत वर्ष हुए मुजफ्‍फरनगर दंगों की आग आज तक अगर ठंडी नहीं हो पा रही है तो उसकी सबसे बड़ी वजह है प्रदेश सरकार का गैर-जिम्‍मेदाराना रवैया। यथा सरकार द्वारा दंगा आरोपितों को क्‍लीनचिट देकर केस वापस लेने की घोषणा अगर सियासी स्‍टंट नहीं है तो और क्‍या है ? समझ नहीं आता वोट बैंक की राजनीति से कोई इतना पतित कैसे हो सकता है कि उसे शरणार्थी शिविर में रहने वाले लोग दल विशेष के कार्यकर्ता नजर आने लगें। यदि ऐसा है भी तो शिविरों पर से ऐसे लोगों का कब्‍जा हटाने की जिम्‍मेदारी किसकी है ? सारे तर्क और तथ्‍य आज सपा के विरूद्ध हैं। बावजूद इसके ऐसे असंवेदनशील उत्‍सव और अश्‍लील लटके-झटके सत्‍ता के कुकर्मों को छिपा नहीं सकते ।

आप ही सोचिये प्रदेश में शांति व्‍यवस्‍था बनाये रखना विकास की गति को रफ्‍तार देने से जैसे कार्य किसके हैं ? यकीनन प्रदेश सरकार की और ऐसे में सरकार  यदि पल्‍ला झाड़ ले तो आम आदमी जाये तो कहां जाये। यदि सत्‍ता संचालित कर रहे दल के कार्यकर्ता एवं पदाधिकारी ही अपराध करें तो शेष लोगों से नैतिकता की उम्‍मीद कैसे की जा सकती है। बेजार जनता और रास रंग में डूबे राजा और प्रजा शायद यही उत्‍तर प्रदेश का सबसे दुर्भाग्‍य है। इस पूरे परिप्रेक्ष्‍य को देखकर तो मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि —

नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहीं विकास इहीं काल।

अली कली ही ते बंध्‍यौ, आगे कौन हवाल ।

राम जाने इस प्रदेश का आगे क्‍या होगा ?