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मौसम की सटीक भविष्यवाणी की मुश्किलें

-प्रमोद भार्गव-
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बरसात शुरू होने से पहले मौसम विभाग द्वारा मानसून की, की गई भविष्यवाणियों में फेरबदल चिंता का सबब बन रहा है। मई की शुरूआत में सामान्य से पांच फीसदी कम बरिश होने की भविष्यवाणी की गई थी, लेकिन 9 जून को की गई भविष्यवाणी में कहा गया कि औसत से सात प्रतिशत कम वर्षा होगी। मसलन 95 फीसदी बारिश का जो अनुमान था, वह घटकर 93 फीसदी रह गया। हालांकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री जितेंद्र सिंह ने मौसम के अनुमान जारी करते हुए भरोसा जताया कि सरकार ने कमजोर मानसून के मद्देनजर एहतियाती कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। राष्ट्रपति ने अभिभाषण में कमजोर मानसून का जिक्र भी किया। साथ ही उन्होंने यह आशंका भी जताई कि मौसम विभाग की भविष्यवाणी कई मर्तबा अनुमानों पर खरी नहीं उतरी हैं। मसलन महामहिम का इशारा है कि भविष्यवाणी को लेकर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। लेकिन चिंता होना इसलिए लाजिमी है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में मौसम विभाग के आधुनिकीकरण और तकनीकी क्षमता बढ़ाने पर करोड़ों रुपए खर्च किए गए हैं। अब जिन 16 मानक सूचनाओं व संकेतों के अध्ययन के आधार पर भविष्यवाणी की जा रही हैं, वह विश्वस्तरीय वैज्ञानिक प्रणाली है। बावजूद सटीक भविष्यवाणी न होना चिंता की वजह तो बनती ही है।

दरअसल बीते साल भी सामान्य मानसून की भविष्यवाणी भी की गई थी और वर्षा समय-सीमा में ही होना जताई थी। परंतु यह अवधि गुजर जाने के बाद भी रूक-रूक कर बरसात होती रही। यहां तक की अप्रैल-मई में खेतों में कटी पड़ी फसल को भी बेमौसम बरसात की मार झेलनी पड़ी। नतीजतन रबी की फसल पर बुरा प्रभाव पड़ा। यह असर कश्मीर से कन्याकुमारी तक देखने में आया। इस वजह से महाराष्ट्र में एक लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा कृषि भूमि में चने की फसल चौपट हो गई। राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में सरसों की पैदावर की जो उम्मीद थी, उस पर ओले पड़ गए। उत्तर प्रदेश और बिहार में आलू को नुकसान हुआ। मघ्य प्रदेश में तो इतनी ओलावृष्टि हुई कि 13 हजार करोड़ की गेहूं, चना की फसलें नष्ट हो गईं। लोकसभा चुनाव में लगी आचार संहिता के चलते लाखों किसानों को वाजिब मुआवजा भी नहीं मिल पाया। भविष्य में इसका असर अर्थव्यवस्था और खाद्य उत्पादों की बढ़ी कीमतों पर भी देखने में आ सकता है। मौसम की स्थिरता भविष्यवाणी के बावजूद भी अस्थिर है। पूरे उत्तर भारत में तेज गर्मी भी पड़ रही है और रह-रह कर बारिश भी हो रही है। मानसून की यह अनिश्चितता किसान और देश के कर्णधारों की चिंता बढ़ा रही है।

चिंता इसलिए जरूरी है, क्योंकि अभी भी हमारे यहां 80 फीसदी बारिश मानसून से ही होती है। 60 प्रतिशत अनाज का उत्पादन मौसमी बारिश की कृपा पर टिका है। देश की 70 फीसदी आबादी को रोजी-रोटी, खेती-किसानी और कृषि आधारित मजदूरी से ही मिलती है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में 17 फीसदी की भागीदारी कृषि की है। जाहिर है, मानसून मुनासिब नहीं रहा तो अर्थव्यस्था औंधे मुंह गिरेगी। खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छूने लग जाएंगी। खाद्य मुद्रास्फीति जो अभी भी बेकाबू है, उसके हालत और बिगड़ सकते हैं। सब कुल मिलाकर नई सरकार को आर्थिक विकास दर पटरी पर लाना मुश्किलें हो जाएगा।

उत्पाद के हर क्षेत्र में विफल होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार खराब आर्थिक हालातों से मुकाबला इसलिए करती रही, क्योंकि पिछले चार साल मानसून अच्छा बना रहा और कृषि क्षेत्र में 4.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की जाती रही। लेकिन अब अलनीनो प्रभाव के संकेत सूखे के डरावने हालात पैदा कर रहे हैं। यह प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया में देखने को मिल सकता है। मौसम की जानकारी देने वाली कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी अलनीनो खतरे की चेतावनी दे चुकी हैं। जापान के मौसम विभाग ने मई माह में भविष्यवाणी की थी कि अलनीनो का खतरा 50 फीसदी है। इसके निरंतर गहराने की भी आशंका जताई। आस्ट्रेलिया के मौसम विभाग ने इसका 70 फीसदी तक अंदेशा जताया है। साथ ही इस परिघटना के दुष्प्रभाव जुलाई से दिखने शुरू हो सकते हैं और मुमकिन है कि यह प्रभाव 2009 से भी ज्यादा शक्तिशाली हो। हालांकि अलनीनो के उभरने के परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट तौर से नहीं कहा जा सकता है कि यह उतार-चढ़ाव वायुमंडल में बढ़ते तापमान के कारण है, या जलवायु परिवर्तन का असर है, अथवा प्रकृति की स्वाभाविक प्रक्रिया है? इसके विश्वसनीय निष्कर्ष गंभीर अध्ययनों से निकल सकते हैं। हालांकि मौसम वैज्ञानिक मानते हैं कि यह परिघटना जलवायु परिवर्तन की वजह से है। इस कारण मौसम चक्र में बदलाव हो रहा है, नतीजतन अतिवृष्टि या सूखे की मार पड़ रही है।

अलनीनो प्रषांत महासगर में करवट लेने वाली एक प्राकृतिक घटना है। पेरू की समुद्री सतह का तापमान जब बढ़कर 0.50 डिग्री हो जाता है तो यह असामान्य परिघटना प्रशांत महासागर में अंगड़ाई लेने लगती है, जिसके फलस्वरूप भारत के मानसून समेत दुनियाभर का मौसम चक्र प्रभावित होकर वर्शा की सामान्य स्थितियों को बदल देता है। उष्ण कटिबंधीय प्रशांत और भूमध्य क्षेत्र के सागर में बदले तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए इसी बदलाव की परिघटना अलनीनो है। यह घटना दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित इक्वाडोर और पेरू देशों के तटीय समुद्री जल में 4 से 12 साल में आती है। भारत में यह स्थिति 2009 में बनी थी, जब देश को 40 साल बाद भयंकर सूखे का सामना करना पड़ा था। लेकिन भारत में ही 1880 से 2004 के बीच 13 बार अलनीनो ने मानसून को प्रभावित किया, बावजूद मानसून सामान्य रहा। लिहाजा भारतीय वायुमंडल में अलनीनो के संकेत असरकारी होंगे या नहीं, निश्चित नहीं कहा जा सकता ? हालांकि दुनिया में 113 साल के भीतर जो 11 भयानक सूखे पड़े हैं, उनकी वजहों में वैज्ञानिकों ने अलनीनो का ही प्रभाव जताया है। अलबत्ता अलनीनो का एक प्रभाव यह भी देखने में आता है कि वर्षा के क्षेत्र परस्पर परिवर्तित हो जाते हैं। मसलन ज्यादा वर्षा क्षेत्रों में कम वर्षा और कम वर्षा वाले क्षेत्र में ज्यादा वर्षा होने लग जाती है। भारत में यही प्रभाव दिख रहा है। अब चेरापूंजी में कम बारिश होने लगी है, जबकि राजस्थान के रेगिस्तान में इतनी ज्यादा मात्रा में बारिश होने लग गई है कि बाढ़ के हालात से भी लोगों को सामना करना पड़ रहा है। चूंकि अलनीनो स्पेनिश भाषा का शब्द है और इसका शाब्दिक अर्थ है ‘उत्पाती बालक‘ अब किसी भी बालक का पैदाइशी चरित्र ही उत्पत्ति है तो वह उधम-धमैया तो करेगा ही।

वैसे हम अलनीनो या मानसून की किसी भी विपदा से निपट सकते हैं, क्योंकि अभी भी हमारे यहां जल स्त्रोत, जल संरचनाएं बहुत हैं। बारिश भी कमोवेश ठीक होती है, किंतु हम पानी को भूगर्भ में उतारकर सहजने में नाकाम हैं। हमने गंगा-यमुना समेत देश की सभी पवित्र नदियां, मल-मूत्र उन्हीं में बहाकर अपवित्र कर दी हैं। नदियों के किनारों, झीलों और तालाबों को पाटकर आवासीय बस्तियां बनाने व औद्योगिक इकाइयां लगाने का सिलसिला जारी है। इनका रासायनिक अपशिष्ट भी नदियों को प्रदूषित कर रहा है। पानी के बाजरीकरण को बढ़ावा देने के कारण आम आदमी को स्वच्छ पेयजल से महफूज किया जा रहा है। राजनेता, उद्योगपति दलील दे रहे हैं कि पानी भी एक उत्पाद है, लिहाजा इस पर नियंत्रण के लिए नीति बनाई जाए। लेकिन पानी कोई कारखानों में नहीं बनता, जो इसे उत्पाद माना जाए। यह जीवनदायी जल उस आदमी की भी बुनियादी जरूरत है, जो इसे खरीद नहीं सकता। यह पशु-पक्षी, वन्य जीव और पेड़-पौधों के जीवन का भी आधार है। लिहाजा इसे उत्पाद मानकर इसका बाजारीकरण किए जाने की दलीलें व्यावसायिक छल के अलावा कुछ नहीं हैं। यह ठीक है कि मौसम पर हमारा वश नहीं है, लेकिन जो पानी बारिश के रूप में धरती पर आ रहा है, उसका संचय करके कम बारिश या अलनीनो जैसे खतरों से तो बचा ही जा सकता है ?