धर्म-अध्यात्म पर्व - त्यौहार

भारत में पहली दीपावली कब और कैसे मनाई गई ?

             आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार      

         दीपोत्सव पर्व प्रथम बार कब,कैसे और कंहा प्रारम्भ हुआ ? इसका उल्लेख किसी पुराण या शास्त्र में अधिकारिता के साथ अभिव्यक्त नहीं किया गया है, किन्तु प्रथम दीपावली दैत्यराज हिरण्याक्ष के अत्याचार, रक्तपात, लूटमार आदि से पीड़ित प्रजा को शूकररूपधारी विष्णु के वराह अवतार द्वारा दिलाई गई मुक्ति के बाद मनाई गई ख़ुशी का पर्व अवश्य ही दीपावली रही होगी, जिसमें लोगों ने घर-घर दीप रख दीपोत्सव मनाया होगा। इसके बाद हिरण्यकशिपु,विरोचन और राजा बलि से तीन पग पृथ्वी दान मांगने वाले बामन विष्णु द्वारा दैत्यराज बलि से पृथ्वी मुक्त करने के बाद ज्योतिपर्व दीपावली मनाया  होगा किन्तु इन आक्रान्ता दैत्यकुल के राजाओं के कुशासन से मुक्ति के बाद तत्समय के लोगों ने जो परम आजादी की ख़ुशी और आनंद का महोत्सव मनाया होगा तब प्रतीक के रूप में दीपकों को प्रज्वलित कर दीपोत्सव मनाया होगा जिसका प्रमाण इतिहास मैं दीपोत्सव मनाने के लिए अंकित नही हो सका है, इन आततायिओं से मुक्ति के बाद प्रजा को मिली प्रसन्नता के ये सारे प्रकरण तत्समय न तो वेदपुराणों में मिलते है और न ही खुशिया मनाने के अवसर की खबर मिलती है।

       पृथ्वी पर पांच बार के इन विशिष्ट अवसरों पर मनाई गई ख़ुशी में दीपोत्सव न हुआ हो यह संभव नहीं, अवश्य ही इन अवसरों को विस्मृत किये जाने से प्रथम दीपावली कब और कैसे और किस उपलक्ष्य में मनाई गई का पता नही चलता है? किन्तु विगत के सभी शौर्य और पराक्रम को विस्मृत कर आदर्शवान राम के प्रभाव और प्रताप से रावणी अनाचार और आतंक का अंधकार मिटाना सबकी स्मृति में प्रासंगिक बन गया जहाँ श्रीराम के महाशौर्य के बलबूते प्रभु श्रीराम ने ‘निसिचर हीन करौं महि’ का अपना लोक विश्रुत प्रण पूर्ण किया था। रावण के आतंक पर श्रीराम की विजय मात्र एक पुराण कथा नहीं, बल्कि भारत देश का जीवित, अमर और अमिट इतिहास है। यह महातपस्वी श्रीराम की रावण की विलासी जीवन शैली पर विजय थी। यह लोकनायक श्रीराम की आतंक के महाखलनायक रावण पर विजय थी। राम की रावण पर विजय के बाद अयोध्या आगमन पर नागरिकों ने दीपावली को आलोक पर्व के रूप में मनाना सभी को याद रहा किन्तु उसके पूर्व के महाशौर्य –पराक्रम को विस्मृत रखा जाना  दीपोत्सव के साथ भी न्याय नहीं कहा जा सकता जबकि राम के पूर्व ही समूचा राष्ट्र दीपावली मना चुका हो। ऐसे में प्रभु राम के अयोध्या आने की प्रसन्नता में कालान्तर में समस्त भारत के नगर-नगर, ग्राम-ग्राम और घर-घर दीप जलाना शुरू किया जिससे ज्योति की प्रभा से सब जगमग हो उठे। राम के अयोध्या आगमन पर दीपावली पर्व को उनके प्रसंग से जोड़कर देखे जाने से पूर्व दैत्यराज हिरण्याक्ष से दैत्यराज बलि तक के प्रसंगों को विस्मृत नहीं किया जा सकता है जिनके कारण तत्कालीन प्रजा ने इनके कुशासन से मुक्ति पर प्रसन्नता में दीपों को प्रज्वलित कर घरों-गलियों को रौशनी से भर दिया था। आइये इस धरा के प्रथम दीपोत्सव की शुरुआत कैसे हुई इसपर विचारों को स्वतंत्रता देकर मूल आधार को, उसकी जड़ तक पहुंचा जाये। 

            पृथ्वी के सबसे बड़े द्वीप का नाम, जम्बूद्वीप कहा है जिसमें वर्तमान भारत और आस-पास के 9 उपमहाद्वीप शामिल थे। भरत खंड या भारत इन नौ खंडों में से एक है जो उत्तरी भारत में आर्यावर्त का हिस्सा माना है और इसका क्षेत्र ईरान तक फैला हुआ था। तब ईरान क्षेत्र में पैदा हुआ दैत्यराज हिरण्याक्ष भारत की धरती पर पहली बार आक्रान्ता के रूप में आया जिसने पुरे देश को भयाक्रांत कर आतंक का परचम फहराया। यह भी कहा जा सकता है कि भारत की संपत्ति अर्थात हिरण्य पर दृष्टि रखने के कारण ही उसका नाम हिरण्याक्ष पड़ा होगा। यह घटना उस अंधकारमय काल की है जब आर्यावर्त की सीमाओं को पार कर आर्य जाति ने दक्षिणापंथ की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था तथा क्रमशः उत्तर तथा दक्षिण का सम्मिलन होकर भारत देश, भारत राष्ट्र और भारतीय संस्कृति के निर्माण कार्य का प्रारंभ हो गया था। श्रीवराहपुराण  के अध्याय एक में उल्लेखित प्रसंग के अनुसार पृथ्वी समुद्रों से घिरी, वन पर्वत एवं नदियों सहित पृथ्वी को शूकररूप धारी वराह ने अपने दाढ़ के अग्रभाग पर एक मिटटी के ढेले की भाँती उठाकर पृथ्वी को डूबने से बचाया, महत्वपूर्ण है जिसके भावार्थ को ठीक से समझने या समझाने पर संसय किया जा सकता है ?  

          पौराणिक मान्यता के अनुसार दैत्य हिरण्याक्ष को भगवान विष्णु द्वारा श्रापित उनके पार्षद जय-विजय, जो दैत्य वंश के थे और भारत में इन्होने अपनी जड़े जमाना शुरू कर दी। तत्समय दैत्य हिरण्याक्ष ने अपनी सेना सहित भारत में प्रवेश किया और पंजाब और कश्मीर तक अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। इससे आगे बढ़ने में वह कदाचित सफल नहीं हो सका था। परंतु जितने भी भूभाग में वह अपना वर्चस्व स्थापित करने में समर्थ हुआ उस भूभाग में उसने ऐसा भयंकर उत्पात मचाया कि ऋषि मुनियों और देवताओ को लगने लगा जैसे पृथ्वी सहसा ही डूबकर रसातल को चली जाएगी। पुराणों में ऐसा ही रूपात्मक वर्णन हमें प्राप्त होता है जैसा कि नाम से ही प्रकट है, हिरण्याक्ष ने समस्त भारत में त्राहि-त्राहि मचा दी जिसके अत्याचारों से मुक्त कराने जो विष्णु अवतार सर्वप्रथम हुआ उसका नाम वराह था। वराह को सभी सुअर मानते है यह एक प्रतीक नाम है। जबकि जिसने हिरण्याक्ष का वध किया वह व्यक्ति या अवतार सूअर न होकर वराह के गुणोंवाला रहा होगा, सभी जानते है कि वराह में बुद्धि नहीं होती, किन्तु वे बहुत शक्तिशाली होते हैं ओर झपट कर हमला करते हैं किन्तु गंदगी प्रिय, गन्दा भोज उनका स्वभाव होने से वे स्वच्छता और संयम से कोसो दूर रहते हैं। वराह ने हिरण्याक्ष पर हमला किया होगा तब दोनों के बीच युद्ध हुआ और अंत में हिरण्याक्ष की सेना को नष्ट कर वराह ने हिरण्याक्ष को भी मार डाला, जिस स्थान पर यह घटनाएं हुई उसका नाम वराहमूलम् कहा जाता है, देखा जाए तो कश्मीर में बारामूला नाम का स्थान प्रसिद्ध है संभवत्या यह दैत्यराज हिरण्याक्ष की राजधानी रही हो जहा पर वराह ने हिरण्याक्ष ने हमला करके उसे मारा हो तभी इन्ही कारणों के रहते वराह के नाम पर उसका नामकरण बारामुला कर दिया हो।

      हिरण्याक्ष के भाई का नाम हिरण्यकशिपु था जिसकी राजधानी जहाँ थी आज उस स्थान को मुलतान कहा जाता है और मुलतान का नाम प्रहलादपुरी था तथा वहां प्रहलाद का मंदिर अभी तक हैं। दैत्य वंश की इस परंपरा में हिरण्यकशिपु ही ऐसा था जिसने विधिपूर्वक किसी नगर को अपनी राजधानी बनाया, राज्य व्यवस्था स्थापित की तथा शासन का कारोबार चलाया। हिरण्याक्ष तो मुख्यतः खलनायक ही था जो स्थान-स्थान पर अपने केन्द्र बनाकर आसपास के राज्यों पर आक्रण करता था। हिरण्यकशिपु ने कुशलतापूर्वक अपने साम्राज्य को सुदृढ़ बनाया। उसने ब्रम्हा जी को प्रसन्न कर यह वरदान पाकर खुद को अमर समझ लिया था! वरदान में उसने ब्रह्मा से माँगा कि वह रात में या दिन में, घर में या बाहर, मानव या पशु कोई भी अस्त्र शस्त्र से धरती पर न आकाश में नही मरू और तो और माह के बारह महिने के किसी भी माह में भी न मरू। यह हिरण्यकशिपु के शासन तथा सैन्य व्यवस्थ की ही सुदृढ़ता तथा दक्षता थी जिसमें किसी भी प्रकार से उसका नाश करना असंभव था। उसे इतनी सुरक्षा वस्तुतः इसलिए रखनी पड़ती थी कि वह एक विदेशी शासक था और सेना के बल पर ही शासन करने में उसे सफलता प्राप्त हो सकती थी किन्तु शुकररूप वराह ने उसका अंत कर दिया। इसके बाद हिरण्यकशिपु, प्रहलाद, विरोचन तथा बलि की कथाएं भारतीय पुराणों की एक मुख्य भाग हैं और उनमें भारत के पारतंत्रय तथा उसे नष्टकर पुनः स्थापित किए जाने वाले स्वातंत्रय की गौरव-गाथा छिपी है।

            प्रहलाद हिरण्यकश्यप का बेटा था और अपने पिता के अत्याचार को समाप्त करना चाहता था। असल में प्रहलाद भारतीय संस्कृति से प्रेम करने लगा था और उसे यह पसंद नहीं था कि उसका पिता उसे नष्टकर उसके स्थान पर भौतिकवादी ईश्वर विहीन संस्कृति की स्थापना करें। भारतीय धर्म संस्कृति की सुरक्षा के लिए प्रह्लाद प्रयत्नशील था और बचपन से ही उसने अपने अंदर की यह भावना अत्यंत तीव्र रूप से व्यक्त करनी आरंभ कर दी थी। हिरण्यकश्यप ने पहले तो समझा-बुझाकर पुत्र को अपने रास्ते पर लाने की चेष्टा की, परंतु अपने उस मंतव्य मं जब वह विफल हुआ तब उसने प्रहलाद के प्रति क्रूरता का व्यवहार आरंभ कर दिया। उसे आग में जलाया, पहाड़ से गिराया, परंतु तब भी प्रहला का बाल भी बांका नहीं हो पाया। इन सब रूपक कथाओं से उन कष्टकर यंत्राणाओं की झलक मिलती है जो प्रहलाद को दी गई। प्रहलाद को आग में जलाने  से संबंधित घटना तो होली के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। इसी कारण राज्य के सभी मूलवासी प्रहलाद से बहुत प्यार करने लगे थे। इस दिन हिरण्यकश्यप ने क्रोधित होकर अपने प्रासाद के एक खम्भे की ओर इशारा करते हुए प्रहलाद से पूछा था – क्या तेरा ईश्वर इस खम्भें में भी है? प्रहलाद ने अपने पिता के इस प्रश्न का जब स्वीकारात्मक उत्तर दिया तो हिरण्यकश्यप ने उस खम्भे पर भीषण प्रहार किया और पुराण कहता है कि उसमें से नृसिंह रूपधारी भगवान ने बाहर निकलकर हिरण्यकश्यप का वध कर डाला।

      हिरण्यकश्यप के बाद प्रहलाद ने शासनभार संभाला, प्रहलाद के राज्य में यद्यति धर्म और संस्कृति की स्वतंत्रता हमें प्राप्त हो गई, परंतु देश विदेशी बंधन से मुक्त नहीं हो पाया। प्रहलाद अत्यंत बुद्धिमान तथा नीतिज्ञ तथा भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति को जानने वाला था तथा  उसकी परंपरा के सभी राजाओं ने भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग प्रकट किया था। अपनी उदार शासन व्यवस्था द्वारा उसने भारतीयों के हृदयों को जीतने का सफल प्रयत्न किया और न्याय तथा निष्पक्षता की रक्षा के लिए उसने अपने बेटे विरोचन तक के विरूद्ध एक बार निर्णय दिया था। विरोचन इश्वरभक्ति का विरोधी तथा अपने दादा की दैत्य परम्परा का पोषक होने से अपने पिता की नीतियों से प्रसन्न नहीं था और नास्तिकवाद को जन्म देकर पहला नास्तिक मान गया इसलिए वह उसके जीवनकाल में ही राज्य छोड़कर अन्यत्र चला गया था। विरोचन के पुत्र बलि ने पुनः दैत्य वंश की परंपरा स्थापित की और साम्राज्य को सुदृढ़ बनाया। उसने न हिरण्यकश्यप की रीति-नीति अपनाई और नही प्रहलाद के आदर्शो को स्वीकार किया। उसने उन दोनों के मध्य का रास्ता अपनाया और भारतीयजनों का विश्वासभाजन बनकर उन्हें अपने शासन में बनाए रखने का काम शुरू किया ओर अत्याचार करना पूरी तरह बंद कर दिया। लोग उसे अपना सच्चा हितैषी समझने लगे किन्तु सभी का मानना था की बलि का साम्राज्य समाप्त हो।

        देवमाता अदिति ने इस उद्देश्य को पूर्ण करने के निमित्त तपस्या प्रारंभ कर दी। उन्हीं ने भगवान से एक श्रेष्ठ पुत्र का वरदान मांगा तथा इस वरदान के फलस्वरूप बामन का जन्म हुआ। कहते हैं कि स्वतः श्री भगवान ही वामन के रूप में अवतरित हुए थे। वामन ने बलि के शासन को समाप्त करने के लिए राजा बलि से केवल तीन पग जमीन की याचना की थी, किन्तु उनके गुरु शुक्राचार्य ने रोका पर राजा बलि अपने वचन से नहीं हटें और वामन ने अपने दो पगों मे ही उन्होंने तीनों लोकों को नाप लिया और जब आखिरी पैर रखने के लिए भूमि शेष नहीं रही तो उन्होंने बलि के सिर पर अपना पैर रख दिया। तीन पग भूमि वाली बात का अर्थ विद्वान लोग विभिन्न तरीकों से लगाते हैं। एक अर्थ यह किया जाता है कि बलि ने ब्राह्यण, क्षत्रिय और वैश्यों को उनके अपने कामों से मुक्त कर दिया था। शिक्षा, सेना तथा व्यापार तीनों शक्तिशाली संगठनों पर असुर लोगों का पूरा अधिकार स्थापित हो गया था। वामन ने जो आंदोलन किया उसका मुख्य पाया यह था कि तीनों वर्णो को उनका धर्मविहित भाग कार्य करने के लिए सौंप दिया जाए।

         पुराणों से पता चलता है कि शासन सत्ता पर अधिकार करने के बाद वामन ने बलि के सुतल में रहने की व्यवस्था कर दी। सुतल दक्षिण भारत के समुद्र तट पर स्थित कोई प्रदेश रहा होगा, ऐसा विद्वानों का अनुमान है। सुतल में बलि को आदरपूर्वक रखा गया तथा स्वयं वामनदेव उसकी सुरक्षा में तत्पर रहे। इसी महान घटना का प्रतिनिधि दीपावली का पर्व है। इस दिन पांच राजाओं की दैत्यवंशीय परंपरा को अंतिम रूप से समाप्त किया गया था और उसी की प्रसन्नता में समस्त भारतवासियों ने इतने दीप जलाए कि नगर-नगर, ग्राम-ग्राम और घर-घर उसकी  प्रभा से जगमग हो उठे। बलि भले ही विदेशी शासक रहा हो लेकिन उसकी शासन व्यवस्था में निश्चित ही कतिपय गुण थे और उन गुणों की स्मृतिस्वरूप ही दीपावली के दूसरे दिन बलि प्रतिपदा का समारोह आयोजित करने की भी परंपरा बन गई।

आत्माराम यादव पीव