राजनीति

जब सरकार करे अपना काम, कोर्ट की फिर क्या दरकार

-अमलेन्दु उपाध्‍याय

हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के अनाज बांटने के फैसले पर बहुत ही विनम्र शब्दों में असहमति जताई है और सरकार के नीतिगत फैसलों में हस्तक्षेप न करने का अनुरोध किया है। देश के चुनिन्दा संपादकों के साथ बातचीत में प्रधानमंत्री ने अप्रत्यक्ष रूप से सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र की सीमा रेखा खींचने का प्रयास किया है। यहां कोर्ट के जिस फैसले के संदर्भ में उन्होंने यह बात कही उसके लिए तो उनकी आलोचना हो सकती है लेकिन एक बात जरूर है, उनके इस वक्तव्य के बहाने ही सही इस मसले पर बहस चलनी चाहिए कि क्या सर्वोच्च न्यायालय को कानून बनाने का भी अधिाकार है?

पिछले कुछ समय से देखने में आ रहा है कि जजों के अन्दर अपरोक्ष रूप से षासन करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और कई बार ऐसी गैर जरूरी टिप्पणियां कर दी जाती हैं जो लोकतंत्र और संविधान के स्वास्थ्य के लिहाज से ठीक नहीं होती हैं। अक्सर ऐसे फैसले आ जाते हैं जो सीधो सीधो संसद् के अधिकार क्षेत्र में दखल देते हैं। हमारे संविधान ने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र साफ साफ बांटे हुए हैं और जब कोई भी अंग इसका उल्लंघन करने का प्रयास करता है तब संवैधानिक संकट पैदा होता है। संसद् को कानून बनाने और संविधान संशोधन करने का अधिकार दिया है और सुप्रीम कोर्ट को इसकी व्याख्या करने का। लेकिन व्याख्या के नाम पर संसद् के अधिकारों पर कैंची चलाने का अधिकार तो कोर्ट के पास नहीं है। संविधान ने संसद् की सर्वोच्चता तय की है और संविधान से ऊपर तो कोई भी नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के अनाज बांटने के फैसले की भावना से तो सहमत हुआ जा सकता है पर तर्क से नहीं। क्योंकि अनाज के फैसले में तो कोर्ट का तर्क उचित है लेकिन अगर यह नजीर बन गई तब तो कई गंभीर समस्याएं बन जाएंगी। मसलन झारखण्ड के कई हजार किसानों ने राश्ट्रपति से इच्छा मृत्यु की गुहार लगाई। लेकिन इस आधार पर कि सरकार इन किसानों को रोटी नहीं दे सकती इसलिए आत्महत्या की इजाजत तो नहीं दी जा सकती!

स्वयं सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने भी इस प्रवृत्ति और संवैधानिक सीमा रेखा की तरफ धयान आकृश्ट किया था। एक मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने साफ-साफ शब्दों में कहा था कि नर्सरी एडमिशन, अनधिकृत विद्यालयों, विद्यालयों में पीने के पानी की आपूर्ति, सरकारी जमीन पर बने अस्पतालों में मुफ्त बेड, सड़क सुरक्षा आदि से संबंधित हाल में दिए गए निर्देश न्यायपालिका की शक्तियों के दायरे से बाहर थे और सही मायनों में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आते थे। उन्होंने यह भी कहा, अगर विधायक और कार्यपालिका के अधिकारी अपना काम ठीक से नहीं कर रहे हैं, तो यह जनता का काम है कि वह उन्हें सुधारने के लिए आगामी चुनावों में अपने मताधिकार का सोच समझकर इस्तेमाल करे और ऐसे प्रत्याशी को मत दे जो उनकी उम्मीदों पर खरा उतरे।

वैसे भी अदालत जो फैसले सुनाती है वह मौजूदा कानून के मद्देनजर सुनाती है लेकिन कई बार किताबों का कानून जमीनी धरातल पर काम नहीं आता या मौजूदा कानून वर्तमान परिस्थितियों में अप्रासंगिक भी हो सकता है। मसलन दिल्ली में सीलिंग के फैसले को ही लिया जाए कानूनी दृष्टि से अदालत के फैसले पर कैसे उठाई जा सकती है? लेकिन अगर यह फैसला अक्षरश: लागू किया जाए तो दिल्ली की हालत क्या होगी? इसी प्रकार छात्र संघ चुनाव पर लिंगदोह कमेटी की सिफारिषों पर कराने का आदेश था। अब लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें किस कानून के तहत आएंगी? सरकार बहुत सी समितियां बनाती है और उसकी रिपोर्ट्स आती हैं लेकिन यह जरूरी तो नहीं कि हर कमेटी की रिपोर्ट सही ही हो और उसको कानून बना दिया जाए।

यह तो बहस का विषय है जिसे प्रधानमंत्री ने एक बार फिर उछाला है और पिछले लोकसभा अधयक्ष सोमनाथ चटर्जी तो कई बार संसद् के अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट से उलझते से नज़र आए। लेकिन प्रधानमंत्री जिस विनम्रता और भलमनसाहत से यह अपील कर रहे हैं उससे अनाज के मामले में सहमत नहीं हुआ जा सकता। पहली बात तो प्रधानमंत्री को यह समझना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट सरकार के कामों में इस समय दखलंदाजी इस लिए कर रहा है क्योंकि सरकार अपना काम नहीं कर रही है। मनमोहन सिंह यह तो कह सकते हैं कि सरकार मुफ्त अनाज नहीं बांट सकती है, लेकिन सरकार राष्‍ट्रमंडल खेलों पर चालीस हजार करोड़ रूपए फूंक सकती है। ए आर रहमान के ‘यारों इण्डिया बुला लिया’ के पांच मिनट के लिए पांच करोड़ फूंक सकती है, ऐष्वर्या राय के एक दिन के ठुमकों पर सौ करोड़ रूपया फूंक सकती है, उद्योगपतियों को तो करों में छूट पर छूट सरकार दे सकती है, बिल्डरों को किसानों की ज़मीनें हथियाने की छूट सरकार दे सकती है, खनन कंपनियों को जंगलों की लुटाई करने की छूट सरकार दे सकती है लेकिन अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री गरीबों को मुफ्त अनाज नहीं बांट सकते!

जब सरकार जनता का गला घोंटने पर उतारू हो जाए क्या तब भी कोर्ट सरकार के कामों में दखल न दे? क्या कारण है कि आम आदमी को आज सरकार पर भरोसा नहीं है लेकिन कोर्ट पर है? क्या इसके लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है? फिर जब सरकार कमजोर होगी तो न्यायपालिका और कार्यपालिका हावी होगी ही। पिछले दो दशक में कार्यपालिका एकदम बेलगाम हो गई है और निष्चित रूप से इसके लिए सरकारें और राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं। गृह सचिव जी के पिल्लई और छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्‍वरंजन जैसों की यह हैसियत किसने बनाई है कि वह राजनीतिक सवालों पर बयानबाजी करें। खुद प्रधानमंत्री से उनके राज्य मंत्रियों ने मिलकर षिकायत की कि उनकी बात सरकार में नहीं सुनी जाती है। समझ लीजिए स्थिति कितनी गंभीर है, जब मंत्रियों का यह हाल है तब आम आदमी की तो बिसात ही क्या है? क्या यह सच नहीं है कि उन कुछ एक मंत्रियों की बात छोड़ दी जाए जो या तो प्रधानमंत्री या 10 जनपथ के नज़दीकी हैं, ब्यूरोक्रेसी बात नहीं सुनती है। फिर केवल सुप्रीम कोर्ट को दोष क्यों देते हैं? बड़ी संख्या में जनहित याचिकाएं किसलिए दायर की जा रही हैं? क्योंकि सरकार आम आदमी की बात नहीं सुन रही। न्यायपालिका और कार्यपालिका को यह खाली मैदान किसने छोड़ा है? क्या इसके लिए हमारे नीति निर्माता और राजनीतिक दल जिम्मेदार नहीं है? जब माफिया, गुण्डे, मवाली और धानपशु राजनीति में आएंगे तो न्यायपालिका और कार्यपालिका विधायिका पर हावी हो ही जाएंगे। इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट की सीमा रेखा तय होनी चाहिए तो सरकार को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए क्योंकि सरकार गरीबों के वोट से बनती है टाटा, बिरला, अंबानी और यूनियन कार्बाइड के नोट से नहीं। इसलिए मनमोहन सिंह जी अपनी चिंताओं में आम आदमी को षामिल करिए पूंजीपतियों को नहीं, कोर्ट का दखल अपने आप रुक जाएगा।