विविधा

भारत में नहीं थमेगा आतंकवाद जब तक….

नरेश भारतीय

दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर हुए बम विस्फोट के बाद जनता में बहस छिड़ गई है. निराशा भी है और गुस्सा भी है भारत के लोगों में. पूछ रहा है देश का हर जन मन कब होगा सुरक्षित मेरा जीवन? कब चेतेंगे सरकार के सत्ता राजनीति व्यस्त वे नेता गण जिन्हें अपनी सुरक्षा की तो चिंता है लेकिन देश की सुरक्षा खतरे में है. कब वे कुछ ऐसा करके दिखायेंगे जिससे थम जाएँ इस दानवी आतंकवाद के निर्विरोध बढ़ते कदम? देश संत्रस्त है. अस्पताल में घायल पड़े हैं और जो अपना जीवन खो चुके हैं उनके परिजन शोकग्रस्त हैं. मैं भी देश से हजारों किलोमीटर दूर विदेश में बैठे उनकी इस पीड़ा की गहनता को हर क्षण महसूस कर रहा हूँ. लेकिन यह भी जानता हूँ कि देश के राजनेताओं से मिले मात्र सहानुभूति के शब्द उन्हें आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. दिल्ली की मुख्यमंत्री के द्वारा मृतकों के परिवारों के लिए ४ लाख रूपये प्रति दिवंगत की सहायता धनराशि की तुरत फुरत घोषणा कर देने से उनके जीवन में जो रिक्तता निर्माण हुई है उसकी पूर्ति नहीं हो सकती. देश के प्रधानमंत्री के द्वारा एक लम्बी लड़ने की घोषणा का उनके लिए कोई महत्व नहीं. समय आ गया है कि देश की जनता को जवाब चाहिए और विदेश में बसे भारतीयों को भी इस विश्वास का अहसास चाहिए कि उनका देश कब इस दानवता की रोकथाम के लिए कुछ ठोस करेगा.

कडवी सच्चाई यह है कि भारत में नहीं थमेगा आतंकवाद जब तक वह सचमुच उसका सिर कुचल देने की सिद्धता नहीं दिखाता. मानवीयता के नाम पर आतंकवादियों के सिर बचाने की मूर्खता से तौबा नहीं कर लेता. हर हमले के बाद बगलें झांकनें की अपेक्षा निर्भीकता के साथ खुद कुछ करके नहीं दिखाता, जिस तरह से अमरीका और ब्रिटेन ने किया है. जब तक आतंकवाद की इस बढ़ती चुनौती को भारतीय राजनेताओं के द्वारा दलीय और राजनीतिक हानि लाभ के तराजू पर तौला जाता बंद नहीं किया जाता, अपराधी पाए गए आतंकवादियों को घोषित मृत्यु दंड न देने का फैसला इस बात पर निर्भर करने का प्रपंच खत्म नहीं किया जाता कि कड़े कदम उठाए जाने से देश के किसी वर्गविशेष में रोष उत्पन्न होगा. जब तक देश में अल्पसंख्यक विभाजनकारी राजनीति पर सत्ता की रोटियां सकने वाले राजनीतिज्ञ देश के हित में अपने इस स्वार्थ को स्वाहा नहीं कर देते, तब तक नहीं थमेगा भारत में आतंकवाद. जब तक भारत यह जानने के बाद भी कि लगभग इन सभी हमलों में पाकिस्तान की आई. एस. आई का हाथ सिद्ध होता है उसे सबक सिखाने के लिए पाकिस्तान के साथ दो दो हाथ करने की सिद्धता नहीं दिखाता तब तक नहीं थमेगा आतंकवाद. जब तक देश के अंदर पल रहे उन दुश्मनों को हर कोने में खोज कर उनसे निपटा नहीं जाता, जो आई. एस. आई. के साथ जुड़े हैं और सीमा पार बनाई जाने वाली योजनाओं के तहत काम करते हुए हिन्दुस्थान में ऐसे धमाकों को अंजाम देते हैं, नहीं थमेगा आतंकवाद.

मैंने वर्ष २००३ में प्रकाशित अपनी पुस्तक आतंकवाद में लिखा है कि ‘आई. एस. आई. की भरपूर चर्चा रही है. कौन हैं उसके सक्रिय एजेंट जिन्होंने बीस से अधिक वर्षों से देश को भयाक्रांत कर रखा है? किसके पड़ोस में किसने कहाँ विस्फोट की योजना बनाई है? कौन हैं ऐसे लोग जो उन्हें संरक्षण देते हैं? यदि कोई जानता है कि कहीं कोई संदिग्ध गतिविधि हो रही है तो क्या वह अपने देश और समाज के प्रति इसे अपना कर्तव्य मान कर पुलिस को सूचित करता है अथवा किसी भयवश चुप रहता है? अनेक प्रश्न हैं जिनके उत्तर दिए जाने आवश्यक हैं ताकि सही निष्कर्षों तक पहुंचा जा सके और देश की बाह्य एवं आंतरिक सुरक्षा की दिशा में कदम उठाए जा सकें. सही कदम. सशक्त कदम. आतंकवाद को समाप्त करने के लिए. फिर वह देश के अंदर से उभरा हो या सीमापार से प्रायोजित हुआ हो.’ उसके बाद से आठ और वर्ष बीत चुके हैं. क्या हुआ है तब से लेकर अब तक?

नई दिल्ली में, राष्ट्रपति भवन और संसद भवन के निकट हाई कोर्ट पर ७ सितम्बर २०११ को हुए हमले की यह तारीख आतंकवादियों के लक्ष्यंकित कैलेंडर में उनकी एक और सफलता और भारत के इतिहास में एक बार फिर उसकी सुरक्षा व्यवस्था की असफलता के रूप में जुड़ गई है. धमाका होते ही हमेशा की तरह हरकत में तो आ गई सरकारी मशीनरी लेकिन धमाके करने वालों के कानों पर इससे जूं तक नहीं रेंगती. इसलिए, क्योंकि उन्हें कहीं नहीं दीखता कि भारत सरकार में कोई दम ख़म के साथ उनसे निपटने की सोच भी रहा है. हाँ, बयानबाज़ी की कोई कमी कभी भी दिखाई नहीं देती. छानबीन करने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी जाती है कि धमाका कैसे हुआ और उसमें क्या क्या विस्फोटक इस्तेमाल किए गए. मीडिया द्वारा विश्लेषण प्रस्तुत किए जाते हैं, बहसें उभारी जाती हैं, तरह तरह के कयास लगाए जाते हैं और फिर पूर्ववत शांत हो जाता है सब कुछ.

हर घटना के बाद मुख्य दलों के नेताओं और शासकीय राजनेताओं का घटना स्थल पर जमावड़ा और हमले की निंदा भर कर देना. नेताओं के द्वारा एक दूसरे पर अकर्मण्यता का दोष लगाते हुए बयानबाज़ी और उसके बाद उच्चश्रेणी की सुरक्षा में किलेनुमां अपनी अपनी कोठियों में लौट जाना आतंकवादी हमलों को नहीं रोकेगा. हमले की निंदाएं और हताहत हुए लोगों के परिजनों के लिए सहानुभूति के कुछ शब्द और सहायता राशियों की घोषणाएं देश के लोगों के लिए मात्र प्रवंचना हैं. यक्ष प्रश्न यह है कि नेताओं को सुरक्षा क्यों जब देश उतरोत्तर असुरक्षित होता जा रहा है? सरकार माने या न माने लेकिन देश विदेश में अधिकांश विश्लेषक अब यह बखूबी जानते और समझते हैं कि भारत आतंकवादियों के लिए सबसे आसान निशाना बन चुका है. इसलिए क्योंकि अभी तक भारत ने एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया है जिसका उल्लेख किया जा सके और जो किसी के लिए सबक बन सके. निरर्थक शब्दजाल और भीरुता का प्रदर्शन है अब तक की स्थिति. कारण भले कुछ भी रहे हों.

अमरीका सहायता का आश्वासन दे देता है तो जनता की दृष्टि से क्या महत्व है? क्या भारत उसकी मर्जी से ही चलेगा. यदि ऐसा नहीं है तो फिर भारत साहस के साथ कदम उठा कर देश को इस खतरे से उसी तरह से क्यों नहीं बचाता जिस तरह से अमरीका ने स्वयं कर दिखाया है? जो जनता के प्रति उत्तरदायी और कर्तव्य प्रतिबद्ध कोई भी देश करता है. आत्मरक्षा का अधिकार भारत का भी वैसा है जैसा अमरीका, ब्रिटेन या किसी भी अन्य देश का है. अधिकार है उसे कि यदि बाज़ नहीं आता पाकिस्तान अपनी ओछी हरकतों से तो दुश्मन के पाले में जाकर उसे चुनौती दे. भारत को ऐसा करने से रोका नहीं जा सकता. कोई अनिष्ट नहीं होगा जिसका बार बार हौआ खड़ा किया जाता है.

जब आतंकी हमलों के दोषी पाए गए अपराधियों को सुनाई गईं मौत की सजाएं मानवीयता या उनके मानवाधिकारों के बहाने माफ कर दिए जाने की सिफारिशें की जातीं हैं तो वह आतंकवाद से लड़ने के संकल्प का आभास नहीं देतीं. केन्द्र की सरकार अदालती फैसलों के बावजूद संसद भवन पर २००१ में हुए हमले के अपराधी अफजल गुरु और मुम्बई हमलों के दोषी कसाब को मृत्यदंड देने का काम राजनीतिक कारणों से पूरा करने से बचती रही है तो अब उम्र फारुख का इस मामले को तूल दे रहे हैं. जम्मू कश्मीर विधानसभा में यह प्रस्ताव कि उसे फांसी न दी जाए क्या सन्देश देता है भारत की आतंकवाद से निपटने की मानसिक तैयारी के सम्बन्ध में?

बमविस्फोट की इस नई घटना के बाद एक बार फिर पूछा जा रहा है कि “आखिर कब तक सहता रहेगा भारत”? ये हमले देश के दुश्मन दानवों के द्वारा उन मानवों पर किए जाने वाले हमले हैं जिन्होंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा होता. ऐसे हमलों में हिंदू, सिख, मुसलमान या किसी एक मजहब के लोग अपनी जानें नहीं गंवा रहे, बल्कि सिर्फ भारतीय कहे जाने वाले इंसान मारे जा रहें हैं लेकिन कट्टरपंथी जिहादी आतंकवादियों को इससे कोई सरोकार नहीं है. अपने आप में ये हमले ऐसे अमानवीय तत्वों द्वारा अंजाम दिए जा रहे हैं जो प्रकटत: सामूहिक हत्याओं को मजहब की आड़ में उचित ठहराने की शिक्षा पा कर और धन के प्रलोभन में निहितस्वार्थ आतंकी संगठनों के लिए काम करते हैं. इनका जाल फैला हुआ है. इस जाल को भेदने के संकल्प और साहस को जुटा कर ही आतंकवाद से जूझा जा सकता है.

देश एकजुट है और सरकार से अपेक्षा करता है कि वह कदम आगे बढ़ाए. सत्तापक्ष और विपक्ष को चाहिए कि मिल बैठ कर गंभीरता के साथ रणनीति निर्धारित करें अन्यथा देश की जनता और इतिहास उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगे. इस हमले के बाद कोई और ऐसा हमला न हो यह सुनिश्चित करें.