कब समाप्त होगी मैला उठाने की परंपरा

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लिमटी खरे

विडम्बना दर विडम्बना! आजादी के लगभग साढ़े छः दशकों के बाद भी भारत गणराज्य में आज भी सर पर मैला ढोने की परंपरा जारी है। केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय खुद इस बात को स्वीकार करता है कि मैला ढोने की परंपरा से मुक्ति के लिए बने 1993 के कानून का पालन ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा है। एक तरफ नेहरू गांधी के नाम को भुनाकर सत्ता की मलाई चखने वाली आधी सदी से ज्यादा देश पर राज करने वाली कांग्रेस द्वारा इससे मुक्ति के लिए प्रयास करने का स्वांग रचा जाता रहा है, वहीं कांग्रेस यह भूल जाती है कि मोहन दास करमचंद गांधी खुद अपना संडास साफ किया करते थे।

पिछले साल दिसंबर माह में सफाई कर्मचारी आंदोलन के एक प्रतिनिधि मण्डल ने सामाजिक न्याय मंत्री से भेंट कर देश भर में सर पर मैला ढोने वालों का सर्वेक्षण करवाकर उसकी विस्त्रत रिपोर्ट सौंपी थी। इस प्रतिवेदन में कहा गया था कि देश के पंद्रह राज्यों में सर पर मैला ढोने वालों की तादाद 11 हजार से भी अधिक है। इस प्रतिनिधिमण्डल ने केंद्रीय मंत्री को सौंपे अपने प्रतिवेदन में साफ किया था कि कहां कहां कौन कौन इस काम में जुता हुआ है। इसमें फोटो और अन्य विवरणों के साथ इस अमानवीय कृत्य के बारे में सविस्तार से उल्लेख किया गया था।

पिछली मर्तबा 2008 के संसद के शीतकालीन सत्र में तत्कालीन सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री श्रीमती सुब्बूलक्ष्मी जगदीसन ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उŸार में बताया था कि मैला उठाने की परम्परा को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए रणनीति बनाई गई है । उस वक्त उन्होंने बताया कि मैला उठाने वाले व्यक्तियों के पुनर्वास और स्वरोजगार की नई योजना को जनवरी, 2007 में शुरू किया गया था । उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस योजना के तहत तब देश के 1 लाख 23 हजार लाख मैला उठाने वालों और उनके आश्रितों का पुनर्वास किया जाना प्रस्तावित था।

कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्य के मल को मनुष्य द्वारा ही उठाए जाने की परंपरा इक्कीसवीं सदी में भी बदस्तूर जारी है। देश प्रदेश की राजधानियों, महानगरों या बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को भले ही इस समस्या से दो चार न होना पड़ता हो पर ग्रामीण अंचलों की हालत आज भी भयावह ही बनी हुई है।

कहने को तो केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा शुष्क शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है, वस्तुतः यह प्रोत्साहन किन अधिकारियों या गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की जेब में जाता है, यह किसी से छुपा नहीं है। करोड़ों अरबों रूपए खर्च करके सरकारों द्वारा लोगों को शुष्क शौचालयो के प्रति जागरूक किया जाता रहा है, पर दशक दर दशक बीतने के बाद भी नतीजा वह नहीं आया जिसकी अपेक्षा थी।

सरकारों को देश के युवाओं के पायोनियर रहे महात्मा गांधी से सबक लेना चाहिए। उस समय बापू द्वारा अपना शौचालय स्वयं ही साफ किया जाता था। आज केंद्रीय मंत्री जगदीसन की सदन में यह स्वीकारोक्ति कि देश के एक लाख 23 हजार मैला उठाने वालों का पुर्नवास किया जाना बाकी है, अपने आप में एक कड़वी हकीकत बयां करने को काफी है। पिछले साल जब 11 हजार लोगों के इस काम में लगे होने की बात सामने आई तब कांग्रेसनीत केंद्र सरकार का अमानवीय चेहरा सामने आया था।

सरकार खुद मान रही है कि आज भी देश में मैला उठाने की प्रथा बदस्तूर जारी है। यह स्वीकारोक्ति निश्चित रूप से सरकार के लिए कलंक से कम नहीं है। यह कड़वी सच्चाई है कि कस्बों, मजरों टोलों में आज भी एक वर्ग विशेष द्वारा आजीविका चलाने के लिए इस कार्य को रोजगार के रूप में अपनाया जा रहा है।

सरकारों द्वारा अब तक व्यय की गई धनराशि में तो समूचे देश में शुष्क शौचालय स्थापित हो चुकने थे। वस्तुतः एसा हुआ नहीं। यही कारण है कि देश प्रदेश के अनेक शहरों में खुले में शौच जाने से रोकने की पे्ररणा लिए होर्डिंग्स और विज्ञापनों की भरमार है। अगर देश में हर जगह शुष्क शौचालय मौजूद हैं तो फिर इन विज्ञापनों की प्रसंगिकता पर सवालिया निशान क्यों नहीं लगाए जा रहे हैं? क्यों सरकारी धन का अपव्यय इन विज्ञापनों के माध्यम से किया जा रहा है?

उत्तर बिल्कुल आईने के मानिंद साफ है, देश के अनेक स्थान आज भी शुष्क शौचालय विहीन चिन्हित हैं। क्या यह आदी सदी से अधिक तक देश प्रदेशों पर राज करने वाली कांग्रेस की सबसे बड़ी असफलता नहीं है? सत्ता के मद में चूर राजनेताओं ने कभी इस गंभीर समस्या की ओर नज़रें इनायत करना उचित नहीं समझा है। यही कारण है कि आज भी यह समस्या कमोबेश खड़ी ही है।

महानगरों सहित बड़े, छोटे, मंझोले शहरों में भी जहां जल मल निकासी की एक व्यवस्था है, वहां भी सीवर लाईनों की सफाई में सफाई कर्मी को ही गंदगी के अंदर उतरने पर मजबूर होना पड़ता है। अनेक स्थानों पर तो सीवर लाईन से निकलने वाली गैस के चलते सफाई कर्मियों के असमय ही काल के गाल में समाने या बीमार होने की खबरें आम हुआ करती हैं।

विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर हम आईटी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने का दावा कर चंद्रयान का सफल प्रक्षेपण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर शौच के मामले में आज भी बाबा आदम के जमाने की व्यवस्थाओं को ही अंगीगार किए हुए हैं। इक्कीसवीं सदी के इस युग में आज जरूरत है कि सरकार जागे और देश को इस गंभीर और अमानवीय समस्या से निजात दिलाने की दिशा में प्रयास करे।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

2 COMMENTS

  1. मित्रवर,
    जय माई की
    आपने प्रासंगिक विषय पर लिखा है
    आजाद देश मैं भी यदि यह नहीं रुक पाया
    तो फिर हम कैसे सामाजिक समरसता की बात कर पायेंगे
    उपरोक्त सन्दर्भ मैं आपकी चिंता इन वर्गों के प्रति आपकी सदभावना
    को बताती है .हम भी अपनी भावनाओं को अपने लेखों व काव्य के
    माध्यम से पाठकों तक पहुंचाने की दिशा मैं प्रयासरत हैं .
    जो पत्र-पत्रिकाओं व आप जैसे मित्रों के सहयोग से ही संभव है
    शैलेन्द्र सक्सेना “आध्यात्म” ०९८२७२४९९६४
    संचालक- असेंट इंग्लिश स्पीकिंग कोचिंग
    गंज बासोदा जिला विदिशा .म.प.
    एवं सलाहकार संपादक – साप्ताहिक सत्य की सरकार. विदिशा. म.प.

  2. सफाई का काम केवल दलितों तक सीमित करना ही इस रोग का मुख्या कारन है. यह काम सभी के लिए खोल देना चाहिए फिर देखना गांधीजी के समान बहुत से बेरोजगार ‘सफाई’ के कार्य में भी आगे आएंगे. क्या हमारे ही सभी वर्गों के लोग विदेश में सफाई’ सीवराज आदि का काम नहीं करते.

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