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कब खत्म होगा सलाखों से दाग कर इलाज करने का जानलेवा फरेब


ज्ञान चंद पाटनी


सलाखों से दाग कर इलाज करने का भ्रम भारत में बच्चों की जान ले रहा है। इक्कीसवीं सदी में भी इस तरह के मामले सामने आना चिंताजनक है। इससे यह साबित होता है कि भारत का एक वर्ग अब भी अज्ञान के अंधकार में डूबा है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अभी कोसों दूर है। इलाज के नाम पर गर्म सलाखों से बच्चों को दागने के मामले खासकर ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों से सामने आ रहे हैं। जाहिर है इन इलाकों में अशिक्षा और अंधविश्वास अब भी गहरी जड़ें जमाए हुए है। इस वर्ष भी देश के विभिन्न भागों से ऐसे मामले लगातार सामने आ रहे हैं। मासूम बच्चों को इलाज के नाम पर गर्म सलाखों से दागा गया जिससे उनकी हालत गंभीर हुई और कई की जान तक चली गई।


हाल ही राजस्थान में एक बार फिर ऐसा मामला सामने आया। भीलवाड़ा जिले के सदर थाना क्षेत्र के ईरांस गांव में रहने वाले दंपती का नौ महीने का बेटा बीमार था। अंधविश्वास के चलते उसे गर्म सलाखों से दाग दिया गया ताकि वह ठीक हो जाए। हुआ उलटा। बच्चे की हालत और बिगड़ गई जिसे महात्मा गांधी अस्पताल में भर्ती कराया गया। तीन दिन तक उपचार के बाद उसकी मौत हो गई। डाम लगाने का बड़ा कारण अंधविश्वास है। अंधविश्वास के कारण खांसी-जुकाम होने पर भोपों के चक्कर में पड़कर परिजन बच्चों के डाम लगवा देते हैं। हालत बिगड़ने पर अस्पताल ले जाया जाता है। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में ही पिछले चार साल में डाम लगाने के 15 से अधिक मामले सामने आ चुके हैं। इनमें पांच बच्चों की मौत तक हो चुकी है। भोपों और परिजनों के खिलाफ भी पुलिस में मामले दर्ज हुए हैं। इसके बावजूद यह सिलसिला नहीं थम रहा। अब भी बड़ी संख्या में ग्रामीण सर्दी-जुकाम होने पर बच्चों को चिकित्सक को नहीं दिखाते, बल्कि डाम लगाने या झाड़—फूंक को प्राथमिकता देते हैं।


 मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी ऐसे मामले सामने आए हैं। इस वर्ष सितंबर में मध्यप्रदेश के झाबुआ इलाके में निमोनिया से पीड़ित तीन बच्चों को इलाज के नाम पर सलाखों से दागने का मामला चर्चा में आया था। झारखंड के गांवों में भी आदिवासी समुदाय में चिड़ी दाग की ऐसी ही एक विचित्र परंपरा है। पेट संबंधी रोग ठीक करने के नाम पर बच्चों के पेट गर्म सलाखों से दागे  जाते हैं। हर वर्ष जनवरी के मध्य यहां टुसू पर्व मनाया जाता है। उसी दिन से बच्चों को गर्म सलाखों से दागने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नवजात को दागने के लिए तो इस पर्व का इंतजार भी नहीं किया जाता। उड़ीसा के कुछ इलाकों में भी इस तरह की परंपरा है। लोहे व तांबे की सलाखों के अगले हिस्से को चिड़ी के आकार का देकर उसे तपाया जाता है। फिर ओझा बच्चे की नाभि के चारों ओर सरसों का तेल लगाता है और गर्म सलाखों से नाभि के चारों ओर चार बार दागता है। दाग वाले स्थान पर पुन: सरसों तेल लगा दिया जाता है। इस प्रक्रिया में बच्चा तड़प उठता हैं। कई बार बच्चे की मौत तक हो जाती है।

साफ है कि चिकित्सा विज्ञान की प्रगति के बावजूद इस तरह के गलत और भ्रांतिपूर्ण कृत्य बच्चों की जान ले रहे हैं। यह वाकई गंभीर चिंता की बात है कि ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में अब भी इस तरह की प्रवृत्तियों का समर्थन किया जाता है। कई बच्चों की मौत के बाद भी लोग इसे जड़ से बीमारी खत्म करने का माध्यम मानते हैं। ग्रामीण और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लोग अक्सर आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की बजाय तांत्रिकों और झाड़-फूंक करने वालों पर भरोसा करते हैं। चिकित्सा सुविधाओं की अनुपलब्धता और जागरूकता की कमी भी इसे बढ़ावा देती है। बीमारी और उपचार की सही जानकारी न होने के कारण भी इलाज के लिए ऐसे क्रूर और जानलेवा तरीके अपनाए जाते हैं। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वास की जड़ें बहुत मजबूत हैं। ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सुविधाओं की कमी के कारण भी लोग अक्सर ओझा और तांत्रिकों के पास जाते हैं। आदिवासी इलाकों में बीमार बच्चे को सलाख से जलाना, ‘डाम’ लगाना  या झाड़-फूंक करना आम बात है। जाहिर है अंधविश्वास ही नहीं गरीबी, शिक्षा की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं की दूरदराज इलाकों में पहुंच न होने से भी इस तरह की प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता है।
 
गर्म सलाखों से दागने की प्रक्रिया बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती है। इसके कारण बच्चों को गंभीर जलन और संक्रमण का सामना करना पड़ता है।  फेफड़े और शरीर के दूसरे अंग भी प्रभावित होते हैं। कई बार यह संक्रमण जानलेवा भी सिद्ध होता है। इसके साथ ही, बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास पर भी बुरा प्रभाव पड़ने से वे जीवन भर परेशान रहते हैं।

इस समस्या के समाधान के लिए शिक्षा, जागरूकता और स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार जरूरी है। ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए ताकि लोग आधुनिक चिकित्सा के प्रति जागरूक हों। तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास को खत्म करने के लिए सामाजिक सुधार जरूरी हैं। स्थानीय प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में कड़ी कार्रवाई करें और दोषियों को कानून के तहत सजा दिलाएं। साथ ही, मरीजों को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सुविधा मुहैया कराई जानी चाहिए, जिससे लोग इलाज के नाम पर अंधविश्वास के दलदल में न फंसें। मीडिया और गैर-सरकारी संस्थाएं भी जागरूकता अभियान चलाएं।

सलाखों से दाग कर इलाज की गलत परंपरा बच्चों के जीवन को खतरे में डाल रही है। इसे रोकना हर नागरिक, प्रशासन और समाज की जिम्मेदारी है। शिक्षा, कानून और जागरूकता के माध्यम से इस अमानवीय व्यवहार को जड़ से खत्म करने की जरूरत है ताकि मासूम बच्चों को सुरक्षित और स्वस्थ जीवन मिल सके। इस गंभीर समस्या पर ध्यान देना और ठोस कार्रवाई करना अब प्राथमिकता होनी चाहिए ताकि इलाज के नाम पर किसी बच्चे का जीवन संकट में न पड़े।

ज्ञान चंद पाटनी