कहाँ हैं वे निष्पक्ष, निर्भीक विचारक?-हरिकृष्ण निगम

सारी दुनियां में भारत अकेला देश है जहाँ आज अंग्रेजी लेखन से जुड़े कुछ ऐसे विचारक हैं जिनकी हीनता-ग्रंथि इतनी स्पष्ट और मुखर है कि वे किसी न किसी रूप में बराबर कहते हैं कि देश का अतीत उनके मन में गर्व या विस्मय नहीं बल्कि वितृष्णा पैदा करता है।

देश के भूतकाल के प्रति संयम या अविश्वास पश्चिम की अपसंस्कृति के प्रति आत्म समर्पण की कायरता से बढ़ गया है। इस व्याप्त अनास्था में उनका स्वार्थ या सुविधावादी दृष्टि भी मिली हुई है। ऐसी आत्मग्रस्त या लकवाग्रस्त मानसिकता देश की जड़ें कुतर रही है क्योंकि वे दो नावों पर सवार है। यही वे लोग हैं जो ईमानदारी, नैतिकता, देशप्रेम जैसे अनेक सामाजिक मूल्यों को अब ‘निम्न मध्यवर्ग के जीवनमूल्य’ कह कर तिरस्कृत करते हैं या उनका मखौल उड़ाते हैं। साथ ही ऐसे लोग हिंदी या भारतीय भाषाओं के समस्त लेखन को सांस्कृतिक पिछड़ेपन या ठहरे हुए पानी जैसा रुग्ण क्षेत्र मानते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नोबेल पुरस्कार विजेता वी. एस. नयपाल आज अरसे से देश की इस त्रासदी पर खुलकर लिख रहे हैं। वे पहले भारतीय मूल के लेखक हैं, जिन्होंने हमारे देश के राजनीतिज्ञों व बुध्दिजीवियों को सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर अपराध-भावना दिखाने के लिए खुल कर फटकारा। हमारे देश की राजनीति लीपापोती करने में माहिर है, ऐसा वे मानते हैं। अयोध्या विवाद को सदैव सभ्यताओं के द्वंद के प्रतीक के रूप में देखते थे और उन्होंने इसे पुनर्जागरण के समय-चक्र का परिणाम था, न कि भूमि विवाद या जमीन का एक मामूली टाइटल सूट। यह भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक प्रतीक का प्रश्न था कि अयोध्या जो बहुसंख्यकों के अंतर्मन में रचा बसा है, उसे इतिहास की पुरानी त्रुटी को ठीक करने के लिए, बिना छिछली राजनीतिक बहस का हिस्सा बनाए हुए, हिंदुओं को सौंपा जाता। इस स्थल को स्वेच्छा व खुले दिल से वापस कर अतीत में हुए हजारों मंदिरों के ध्वंस के कारण राष्ट्रीय अंतर्मन पर लगे घाव को एक क्षण में भरा जा सकता था। यद्यपि पिछली पीढ़ियों के किसी रुख के लिए आज की पीढ़ी जिम्मेदार नहीं कही जा सकती है, पर अल्पसंख्यकों की वर्तमान पीढ़ी शायद अगली सदियों तक अपार सद्भावना की स्वाभाविक हकदार बन सकती थी यदि आज वह ऐसी दरियादिली दिखाती।

सन् 1992 के विध्वंस के बाद लगभग हर राजनीतिक अवसर पर लगभग हर दल अल्पसंख्यकों से माफी मांगता दीखता है। आज के आधुनिक इतिहास में किसी भी मुस्लिम संगठन ने अतीत में गिराये मंदिरों के लिए खेद प्रकट किया है? यहाँ तक कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद प्रतिक्रियास्वरूप हजारों मंदिरों के साथ बंग्लादेश में ढाका का प्राचीनतम ढाकेश्वरी मंदिर जला दिया गया था। उसके बारे में माफी तो दूर, हमारे देश में उसके समाचार भी सिर्फ पश्चिमी मीडिया से होकर छपे थे।

भारत की स्थिति यह है कि हम अपने देश की हर चीज को संयम ही नहीं उपेक्षा से तब तक देखते हैं जब तक उसे पश्चिम से अनुमोदन न मिले। यह बात नयपाल लगातार कहते आ रहे हैं और हाल में पिकाडर प्रकाशन गृह द्वारा 517 पृष्ठों के उनके प्रकाशित निबंध संग्रह जिसका शीर्षक है ‘लेखक और विश्व’ में भी यही बात रेखांकित की गई है। उन्होंने कहा है कि हर भारतीय जो अपनी प्राचीन, अविच्छिन्न और सदियों की उथल-पुथल के बाद भी बची हुई सभ्यता पर गर्व करता है, आज खुद उसका शिकार होता जा रहा है। उनका तात्पर्य यह है कि जब तक उन्हें विदेशी प्रमाण-पत्र न मिल जाए या कोई पश्चिमीं बुध्दिजीवी सत्यापित न कर दे, वे स्वयं अपने को अपूर्ण महसूस करते हैं। चाहे वह देश की वैकल्पिक चिकित्सा पध्दति आयुर्वेद हो या योग, ध्यान, वैदिक गणित अथवा पारंपरिक खान-पान की चीजें हो या कोई पुरानी विरासतों हम तभी जगते हैं, जब पश्चिम देश या अमेरिका में उन्हें स्वीकृति मिले। इस विषय पर नयपाल का मत अत्यंत स्पष्ट है और वे डंके की चोट ऐसे संशयग्रस्त भारतीय बुध्दिवादियों की भर्त्सना करते हैं। यहाँ तक कि जब कुछ विचारकों ने उन पर ‘हिंदू तत्ववादियों’ को खुश करने वाली बातें कह कर आरोप लगाया, वे उत्तेजित होकर कहते हैं कि उनका नैतिक दायित्व सिर्फ सत्य को रेखांकित करना है चाहे वह दूसरों को कितना कड़वा ही क्यों न लगे।

नयपाल का कहना है कि हमारे यहाँ के साधु-संत और विचारक भी लगातार पहले भारत के बाहर अनुमोदन ढूंढ़ते हैं। यह उनके दृष्टिकोण या उनकी मान्यता पर निर्भरता देश के आत्मसम्मान के लिए घातक है। हमारे देश में स्थानीय निर्णयों का कोई महत्व नहीं है। ‘बिना विदेशी’ चिट के भारतीय अपने देश के यथार्थ को सत्यापित भी नहीं कर सकते हैं, नयपाल इस स्थिति को आत्मविश्वास की कमी के कारण मानते है। ”आज देश की हर दक्षता, कौशल और विचारभूमि जो आधुनिक भारत का घोषित आदर्श है, वह यदि कहीं दूसरी जगह पर भी विद्यमान है, उसकी हममें नकल करने की ललक है” नयपाल ने कहा।

नयपाल ने कुछ उदाहरण दिए हैं। ” सरकार और प्रशासन के क्षेत्र में भारत में वेस्टमिंस्टर मॉडल में ही सारे हल ढूंढ़े जाते हैं। इसी तरह कुछ प्रगतिशील कहलाए जाने वाले विचारक पश्चिम के ‘न्यू स्टेट्समैन’ की सिर्फ शैली की नकल नहीं, उस पत्रिका के टाइपों की भी ह-ूब-हू नकल अपने प्रकाशनों में करते हैं।” नयपाल ने जोर देकर कहा कि भारतीय समस्याओं को सुलझानें के लिए आयातित विचार पर्याप्त नहीं हैं। साथ ही वे कहते हैं कि सारे अंग्रजी भाषी विश्व में ‘सेकुलरिज्म’ शब्द का अर्थ भिन्न ह,ै जबकि भारतीय राजनीति के संदर्भ में यह उल्टा ही है और विपक्षियों पर मात्र प्रयोग करने का भोंथरा अस्त्र है। पश्चिमी देशों में इसका मतलब लौकिक, ऐहिक या जो कुछ धार्मिक है उसका विपरीत है जब कि भारत में अधचकरे राजनीतिज्ञों ने इसे पूरी तरह विकृ त कर डाला है क्योंकि यहां यह प्रतिद्वंदियों पर अपशब्द की तरह प्रयुक्त किया जाता है।

नयपाल अपनी नई चिंताओं में, जहाँ चारों ओर दुनिया जल रही है, मानवीय संकट को लगातार रेखांकित कर रहे हैं। उनके विचार में राजनीति के मुहावरे और शब्दावली अपना अर्थ खो चुके हैं। वे पश्चिमीकरण से बचाव के स्थान पर हमारे देश के लोगों को अपना राष्ट्रीय अस्मिता के संरक्षण पर बल देने को अधिक महत्व देते हैं। यह स्थिति ही हमें दुनिया की धाराओं में समरस होना सिखा सकती है।

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