दिल्ली को कहां लेकर जाएगी मुफ्त की राजनीति?

योगेश कुमार गोयल

दिल्ली विधानसभा चुनाव से चंद माह पहले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जिस प्रकार
मुफ्त बिजली तथा बिजली मीटरों के फिक्स चार्ज में भारी गिरावट करके एक बहुत बड़ा चुनावी
दांव खेला है, उससे दिल्ली की सियासत में हड़कंप मचा है। दिल्ली के लाखों बिजली उपभोक्ताओं
को तत्काल प्रभाव से राहत दिए जाने के इस फैसले ने प्रमुख विपक्षी दलों भाजपा तथा कांग्रेस
के पैरों तले की जमीन खींच ली है। दरअसल केजरीवाल अच्छी तरह जानते हैं कि इस बार के
चुनाव में उनकी पार्टी की स्थिति ठीक नहीं है, लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उन्हें बखूबी आईना
दिखा ही दिया था। यही वजह है कि वे लगातार ऐसे लोकलुभावन कदम उठा रहे हैं, जिससे
मतदाताओं को सहजता से आकर्षित करने में सफलता मिले। हालांकि इस तरह के कदमों से
विधानसभा चुनावों में उन्हें कितना लाभ मिलेगा, इस बारे में फिलहाल तो दावे के साथ कुछ भी
कह पाना संभव नहीं।
केजरीवाल सरकार द्वारा 200 यूनिट तक बिजली खपत वाले उपभोक्ताओं को सौ फीसदी
छूट अर्थात् शून्य बिल देने की योजना लागू कर दी गई है, इसके अलावा 200 से 400 यूनिट के
बीच बिजली खपत करने वाले उपभोक्ताओं को अधिकतम 800 रुपये छूट दिए जाने तथा मीटर
के किराये में 84 फीसदी तक की कटौती का फैसला भी लागू कर दिया गया है और इस तरह
का फैसला लेकर उन्होंने सीधे-सीधे दिल्ली के करीब 33 लाख उपभोक्ताओं को प्रभावित किया
है। दरअसल दिल्ली में करीब 35 फीसदी उपभोक्ता ऐसे हैं, जो प्रति माह 200 यूनिट से कम
बिजली की खपत करते हैं। सरकार के मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने के कदम से 21 लाख
उपभोक्ताओं का बिल अब शून्य रह जाएगा जबकि 200 यूनिट से ज्यादा खपत वाले कई लाख

उपभोक्ताओं के बिल में भी 800 रुपये तक की कमी आएगी। 200 यूनिट से कम बिजली खपत
वाले अधिकांश उपभोक्ता ऐसे हैं, जो या तो झुग्गी-झोंपडि़यों में रहने वाले हैं या कमजोर तबके
अथवा श्रमिक वर्ग के लोग, चुनाव के दृष्टिगत जिन्हें साधने के लिए केजरीवाल मुफ्त की
राजनीति का दांव खेलकर हर मोर्चे पर अपनी गोटियां फिट करने के लिए भरसक प्रयासरत हैं।
बिजली उपभोक्ताओं के लिए भले ही यह एक बहुत बड़ी राहत होगी और कुछ बुद्धिजीवी
भी भले ही सरकार की मुफ्त बिजली की योजना की सराहना करते हुए कह रहे हैं कि एक
कल्याणकारी राज्य में सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह अपने नागरिकों को बुनियादी
जरूरतों वाली चीजें तथा सेवाएं निशुल्क उपलब्ध कराए लेकिन राज्य के बेहतर विकास के लिए
उसकी अर्थव्यवस्था सही-सलामत बनी रहे, उस लिहाज से आम जनता में मुफ्तखोरी की आदतों
को बढ़ावा देती इस तरह की योजनाओं, नीतियों या फैसलों का समर्थन किया जाना उचित प्रतीत
नहीं होता। हालांकि इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है कि सरकार की इस पहल से लोगों में
200 यूनिट से कम बिजली खपत को लेकर जागरूकता बढ़ेगी, जिससे बिजली की बचत भी होगी
किन्तु बिजली उपभोक्ताओं को मुफ्त बिजली देने के बजाय बिजली बचत के लिए उन्हें
प्रोत्साहित करने के लिए अन्य उपाय भी किए जा सकते थे। स्मरण रहे कि गत वर्ष केजरीवाल
सरकार ने 20 हजार लीटर मुफ्त पानी देने का भी ऐलान किया था किन्तु उस पर दिल्ली
हाईकोर्ट द्वारा गंभीर सवाल उठाए गए थे।
चंद माह पहले केजरीवाल ने अपनी चुनावी जमीन तैयार करने के उद्देश्य से ही दिल्ली
की बसों तथा मैट्रो में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा का कार्ड भी खेला था। दरअसल दिल्ली में
करीब 61.4 लाख महिला मतदाता हैं, जिनमें 17 लाख से भी ज्यादा महिला यात्री प्रतिदिन बसों
तथा दिल्ली मैट्रो में सफर करती हैं। दिल्ली सरकार की मुफ्त यात्रा की इस पहल से सरकारी
खजाने पर प्रतिवर्ष 1400 करोड़ रुपये का बोझ बढ़ेगा। महिला यात्रियों को मुफ्त यात्रा का
झुनझुना थमाने के बाद केजरीवाल अब मुफ्त व सस्ती बिजली के सहारे दिल्ली में ‘आप’ की
नैया पार लगाने के ख्वाब संजो रहे हैं। याद रहे कि पिछला विधानसभा चुनाव भी उन्होंने
‘बिजली हाफ, पानी माफ’ के नारे के साथ जीता था। सरकारी सूत्रों की ही मानें तो दिल्ली सरकार
के मुफ्त व सस्ती बिजली के फैसले से प्रदेश सरकार पर 600 करोड़ रुपये का अतिरिक्त वार्षिक
बोझ बढ़ेगा। अब सवाल यह है कि सरकार इस राशि की भरपाई कहां से करेगी? सरकारी खजाने
पर पड़ते इस तरह के अनावश्यक बोझ की कीमत वास्तव में ईमानदार और मेहनती करदाताओं
को ही चुकानी पड़ती है और निश्चित रूप से सरकार के ऐसे फैसलों से इन करदाताओं के मन
में एक नकारात्मक संदेश का ही बीजारोपण होता है। विड़म्बना ही है कि मुफ्त की राजनीति के

चलते ही कामधेनु माने जाने वाले कई सरकारी विभाग भी इन लोकलुभावनी नीतियों की मार
झेल नहीं पाते और देखते ही देखते उन्हें भी घाटे की अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनते देर नहीं
लगती।
हमारे यहां प्रायः राजनीतिक दलों या सरकारों द्वारा अपना वोटबैंक बढ़ाने के लिए जनता
को मुफ्तखोरी की लत लगाने वाली घोषणाएं की जाती हैं। पूर्णतया राजनीतिक लाभ से प्रेरित
इस तरह की प्रवृत्ति के प्रायः भयावह दूरगामी परिणाम ही सामने आते हैं। देश की अर्थव्यवस्था
या राज्यों की बदहाल आर्थिक स्थिति को ताक पर रखकर कमोवेश सभी राजनीतिक पार्टियां
मुफ्तखोर संस्कृति को बढ़ावा देते हुए चुनावों के दौर से ठीक पहले आभूषण, मंगलसूत्र, लैपटॉप,
स्मार्टफोन, टीवी, फ्रिज से लेकर चावल, दूध, घी तक बांटने का वादा कर मतदाताओं का बहलाती
रही हैं। फिर बात चाहे किसानों की समस्याओं की हो या अन्य जन समस्याओं अथवा जन-
सरोकारों से जुड़े मुद्दों की, ऐसी समस्याओं को ईमानदारी से हल करने के बजाय अक्सर मुफ्त
योजनाओं का लालच देकर इस प्रकार के लोक-लुभावन कदमों के जरिये मतदाताओं को बहलाने
का प्रयास किया जाता रहा है। इसी कड़ी में दो कदम आगे निकलते हुए केजरीवाल ने भी पहले
महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा और अब बिजली उपभोक्ताओं के लिए मुफ्त बिजली की घोषणा
की है।
एक तरफ जहां देश के आर्थिक विकास के लिए सब्सिडी की अर्थव्यवस्था को खत्म करने
की कोशिशें जारी हैं, ऐसे दौर में भारी भरकम सब्सिडी वाली या मुफ्त योजनाएं राज्यों की माली
हालत के लिहाज से कतई ठीक नहीं मानी जा सकती। मतदातओं को ऐसी योजनाओं की आड़ में
भ्रमित कर वोट पाने के चक्कर में सरकारी संसाधन लुटाने के बजाय सरकारें देश या अपने
प्रदेश के नागरिकों की सुविधाओं के लिए ऐसी योजनाएं या कार्यक्रम क्यों नहीं शुरू करती, जिससे
उन्हें मुफ्तखोर बनाती राजनीति की जरूरत ही न पड़े। हमें यह बखूबी समझ लेना चाहिए कि
मुफ्तखोरी की राजनीति न केवल राज्य की अर्थव्यवस्था को दीमक की भांति चाटकर उसे बुरी
तरह पंगु बना डालती हैं, साथ ही इससे आम जनजीवन से जुड़ी इन बुनियादी सुविधाओं की
गुणवत्ता में भी बड़े स्तर पर गिरावट आती है। देश की आजादी के बाद से देश के विभिन्न
हिस्सों में कई बार मुफ्त की राजनीति का व्यापक प्रभाव देखा गया, जब इस तरह की राजनीति
से वोटों की फसल काटने में तो खूब सफलता मिली किन्तु उसके जो नकारात्मक प्रभाव सामने
आए, उनका खामियाजा कुछ राज्य आज तक भुगत रहे हैं।

अगर पंजाब की ओर देखें तो वहां अकाली-भाजपा सरकार ने कृषि क्षेत्र को मुफ्त बिजली
देने की योजना शुरू की थी, जिसका हश्र यह हुआ कि कृषि क्षेत्र को मुफ्त बिजली देते-देते यह
कृषि प्रधान राज्य आमजन और उद्योग जगत के लिए देश में सबसे महंगी बिजली वाला राज्य
बन गया और उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि महंगी बिजली के चलते ज्यादातर उद्योग धंधे
पंजाब से दूसरे राज्यों में स्थानांतरित हो गए, जिनके लिए पंजाब आज तक तरस रहा है। पंजाब
में कृषि क्षेत्र को मुफ्त बिजली देने की शुरूआत किए जाने के दो दशक बाद भी वहां का बिजली
निगम हजारों करोड़ रुपये के घाटे में चल रहा है। ऐसे में यह कहना असंगत नहीं होगा कि बसों
तथा मैट्रो में महिलाओं को मुफ्त यात्रा तथा बिजली बिलों में सौ फीसदी छूट जैसे दिल्ली सरकार
के फैसलों का खामियाजा दिल्ली को भी देर-सवेर भुगतना ही होगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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