कैसा विकास हो रहा है बिहार में ?

1
325

alcohol banबिहार में जनहित से जुड़े मुद्दे भी ‘व्यक्ति – विशेष ‘ के अंह की भेंट चढ़ रहे हैं , जनभावनाओं को हाशिए पर धकेल दिया गया है l सरकार की कार्य-शैली पर जब प्रश्न उठता है तो नीतीश जी का जबाव होता है कि “भ्रम फैलाया जा रहा है , लोग भ्रम में न फंसें , सब ठीक चल रहा है l” मूलभूत समस्याएं यथावत हैं l महिमा-मंडन व् प्रायोजित -प्रचारों का स्वर्णिम काल है l उपरनिष्ठ विकास को समग्र विकास का जामा पहनाने की कवायद अनवरत जारी है ….
मौजूदा दौर में अगर “बहुप्रचारित विकसित बिहार” की बात करें तो लंबी-चौड़ी सड़कों, अपार्टमेन्टस एवं मॉल्स के निर्माण और विकास दर (आंकड़ों की बाजीगरी) के बढ़ने को ही विकास बताया जा रहा है। सबसे घातक तो यह है कि नीतीश कुमार लोगों को इसी अवधारणा को सच मानने के लिए बाध्य कर रहे हैं। मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग भी अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं को लोकहित से ऊपर रखकर एवं अपने मूल उद्देश्य से भटककर उनके साथ है। सड़क – निर्माण , पुल – निर्माण के अलावा कहीं और कुछ होता हुआ नहीं दिखता है l क्या विकास सड़क – पुल निर्माण तक ही सीमित है ?
बिहार के संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्तें जुड़ी हैं। यहाँ वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे जबकि आज जो बिहार में हो रहा है या पिछले साढ़े दस सालों में जो हुआ है वो इसके ठीक उल्ट है। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए सिर्फ राजनीतिज्ञों,नौकरशाहों , पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों (जो चुनावी राजनीति में अहम भूमिका अदा करते हैं ) के हितों का ध्यान रखा जा रहा है। नीतियों का वास्तविक क्रियान्वयन नहीं के बराबर है।
हम में से अधिकांश लोग जब विकास की बातें करते हैं तो प्रायः हम विकास की पाश्चात्य अवधारणा का ही अनुसरण करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि स्वतंत्रता के बाद से पहली सरकार के गठन के साथ ही विकास के संदर्भ में बिहार की भी अपनी एक सोच रही है। बिहार ही क्या, देश के प्रत्येक कोने में विकास की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की गई है। जिस समाज में सत्ता और जनता के बीच का सामंजस्य बरकार रहता है, वहीं सही विकास होता है। विकास की अवधारणा वस्तुतः जनता से जुड़ी हुई है। जनता (आम ) का जीवन-स्तर कैसा है ? इसी से तय होता है कि विकास हुआ या नहीं। वास्तविक विकास एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें जमीन, जल, जंगल,जानवर, जन का परस्पर पोषण होता रहे। वही स्वरूप सही माना जाता है जो आर्थिक पक्ष के साथ सामाजिक और व्यावहारिक पहलूओं का भी ध्यान रख सके।
सत्ता व शासक को ये सदैव ये भान होना चाहिए कि प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाले समूहों के रहन-सहन, खान-पान, उनकी राजनीति, संस्कृति, उनके सोचने और काम करने के तौर-तरीके, सब जिस “मूल तत्व“ से प्रभावित होते हैं, वह है वहाँ की भौगोलिक परिस्थिति। उसी के आलोक में वहां जीवन दृष्टि, जीवनलक्ष्य, जीवन-आदर्श, जीवन मूल्य, जीवन शैली विकसित होती है। उसी के प्रभाव में वहां के लोगों की समझ बनती है और साथ ही उनकी सामाजिक भूमिका भी तय होती है। बिहार में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर आज तक विकास की किसी भी अवधारणा को “ मूल तत्व“ को ध्यान में रखकर मूर्त रूप नहीं दिया गया। वर्तमान का बहुप्रचारित विकास का ‘बिहार मॉडल’ भी “मूल तत्व“ से कोसों दूर है। विकास की अवधारणा में जब भी राजनीति जटिलताएं समाहित रहेंगी तो विकास सम्भव ही नहीं है अपितु ऊपरनिष्ठ विकास का दिखवा और छलावा मात्र ही सामने आएगा ।
विभिन्न भौगालिक परिस्थितियों की समझ के साथ विकास के प्रारूप के निर्माण, समस्याओं के समाधान, सत्ता की पारदर्शिता और विकेन्द्रीकरण के बिना सम्यक विकास सम्भव ही नहीं है। भौगोलिक दशा और दिशा को ध्यान में रखकर विकास के विविध प्रारूपों के नियोजन और क्रियान्वयन से ही समग्र विकास का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। विकास के एक कॉमन – मॉडल से सिर्फ़ विसंगतियां और विरोधाभास उत्पन्न होंगे।मसलन उत्तरी बिहार की भौगोलिक स्थिति दक्षिणी बिहार के ठीक विपरीत है, प्राकृतिक संरचनाएं व संसाधन भिन्न हैं, भौतिक व मानवीय संसाधन भिन्न हैं तो प्रारूप भी भिन्न होना चाहिए।
बिहार के सन्दर्भ में में विकास का मतलब होना चाहिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था का संतुलन व समायोजन , शासित और शासक में संवाद , उद्यम और अर्जन का तारतम्य। पिछले साढ़े दस सालों से बिहार में विकास को लेकर भयानक भ्रम फैलाया जा रहा है और अभी भी यह प्रवृत्ति थमी नहीं है। सरकारी आंकड़ों की ही मानें तो आज भी बिहार से जाने वालों की तादाद बिहार आने वालों की तादाद से १० लाख ७० हजार ज्यादा है। आज जहाँ एक ओर विकास के बढ़-चढ़ कर दावे किए जा रहे हैं, वहां इन लोगों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। गांव की दालानों से दूरस्थ प्रदेशों का रूख अनवरत जारी है। अगर जीविका की संकट की दशा में पलायन होता है तो ये विरोधाभासी विकास है। पलायन जीविका के परंपरागत स्रोत पर संकट का द्योतक है।
विकास दर के आंकड़ों में वृद्धि दर्शाने के बावजूद बिहार में ग्रामीण जनता की जरूरत के हिसाब से मुठ्ठी भर भी नए रोजगार का सृजन नहीं हो पाया है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बदहाली , ग्रामीण इलाकों के कुटीर और शिल्प उद्योगों का ठप्प पड़ना, घटती खेतिहर आमदनी और मानव-विकास के सूचकांकों से मिलती खस्ताहाली की सूचना, इन सारी बातों के एकसाथ मिलने के पश्चात तो तस्वीर ऊभर कर आती है वो किसी भी दृष्टिकोण से विकास का सूचक व द्योतक नहीं है। वर्तमान बिहार में केवल ५७ फीसदी किसान स्वरोजगार में लगे हैं और ३६ फीसदी से ज्यादा मजदूरी करते हैं। इस ३६ फीसदी की तादाद का ९८ फीसदी ” रोजहा ( दिहाड़ी ) मजदूरी“ के भरोसे है यानी आज काम मिला तो ठीक वरना कल का कल देखा जाएगा । अगर नरेगा के अन्तर्गत हासिल रोजगार को छोड़ दें तो बिहार में १५ साल से ज्यादा उम्र के केवल ५ फीसदी लोगों को ही सरकारी ऐजेन्सियों द्वारा कराये जा रहे कामों में रोजगार हासिल है।
कैसा विकास हो रहा है बिहार में ? जिसमें गैर-बराबरी की खाई दिनों-दिन चौड़ी होती जा रही है। एक खास तरह की सामाजिक और आर्थिक असमानता बिहार में बढ़ती हुई देखी जा सकती है। बिहार में सीमांत किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी बड़े किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी से बीस गुना कम है। बिहार के ग्रामीण इलाकों में लोगों की आमदनी साल-दर-साल कम हो रही है। बिहार में खेती आज घाटे का सौदा है।ग्रामीण इलाके का कोई सीमांत कृषक परिवार खेती में जितने घंटे की मेहनत करता है, अगर हम उन घंटों का हिसाब रखकर उससे होने वाली आमदनी की तुलना करेंगे तो निष्कर्ष निकल कर आएगा कि कृषक परिवार को किसी भी लिहाज से न्यूनतम मजदूरी भी हासिल नहीं हो रही है। जिन किसानों के पास २ हेक्टेयर से कम जमीन है, वे अपने परिवार की बुनियादी जरुरतों को भी पूरा कर पाने में असमर्थ हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक एक किसान परिवार का औसत मासिक खर्च २७७० रुपये है, जबकि खेती सहित अन्य सारे स्रोतों से उसे औसतन मासिक २११५ रुपये हासिल होते हैं, जिसमें दिहाड़ी मजदूरी भी शामिल है यानी किसान परिवार का औसत मासिक खर्च उसकी मासिक आमदनी से लगभग २५ फीसदी ज्यादा है।
बिहार में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा, जब तक यहाँ के किसान सुखी और समृद्ध नहीं होंगे। विकास के इस बहुप्रचारित दौर में ‘कृषि रोड-मैप ‘ जैसी याजनाओं के तहत किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके थोप दिए गए। परिणाम यह हुआ कि बढ़ने की बजाय इन योजनाओं से जुड़ीं अनेकों जटिल समस्याएं ही उत्पन्न हो गर्इं। बिहार में अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का है । कृषि के क्षेत्र में एवं कृषि आधारित उद्यम में सरकारी व गैरसरकारी निवेश नगण्य है और अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा। अभी प्रदेश के किसानों की जो दुर्दशा है, वह इन्हीं अदूरदर्शी नीतियों की वजह से है। इस बदहाली के लिए प्रदेश का अदूरदर्शी नेतृत्व ही सीधे तौर से जिम्मेदार है। बीते सालों के अनुभव से साफ है कि किसानों की हालत को सुधारे बगैर बिहार का विकास सम्भव नहीं है।

विकास के प्रारूप व परियोजनाओं एवं जमीनी हकीकत (यथार्थ) के बीच सार्थक सामंजस्य के बिना विकास का कोई भी प्रारूप सही मायनों में फ़लीभूत नहीं होगा। जब तक सबसे निचले पायदान पर जीवन-संघर्ष कर रहे हैं, प्रदेश के वासी को ध्यान में रखकर विकास की प्राथमिकताएं तय नहीं की जाएंगी तब तक विकास दिशाविहीन और दशाविहीन ही होगा।

आलोक कुमार

1 COMMENT

  1. लालू जी के परिवार का आर्थिक विकास तो जरूर हो रहा है , और मुद्दे से ध्यान बंटाने के लिए नीतीश भी ऐसे जुमले उछालते रहते हैं , शराब बंदी भी उनमें से ही एक है , असल में लालू के साथ आ जाने पर नीतीश की पकड़ ढीली हो गयी है इसलिए वह अब मात्र एक कार्यवाहक सी एम् ही हैं , और जनता को भरम में डाले रखते हैं , अभी बिहार की जनता को अपने चुनाव की कीमत चुकानी बाकि है जिसका पता दो साल बाद चलना शुरू होगा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress