मैं कौन हूं? अथ अहं ब्रह्मास्मि (तीन)


—विनय कुमार विनायक
मन्वन्तर-दर-मन्वन्तर
मनु के बेटों का
मनु की व्यवस्था से
पूछा गया सवाल,
पूछता है फिर-फिर
आज भी मनु का बेटा!
यह जानकर भी
कि जबाव नहीं देगा व्यवस्थाकार
खामोश ही रहेगा सीधे सवाल पर
मानक बनाने वाला
मैं का/मैन का/मन का!
अस्तु अवसर विशेष पर कहे गए
ब्रह्मवाक्य में ही
हल ढूंढेगा मनु का बेटा यह जानकर
कि ब्रह्मवाक्य मिथ्या नहीं होता!
हे आदि सनातन धर्म के नियामक
मेरे जन्म/नाम/द्विजाति संस्कार पर
गोत्रोचार में तुमने ही कहा था
‘ऋषि अत्रि मूल के कश्यपगोत्री ब्राह्मण,
अत्रिपुत्र चन्द्र देव कुलोद्भव आर्य,
ज्येष्ठ यदुवंशी हैहय क्षत्रिय
राजपूत कलचुरी/कलसुरी/कलसुड़ी
कलाल-कलवार-सुरी-सुढ़ी-सोढी़-शोण्डी,
सम्प्रति वैश्य कृषक कर्म लिप्त
शौण्डिक नाम्नी जाति में उद्भूत
अर्जुन देवस्य ज्येष्ठ आत्मज!
हे भूसुर!
अवरोही क्रम से भूपतित मानव जन के मध्य
मैं कौन हूं?
तुम्हारी लिखी प्राचीन आख्या की
वंशवार व्याख्या कहती
‘मैं’
आज का लघु मानव, कल ‘ब्रह्मा’ था!
ब्रह्म पुत्र ब्राह्मण ‘मरीचि’ मेरी संज्ञा थी,
मरीचि तनय महर्षि ‘कश्यप’ मैं बना था!
(4)
मैं आदित्य
अदिति-कश्यप पुत्र विवश्वान सूर्य!
मेरे अहं ने आदित्यों को
देवत्व दिया/हम ‘सुर’ हुए
अन्य काश्यपी;कश्यपवंशी,
कश्यप-दिति/कश्यप-दनु संतति
दैत्य, दानव आदि आदिवासी
मनुर्भरती स्वदायाद बांधवों को
हमने ‘असुर’ कहा नीचा दिखलाया
अश्लील गालियां दी!
फिर क्या?
देवासुर संग्राम छिड़ा प्रलय मची
देवत्व छिना/दानवता मिटी
अहं का दीवार फटा!
(5)
मैं श्राद्धदेव!
ध्वस्त देव सृष्टि का अवशेष,
आदित्य विवश्वान सूर्य का आत्मज
‘वैवश्वत मनु’ बनकर
मानवता का इतिहास रचा!
देवत्व अहं और महादंभ को त्यागकर
मातृसत्तात्मक सृष्टि की विकृति को यादगार
सहज सनातन सृष्टि का शपथ लिया!
मैंने प्रथमत:
पिता विवश्वान सूर्य की स्मृति में,
अपनी मानवी अनुकृति में
पितृ सत्तात्मक सृष्टि का
श्री गणेश किया!
कालांतर में मेरा अंशी सूर्यवंशी
और मम तनुजा ‘इला’ की
चन्द्रवंशी कहलाया!
मैंने सबको सम्यक पाला
प्रकृति के बहार से
मानवता के उपहार से
पुत्री इला को पुत्र इच्छवाकु सा
लाड़ प्यार दिया
नारी को नर सा
सहज अधिकार दिया!
लाड़ली मेरी इला बनी बधू
ब्रह्मपुत्र-अत्रिनन्दन-चन्द्रतनय बुध की
इला मेरी बेटी थी, बेटा भी!
पर मेरी व्यवस्था दृढ़ थी
बेटे की संतति सूर्यवंशी
और बेटी की संतति कहलाई चन्द्रवंशी!
लेकिन फिर वही हुआ
जिसका मुझको डर था
मेरे पौत्र-दौहित्रौ में
पुनः देवत्व का मद छाया,
वीर विजयिनी सेना लेकर
आर्यत्व का झंडा फहराया!
हर सूर्यवंशी/हर चन्द्रवंशी बने
‘आर्य’ नामधारी
सर्व श्रेष्ठता का अधिकारी!
अन्य मनुर्भरती धरती जन को
गैर आर्य समझा,
कह ‘अनार्य’ घृणा भाव दर्शाया!
फिर क्या? द्वन्द मचा देवासुर सा
आर्य-अनार्य का श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ का!

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