कविता

कौन हो तुम ?

विजय निकोर

कौन हो तुम ?

पहेली-सी आई,

पहेली ही रही।

बहुत करी थी कोशिश मैंने

कि शायद समझ लूँ तुमको

बातों से ….. आँखों से,

पास से ….. या दूर से,

पर मेरे लिए अभी तक तुम

परिच्छन्न पहेली ही रही हो ।

 

कुछ ऐसा लगता है तुम कभी

जाड़े की किरणों की उष्मा-सी

मुझको बाहों में लपेट लेती हो,

और कभी तुम्हारी रूखी बातें

ग्रीष्म की कड़ी धूप-सी लगती

देर तक चुभती रहती हैं मुझको।

कभी तुम्हारी पलकें बिछी रहतीं

मेरे आने की वही राह तकती,

और कभी यह भी लगता है कि

अब परिक्षत पलकों में तुम्हारी

इस पदाश्रित के लिए

कहीं कोई शरण नहीं है।

 

सच, बहुत दुखता है प्रिय, तब

मेरा यह व्याकुल विशोक मन

भीतर ही भीतर अंशांशत: अकेले

पास तुम्हारे और दूर भी तुमसे,

पर उस परितापी परिक्षत पल में

कुछ भी कह नहीं पाता हूँ डर से।

 

क्या तुम जानती हो उस घड़ी

इन साँसों से भी बढ़कर मुझको

बस, तुम्हारी ज़रूरत होती है ?

खो गया हूँ मैं कब से तुम्हारे

अस्तित्व की भूलभुलैयाँ में ऐसे,

सांकल लगे बंद कमरे में जैसे

कोई भयभीत पंखकटा

रक्ताक्त पक्षी

अवशेष पंख फड़फड़ाता

दीवार से दीवार टकरा रहा हो ।

 

सोचता हूँ यह कैसा होता,

जो मैं भी तुम्हारी आँखों में

किसी काल्पनिक पहेली-सा,

या, गणित के ग्रंथित कृताकृत

अनुचित प्रश्न-सा लटका रहता ।