राजनीति

किसकी लडाई लड रहे हैं ये माओवादी?

-समन्वय नंद

सर्वहारा की लडाई लडने का दावा करने वाले माओवादियों के संबंध में एक और सनसनीखेज खुलासा हुआ है। बंगलूरू पुलिस ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई व नक्सलियों के बीच सांठगांठ कर देश में आतंकी वारदात को अंजाम देने की साजिश के आरोप में दो लोगों को गिरफ्तार किया है।

वैसे तो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा नक्सलियों को सभी प्रकार की सहायता करने संबंधी आरोप पहले से लग रहे थे। लेकिन इस मामले में बंगलुरु पुलिस द्वारा दो लोगों को गिरफ्तार किये जाने के बाद यह और पुख्ता हुआ है।

माओवादी दावा करते हैं कि वे एक वैचारिक लडाई लड रहे हैं। उनके प्रवक्ता जब भी मूंह पर काली पट्टी पहने बंदूक के साथ किसी जंगल में किसी टेलीविजन चैनल के सामने बयान देता हैं तो वे इसी बात को कहता हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा है क्या य़ह विचारणीय प्रश्न है। बंगलूरू की घटना के बाद स्थिति और स्पष्ट हुई है और नक्सलियों पर जो नकाब था, वह उतर रहा है।

माओवादी इस्लामी आतंकवादियों से मिले हुए हैं। इस्लामी आतंकवादियों से वे क्यों मिले हुए हैं? क्या इसका कोई वैचारिक आधार है? क्या इस्लामी आतंकियों का और सर्वहारा की लडाई लडने वालों का कोई समान वैचारिक धरातल है जिसके आधार पर दोनों एक दूसरे के साथ दे सकते हैं?

केवल इस्लामी आतंकवाद ही क्यों चर्च प्रेरित आंतकवाद के साथ भी नक्सली दे रहे हैं। इसका खुलासा आज से लगभग दो साल पूर्व ही हो गया था। कंधमाल के वनवासी इलाके में चार दशकों से कार्य कर रहे हैं स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की जब जन्माष्टमी के दिन अत्यंत नृशंसता से हत्या कर दी गई थी। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या केवल इस लिए की गई थी कि उन्होंने मतांतरण को इलाके में पूरी तरह रोक दिया था। उन्होंने इलाके गौ हत्या बंद करवा दी थी। इस कारण मतांतरण के कार्य में लगे चर्च के निशाने पर वे थे। इस बात का खुलासा जिला प्रशासन के आला अधिकारियों ने मामले की जांच के लिए बनी न्यायिक कमिशन के सामने भी कहा है। लेकिन हत्या की जिम्मेदारी माओवादियों ने ली है।

घटना के कुछ दिनों बाद माओवादी नेता सव्यसाची पंडा ने विभिन्न समाचार पत्रों को इस संबंध में साक्षात्कार दिया था। उसमें उसने यह दावा किया कि स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या माओवादियों ने की है। लक्ष्मणानंद सरस्वती की माओवादियों द्वारा क्यों हत्या की गई इसके बारे में इस साक्षात्कार में उसने कुछ अजीब तर्क प्रदान किये थे, जिसका यहां उल्लेख करना आवश्यक है। इससे चित्र और स्पष्ट हो सकता है। उसने इस साक्षात्कार में बताया कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ईसाई बन चुके हिन्दुओं की घरवापसी करवा रहे थे। इसके अलावा स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती इलाके में गौ हत्या होने नहीं देते थे।

चर्च द्वारा जनजातीय लोगों के मतांतरण करवाने पर इस साक्षात्कार में सव्यसाची ने कोई टिप्पणी नहीं की और न ही किसी पत्रकार ने उससे यह प्रश्न पूछा। उसने एक बात और बतायी कि उसके कैडरों में अधिकतर ईसाई हैं। इस कारण उनका दबाव भी था। उधर इस मामले पर नजर रखने वाले कुछ लोगों का कहना है कि चर्च से भारी पैसे लेकर माओवादियों की हत्या की है।

अब सव्यसाची के इस साक्षात्कार में कहे गये उत्तर का विश्लेषण करना होगा। सव्यसाची मूल रूप से मार्क्स के शिष्य है। मार्क्स ने कहा है कि चर्च, सर्वहारा की क्रांति में सबसे बडी बाधा है। लेकिन सव्यसाची एक और तो मार्क्स के अनुयायी होने तथा सर्वहारा की लडाई लडने का दावा कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर मार्क्स के द्वारा बताये गये सर्वाहारा के दुश्मन चर्च की सहायता भी कर रहे हैं। क्या यह नक्सलियों का वैचारिक अंतर्विरोध नहीं है? क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि नक्सली कोई वैचारिक लडाई नहीं लड रहे हैं बल्कि सर्वहारा की लडाई लडने का पाखंड कर रहे हैं।

इस्लामी आतंकवादियों का उद्देश्य भारत को दारुल इस्लाम बनाना है और चर्च का उद्देश्य भारत में प्रत्येक नागरिक के गले में शीघ्र से शीघ्र सलीव लटकाना है। नक्सलियों का दावा सर्वहारा की लडाई लडना है। इन तीनों के उद्देश्य में क्या कोई समानता है। अगर कोई समानता नहीं है तो नक्सली इस्लामी आतंकवादी व चर्च का साथ क्यों दे रहे हैं? यह एक मुख्य प्रश्न है।

इसका उत्तर शायद नक्सलवाडी आंदोलन को प्रारंभ करने वालों में से एक कानू सान्याल ने अपने मौत से पहले एक साक्षात्कार में दिया था। उन्होंने कहा था कि वर्तमान में जो नक्सलवाडी आंदोलन का जो नया संस्करण माओवाद है उसे मार्कसवादी नहीं कहा जा सकता। इसे अराजकतावादी कहा जा सकता है।

कानू सान्याल ने वर्तमान के वर्तमान के माओवादी हिंसा के बारे में स्पष्ट किया है इस आंदोलन का मार्क्स के विचारों से कोई लेना देना नहीं है। माओवादी, अराजकतावादी हैं।

अगर माओवादी वैचारिक लडाई नहीं लड रहे हैं तो फिर वे क्या कर रहे है? अब वे लोगों, व्यवसायियों, विभिन्न कंपनियों व सरकारी कर्मचारियों, ठेकेदारों से पैसे वसूली कर अपना एक तंत्र स्थापित कर चुके हैं। विभिन्न समयों पर अनेक समाचार पत्रों में इस तरह की खबर प्रकाशित होती रहती हैं कि माओवादियों का वार्षिक आय कितना है।

कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि सर्वहारा की बात कर, सुनहरे सपने दिखा कर प्रारंभ हुआ इस आंदोलन अब एक गिरोह, एक हथियारबंद मिलिशिया में तब्दील हो चुका है जिसका एक मात्र उद्देश्य हथियारों के बल पर पैसे वसूलना व अपना तंत्र चलाना रह गया है। इसलिए उन्हें इस्लामी आतंकवादियों से पैसे लेने में परबाह नहीं है और न ही चर्च से पैसे लेकर किसी संत की हत्या करने में है। लेकिन उनके इस पूरे कार्यप्रणाली में सर्वहारा गायब है जिसके लिए लडने का दावा वे करते हैं। यही सबसे बडी त्रासदी है।