समाज

कौन सुध लेगा मेहनतकशों की

-फ़िरदौस ख़ान

भारत में हर साल काम के दौरान हज़ारों मज़दूरों की मौत हो जाती है। सरकारी, अर्ध सरकारी या इसी तरह के अन्य संस्थानों में काम करते समय दुर्घटनाग्रस्त हुए लोगों या उनके आश्रितों को देर सवेर कुछ न कुछ मुआवज़ा तो मिल ही जाता है, लेकिन सबसे दयनीय हालत दिहाड़ी मज़दूरों की। पहले तो इन्हें काम ही मुश्किल से मिलता है और अगर मिलता भी है तो काफी कम दिन। अगर काम के दौरान मजदूर दुर्घटनाग्रस्त हो जाएं तो इन्हें मुआवज़ा भी नहीं मिल पाता। देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं, जिनके कमाऊ सदस्य दुर्घटनाग्रस्त होकर विकलांग हो गए हैं या फिर मौत का शिकार हो चुके हैं, लेकिन उनके आश्रितों को मुआवज़े के रूप में एक नया पैसा तक नसीब नहीं हो पाता।

दिसंबर 2005 में दिहाड़ीदार मज़दूरों के संबंध में दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के एक फ़ैसले से इस बात की ज़रूरत महसूस होने लगी है कि इन मज़दूरों के लिए भी अलग से एक क़ानून बनाया जाए, ताकि किसी अनहोनी के घटने पर उनके आश्रितों को भूखे न मरना पड़े। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में कहा है कि श्रमिक मुआवज़ा क़ानून-1923 के तहत दिहाड़ीदार मजदूर ‘श्रमिक’ की परिभाषा के तहत नहीं आते, इसलिए वे इस कानून के अंतर्गत मुआवज़ा पाने के हक़दार नहीं हैं। गौरतलब है कि 1986 में रामू पासी नामक मज़दूर को काम के दौरान अंगुली में चोट लग गई थी। इस पर उसने धनबाद की श्रम अदालत का दरवाज़ा खटखटाया, जहां से उसे 4001 रुपये का मुआवज़ा मिला। इस मुआवज़े को कम बताते हुए उसने पटना उच्च न्यायालय में अपनी याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने श्रम अदालत के फ़ैसले को सही ठहराया। इस पर उसने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई, जहां न्यायालय ने उसे मुआवज़े का हक़दार नहीं माना।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनियाभर में कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से हर साल क़रीब 22 लाख मज़दूर मारे जाते हैं। इनमें क़रीब 40 हज़ार मौतें अकेले भारत में होती हैं, लेकिन भारत की रिपोर्ट में यह आंकड़ा प्रति वर्ष केवल 222 मौतों का ही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया में हर साल हादसों और बीमारियों से मरने वालों की तादाद 22 लाख से अधिक हो सकती है, क्योंकि बहुत से विकासशील देशों में सतही अध्ययन के कारण इसका सही-सही अंदाज़ा नहीं लग पाता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक के मुताबिक़ कार्य स्थलों पर समुचित सुरक्षा प्रबंधों के लक्ष्य से हम काफ़ी दूर हैं। आज भी हर दिन कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से दुनियाभर में पांच हज़ार स्त्री-पुरुष मारे जाते हैं। औद्योगिक देशों ख़ासकर एशियाई देशों में यह संख्या ज़्यादा है। रिपोर्ट में अच्छे और सुरक्षित काम की सलाह के साथ-साथ यह भी जानकारी दी गई है कि विकासशील देशों में कार्य स्थलों पर संक्र्रामक बीमारियों के अलावा मलेरिया और कैंसर जैसी बीमारियां जानलेवा साबित हो रही हैं। अमूमन कार्य स्थलों पर प्राथमिक चिकित्सा, पीने के पानी और शौचालय जैसी सुविधाओं का घोर अभाव होता है, जिसका मज़दूरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पडता है।

हमारे कार्य स्थल कितने सुरक्षित हैं यह बताने की ज़रूरत नहीं है। ऊंची इमारतों पर चढ़कर काम कर रहे मज़दूरों को सुरक्षा बैल्ट तक मुहैया नहीं कराई जाती। पटाखा फैक्ट्रियों, रसायन कारखानों और जहाज़ तोड़ने जैसे कामों में लगे मज़दूरों सुरक्षा साधनों की कमी के कारण हुए हादसों में अपनी जान गंवा बैठते हैं। भवन निर्माण के दौरान मज़दूरों के मरने की ख़बरें आए दिन अख़बारों में छपती रहती हैं। इस सबके बावजूद मज़दूरों की सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। अगर मामला मीडिया ने उछाल दिया तो प्रशासन और राजनेताओं की नींद टूट जरूर जाती है, लेकिन कुछ वक़्त बाद फिर वही ‘ढाक के तीन पात’ वाली व्यवस्था बादस्तूर जारी रहती है।

दरअसल देशी मंडी में भारी मात्रा में उपलब्ध सस्ता श्रम विदेशी निवेशकों को भारतीय बाज़ार में पैसा लगाने के लिए आकर्षित करता है। साथ ही श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण भी वे मजदूरों का शोषण करके ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा बटोरना चाहते हैं। अर्थशास्त्री रिकार्डो के मुताबिक़ मजदूरी और उनको दी जाने वाली सुविधाएं बढती हैं तो उद्योगपतियों को मिलने वाले फायदे का हिस्सा कम होगा। हमारे देश के उद्योगपति और ठेकेदार ठीक इसी नीति पर चल रहे हैं।

फिक्की द्वारा कराए गए एक सौ से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनियों के अध्ययन के मुताबिक़ उदारीकरण से पहले पांच सालों में कंपनियों के शुध्द मुनाफ़े में 3.12 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ था, लेकिन मज़दूरी इससे आधी यानी 15.8 फ़ीसदी ही बढ़ पाई। यह कहना क़तई गलत न होगा कि ज्यों-ज्यों आर्थिक सुधार की रफ़्तार बढ़ती गई त्यों-त्यों मजदूरों की हालत भी बदतर होती गई।

आज़ादी के इतने बरसों बाद भी हमारे देश में दिहाड़ी मज़दूरों की हालत बेहद दयनीय है। शिक्षित और जागरूक न होने के कारण इस तबके की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। जब तक मज़दूर भला चंगा होता है तो वह जैसे-तैसे मज़दूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल लेता है, लेकिन दुर्घटनाग्रस्त होकर या बीमार होकर वे काम करने योग्य नहीं रहता तो उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। सरकार को चाहिए कि वह दिहाड़ी मज़दूरों को साल के निश्चित दिन रोज़गार मुहैया कराए और उनका मुफ्त बीमा करे। साथ ही उनके इलाज का सारा खर्च भी वहन करे। जब तक देश का मजदूर खुशहाल नहीं होगा तब तक देश की खुशहाली की कल्पना करना भी बेमानी है।