अतिवादी लाल, दलाल और वाम मीडिया से पिसता अवाम

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– पंकज झा

बुद्धत्व से पहले:- एक थी सुजाता। संस्कारों में पली-बढ़ी राजकुमारी। वनदेवता का पूजा करना और उन्हें पत्र पुष्पाजंलि के साथ प्रसाद समर्पित करना उसका दैनिक कार्य था। अपने इसी कार्य के सिलसिले में वो सारी पूजा सामग्री के साथ वन देवता के समर्पण को पहुंची. वहां देखती है कि एक युवक निस्तेज सा पड़ा अंतिम सांसें गिन रहा है. तन पर नाम मात्र को वस्त्र, पेट और पीठ एकाकार. बिना देर किये सुजाता ने उस युवक का परिचार करना शुरू कर दिया. अपने साथ लाये जल से उन्हें होश में लाकर वनदेवता के लिए लाये भोजन सामग्री से उसकी क्षुधातृष्टि की. बाद में पता चला कि उस युवक का नाम सिद्घार्थ है, जो महलों का राज-वैभव ठुकरा अपनी पत्नी यशोधरा को छोड़ बुद्घत्व की तलाश में निकला है. अपने साधना को कठोरतम बनाकर आज इस हालत में पहुंच गया है कि शायद कुछ देर में इसके प्राण पखेरू उड़ जाते.

तो बुद्घत्व से भी पहले सिद्घार्थ को यह ज्ञान मिला कि चाहे तपस्या ही क्यूँ ना हो, अति सर्वथा त्याज्य है. फिर उनका बुद्घत्व और मध्यमार्ग इस तरह एकाकार हो गया कि उसका अवलंबन कर संपूर्ण एशिया ज्ञान के प्रकाश से आलोकित है. इसी विचार को एक सिद्घांत का रूप दिया बुद्घ ने और अपने शिष्य आनंद को बताया कि वीणा की तार को इतना मत कसो कि वो टूट जाये, और इतना ढीला मत छोड़ो कि उससे राग ही न निकले. आशय यह कि किसी भी तरह का अतिवाद बुराई या विनाश का पहला सोपान है. हर तरह के मीमांसक चाहे वो किसी भी देश काल परिस्थिति में हो, अति को बुरा ही मानते आये हैं.एक संस्कृत श्लोक है अति दानी बलि राजा, अति गर्वेण रावण, अति सुंदरी सीता, अति सर्वत्र वर्जयेत, अंग्रेजी में भी कहा गया है एकसिस एवरीथिंग इज बैड. तो इस उद्धरण के बहाने मीडिया द्वारा अतिवादी तत्वों को दिए जा रहे प्रश्रय पर भी गौर फरमाना समीचीन होगा.

मीडिया और अतिवाद-

किसी भी तरह के अतिवाद और मीडिया पर विमर्श मुख्यतया दो बिन्दु पर की जा सकती है। पहला संप्रेषण माध्यमों के स्वयं के द्वारा फैलाया गया अतिवाद और दूसरा अतिवादी, उग्रवादी तत्वों को मंच प्रदान करना, उन्हें समर्थन देना। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद और उसके विरूद्घ चलने वाले अभियान में मीडिया की भूमिका एक ऐसा उदाहरण है जिसमें आपको दोनों तरह के अतिवाद से एक साथ परिचय होगा. आप ताज्जुब करेंगे कि देश में ऐसे भी अभागे-अभागियां हैं जो खुलेआम नक्सली प्रवक्ता बन लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न इस सबसे बड़ी चुनौती का औचित्य निरूपण के लिए अपना मंच प्रदान करता है. इस संभंध में एक विवादास्पद लेखिका के लिखे लंबे-लंबे आलेख को प्रकाशित-प्रसारित प्रकाशित करना निश्चय ही उचित नहीं है. जिन नक्सलियों ने वनवासियों का जीना हराम कर रखा हो, जहाँ युद्घ की स्थिति हो. जहां सरकार ने जनसुरक्षा कानून लगाकर नक्सली संगठन को प्रतिबंधित करने के अलावा आतंकी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार भी संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया हो, वहां बावजूद उसके आम जनमानस को किंकर्तव्यविमूढ़ हो झेलना पड़े नक्सलियों के महिमामंडल को, आखिर क्या कहा जाय इसे?

आप सोंचे, प्रचार की यह कैसी भूख? उच्छृंखलता की कैसी हद? लोकतंत्र के साथ यह कैसी बदतमीजी? बाजारूपन की यह कैसी मजबूरी जो अपने ही बाप-दादाओं के खून से लाल हुए हाथ को मंच प्रदान कर रहा है. दुखद यह कि ऐसा सब कुछ “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” के संवैधानिक अधिकार की आड़ में हो रहा है. अफ़सोस यह है कि जिन विचारों के द्वारा मानव को सभ्यतम बनाने का प्रयास किया गया था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, धर्मनिर्पेक्षता, समानता, सांप्रदायिक सद्भाव आदि शब्दों का ही दुरूपयोग कर आज का मीडिया विशेष ने इस तरह के उग्रवाद को प्रोत्साहित कर समाज की नाक में दम कर रखा है. यूँ तो राष्ट्रीय कहे जाने वाले माध्यमों के इस तरह के दर्जनों हरकतों का जिक्र कर इस तरह के अतिवाद की चर्चा की जा सकती है. परंतु नक्सलवाद के माध्यम से ही विमर्श करना इसलिए ज़रूरी है कि देश के सार्वाधिक उपेक्षित बस्तर में चल रहे इस कुकृत्य पर आजतक किसी भी बाहरी मीडिया ने तवज्जो देना उचित नहीं समझा. अभी हाल ही में 76 जवानों की शहादत के बावजूद सानिया-शोएब प्रकरण ही महत्वपूर्ण दिखा इन दुकानदारों को. कुछ मीडिया ने ज्यादा तवज्जो दी भी तो नक्सलियों के प्रचारक समूहों, वामपंथियों द्वारा पहनाये गये लाल चश्मों से देखकर ही.खास कर सबसे ज्यादा इस सन्दर्भ में अरुंधती राय द्वारा इस हमलों की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले आलेख की ही चर्चा हुई. तो सापेक्ष भाव से एक बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विमर्श और उसका विश्लेषण आवश्यक है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम माध्यमों की उच्छृंखलता

यह सच है कि मानव सभ्यता की शुरूआत से लेकर वर्तमान तक अभिव्यक्ति से सुंदर चीज आज तक नहीं हुई. ‘अभिव्यक्ति’ ही वह अधिकार है जो आपको ‘व्यक्ति’ बनाता है. यही आपको बेजूबानों से अलग भी करता है. इस स्वतंत्रता का सम्यक उपयोग ही किसी समाज के सभ्य होने की निशानी है, इसमें भी दो राय नहीं. भारतीय साहित्य में भी इसका बहुत सुंदर उदाहरण देखने को मिलता है. रामायण में सीता को हनुमान, भगवान राम का संदेश सुनाते हुए करहते हैं :-कहेहु ते कछु दुःख घटि होई, काह कहौं यह जान न कोई…. यानि तुमसे बिछडऩे का जो दुख है, वह कह देने से कुछ कम अवश्य हो जायेगा, लेकिन किसको कहूं? मानस का यह चौपाई ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्याख्या करने हेतु काफी है. जब रहीम कहते हैं कि ‘‘निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय’’ तो यह कहीं से भी तुलसी के कहे का विरोधाभास नहीं है. मतलब यह कि या तो आप अपनी अभिव्यक्तियों को कुछ मर्यादाओं के अधीन रखें अथवा चुप ही रहना बेहतर. किसी ने कहा है कि “कह देने से दुख आधा हो जाता है और सह लेने से पूरा खत्म हो जाता है”. अगर पत्रकारीय प्रशिक्षण की भाषा का इस्तेमाल करूँ तो आपकी अभिव्यक्ति भी क्या,क्यूं, कैसे, किस तरह, किसको, किस लिए इस 6 ककार के अधीन ही होनी चाहिए. इस मर्यादा से रहित बयान, भाषण या लेखन ही अतिवादिता की श्रेणी में आता है.

भारतीय संविधान ने उपरोक्त वर्णित इसी सांस्कृतिक आत्मा का इस्तेमाल कर हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है. मीडिया को इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दो खास चीज का ध्यान रखना चाहिए. जिसका अंजाने या जानबूझकर उपेक्षा की जाती है. अव्वल तो यह कि अनुच्छेद 19 (1) ‘‘क’’ किसी प्रेस के लिए नहीं है. यह आम नागरिक को मिली स्वतंत्रता है और इसका उपयोग मीडिया को एक आम सामान्य नागरिक बनकर ही करना चाहिए और उसके हरेक कृत्य को आम नागरिक का तंत्र यानि लोकतंत्र के प्रति ही जिम्मेदार होना चाहिए. लोकतंत्र, लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति सम्मान, चुने हुए प्रतिनिधि के साथ तमीज से पेश आना भी इसकी शर्त होनी चाहिए. जैसा छत्तीसगढ़ का ही एक अखबार बार-बार एक चुने हुए मुख्यमंत्री को तो ‘‘जल्लाद’’ और ‘‘ऐसा राक्षस जो मरता भी नहीं है’’ संबोधन देता था और ठीक उसी समय नक्सल प्रवक्ता तक सलाम पहुंचाकर उसे जीते जी आदरांजलि प्रदान करता था. इस तरह की बेजा हरकतों से बचकर ही आप एक आम नागरिक की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सेदार हो सकते हैं. साथ ही राज्य की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि यदि स्व अनुशासन नहीं लागू कर पाये ऐसा कोई मीडिया समूह तो उसे सभ्य बनाने के लिए संवैधानिक उपचार करें. यदि परिस्थिति विशेष में बनाये गये कानून को छोड़ भी दिया जाए तो भी संविधान ही राज्य को ऐसा अधिकार प्रदान करती है कि वह उच्छृंखल आदतों के गुलामों को दंड द्वारा भी वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र करे. उन्हें यह ध्यान दिलाये कि विभिन्न शर्तों के अधीन दी गई यह महान स्वतंत्रता आपके बड़बोलापन के लिए नहीं है, यह आपकी इच्छा का मुहताज नहीं है। जबरदस्ती ही सही, आपको इसे आत्मार्पित करना ही होगा.

आपको उसी अनुच्छेद (19) ‘‘2’’ से मुंह मोडऩे नहीं दिया जाएगा कि आप “राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, शिष्टïचार और सदाचार के खिलाफ” कुछ लिखें या बोलें. आप किसी का मानहानि करें , भारत की अखंडता या संप्रभुता को नुकसान पहुंचायें. ‘‘बिहार बनाम शैलबाला देवी’’ मामले में न्यायालय का स्पष्ट मत था कि ‘‘ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति या ऐसे भाषण देना जो लोगों को हत्या जैसे अपराध करने के लिए उकसाने या प्रोत्साहन देने वाले हों, अनुच्छेद 19 (2) के अधीन प्रतिबंध लगाये जाने के युक्तियुक्त आधार होंगे।’’ न केवल प्रतिबंध लगाने के वरन ‘‘संतोष सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन’’ मामले में न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि ‘‘ऐसे प्रत्येक भाषण को जिसमें राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देने की प्रवृत्ति हो, दंडनीय बनाया जा सकता है.’’ आशय यह कि संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ढोल पीटते समय आप उसपर लगायी गयी मर्यादा को अनदेखा करने का अमर्यादित आचरण नहीं कर सकते. इसके अलावा आपकी अभिव्यक्ति, दंड प्रक्रिया की धारा ‘499’ से भी बंधा हुआ है और प्रेस भी इससे बाहर नहीं है. प्रिंटर्स मैसूर बनाम असिस्टैण्ट कमिश्नर मामले में स्पष्ट कहा गया है कि प्रेस भी इस मानहानि कानून से बंधा हुआ है. इसके अलावा संविधान के 16 वें संसोधन द्वारा यह स्थापित किया गया है कि आप भारत की एकता और अखंडता को चुनौती नहीं दे सकते. ‘‘यानि यदि भारत और चीन का युद्घ चल रहा हो तो आपको “चीन के चेयरमेन हमारे चेयरमेन हैं’’ कहने से बलपूर्वक रोका जाएगा. हर बार आपको आतंकियों को मंच प्रदान करते हुए, उन्हें सम्मानित करते हुए, जनप्रतिनिधियों को अपमानित करते हुए, उनके विरूद्घ घृणा फैलाते हुए, नक्सलवाद का समर्थन करते हुए, अपने आलेखों द्वारा ‘‘कानून हाथ में लेने’’ का आव्हान करते हुए उपरोक्त का ख्याल रखना ही होगा। स्वैच्छिक या दंड के डर से आपको अपनी जुबान पर लगाम रखना ही होगा. मीठा-मीठा गप्प-गप्प करवा-करवा थूँ-थूँ नहीं चलेगा. संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का रसास्वादन करते हुए आपको 19 (2) की ‘‘दवा’’ लेनी ही होगी. आपको महात्मा गांधी के शब्द याद रखने ही होंगे कि ‘‘आजादी का मतलब उच्छृंखलता नहीं है. आजादी का अर्थ है स्वैच्छिक संयम, अनुशासन और कानून के शासन को स्वेच्छा से स्वीकार करना.’’

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  1. संजीव पांडेजी—आदरसहित बिनती: पढनेका कष्ट करें।
    आप:——-“क्या वे कमेंट करने वाले लोग है भी, या कंप्यूटर पर फर्जी तरीके से आ गए।”
    उत्तर: मैं निश्चित रूपसे फ़र्ज़ी नहीं हूं। मैं एक परामर्शक इंजिनीयर हूं। आप भी फ़र्ज़ी नहीं लगते।
    आप:—— “या शायद ये सारे भाजपा के सदस्य होंगे।”
    उत्तर: मै भाजपाका सदस्य नहीं हूं। न कभी रहा हूं। आप भी शायद भाजपा के सदस्य नहीं लगते।
    —–“आगे उम्मीद करेंगे कि इसी तरह के अतिसामान्य लेख आप मालेगांव बम बलास्ट, अजमेर बलास्ट, समझौता एक्सप्रेस बलास्ट पर भी लिखेंगे।”
    आप: “—-तरह के अतिसामान्य लेख आप मालेगांव बम बलास्ट, अजमेर बलास्ट, समझौता एक्सप्रेस बलास्ट पर भी लिखेंगे।”
    उत्तर: ऐसा विषयांतर ना करें। चर्चाको एक हि विषयपर केंद्रित रखें। विषय चुनाव हर लेखकका अपना अधिकार है। और फिर ऐसे तो हज़ारों विषय है जिनपर नहीं लिखा गया है।कुछ अपवादोंको छोडकर, आप जो करते हैं, उसका चयन क्यों किया यह पूछना तर्क सम्मत है; पूछा जा सकता है।
    जैसे, आप पत्रकार क्यों बने? यह सवाल ठीक है। पर, आप फिर अभिनेता, विमान चालक, या शिक्षक, क्यों नहीं बने? यह प्रश्न सामान्य रीतिसे असंगत है।

    अंतमें एक गीत याद आ रहा है।कुछ पंक्तियां ऐसी है—
    “–वह अफ़साना, जिसे अंज़ाम तक, लाना न हो मुमकीन,
    उसे एक खूबसूरत मोड देकर छोडना अच्छा।”
    —- सत्यको उद्‌घाटित करनेमें हरेक दृष्टिकोण काम आता है।(षड्‌दर्शन के ६ दृष्टिकोण होते हैं) आपका भी योगदान स्वीकार करता हूं।आपसी स्नेह और आदर बना रहे, इसलिए इस विषयपर यह मेरी अंतिम प्रतिक्रिया है।आप जिसमें विश्वास करते हैं, उस काममें डटे रहे। मेरी ओरसे धन्यवाद।

  2. माननीय पंकज जी अति सामान्य लेख पर यह गंभीर चर्चा नहीं है। एक पार्टी विशेष के इशारे पर इतिहास के उदाहरणों को गलत तरीके से पेश करने और किसी को अतिवादी कहने से चर्चा गंभीर नहीं हो सकती। जो लोग इस चर्चा में सामने आए उसमें अनिल सौमित्र को छोड़ कौन है, क्या है, पता नहीं है। क्या वे कमेंट करने वाले लोग है भी, या कंप्यूटर पर फर्जी तरीके से आ गए। या शायद ये सारे भाजपा के सदस्य होंगे। फिर आपके अतिसामान्य लेख को देख हम आगे उम्मीद करेंगे कि इसी तरह के अतिसामान्य लेख आप मालेगांव बम बलास्ट, अजमेर बलास्ट, समझौता एक्सप्रेस बलास्ट पर भी लिखेंगे। बहुत दिलचस्प बात है कि प्रवक्ता नामक इस वेबसाइट पर इस तरह के लेख देखने को नहीं मिलते। याद कीजिए बहुत साल पहले वामपंथियों ने अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए कई अखबार शुरू किए। वे अपनी विचारधारा के सामने दूसरों की विचारधारा को हीन समझते रहे। अपने अखबार को भी विचारधारा का अखबार बना लिया। पंकज जी पता है कि उन अखबारों का क्या हुआ। वे सारे अखबार रसातल में चले गए। बिहार में एक अखबार आता था जनशक्ति। उसका पता है क्या हाल हुआ। पंजाब में सीपीएम ने एक अखबार शुरू किया देशसेवक। दो हजार कापी भी नहीं बिकती। यही हाल आपके आरएसएस के मुखपत्रों का है। अखबार या वेबसाइट वस्तुपरक तथ्यों के साथ सामने आए तो बाजार में टिकते है। फिर लेखक भी सच्ची तथ्यों के साथ सामने आए तो बाजार में ज्यादा देर टिकते है। अगर एक विचारधारा के लिए लिखेंगे तो इसे पढ़ने वाले भी उसी विचारधारा के लोग होंगे। कबीर ने कहा है जाके गुरू भी आंधला चेला खरा निरंध, अंधे को अंधे ठेलिया दोन्यों कूप पड़ंत। यानि के अंधे को अंधे ठेलेगा तो परिणाम क्या होगा, दोनों कुएं में गिरेंगे। अब इस साइट पर पढ़ने वाले भी भाजपाई और लिखने वाले भी भाजपाई। तो कौन आएगा इस साइट पर। आप अपनी बीन को बजाते रहे। नक्सलियों के दो हजार करोड़ रुपये को लोभ की चर्चा आप कर रहे है। निश्चित तौर पर यह सच्चाई है। लेकिन भाजपा के नेताओं ने हजारों करोड़ रुपये के हेराफेरी जो इन इलाकों से की है उसपर आप क्यों नहीं लिख रहे है। साइकिल पर चलने वाले और चने खाने वाले भाजपा के नेताओं के पास अरबों रुपये की संपति कहां से आयी। क्या नक्सल समस्या की जड़ भाजपा नेताओं की लूट नहीं है। हम यह नहीं कहते कि कांग्रेस इस लूट मे शामिल नहीं है। इस लूट को शुरू तो कांग्रेस ने ही किया। उस परंपरा को भाजपा ने आगे बढ़ाया। पर शायद आप इस सच्चाई को नहीं लिखेंगे। क्योंकि आपकी नौकरी जा सकती है। पंकज जी लेख को आब्जेक्टिविटी में तथ्यों के आधार पर लिखे। झूठे उदाहरण देकर नहीं लिखे। मैं तो समझता था कि यह साइट वाकई में प्रवक्ता होगा। पर अब नजर आ रहा है कि यह साइट भाजपा का प्रवक्ता है और इसपर लिखने वाले भी भाजपा के प्रवक्ता है। लेकिन इससे कोई साइट नहीं चलती। कहीं वामपंथियों के अखबारों जैसा हाल न हो।

  3. तुलसी ने कहा है- ‘बंदऊ संत-असज्जन चरणा’…फिर उन्होंने कहा ‘बंदऊ प्रथम महीसुर चरणा. अतः सबसे पहले माननीय संजीव पांडे जी को कोटिशः आभार कि उन्होंने अपनी प्रतिक्रया (ओं) के द्वारा एक अति-सामान्य आलेख पर इतने गंभीर परिचर्चा को जन्म दिया. दूसरा विलम्ब से जबाब देने के लिए क्षमा सहित रवि जी के प्रश्नों का अपने समझ के अनुसार सधन्यवाद जबाब देना चाहूँगा. जी रवि जी मोटे तौर पर नक्सली भी भारतीय हैं. लेकिन वर्तमान दुनिया की सबसे कम बुरी प्रणाली के रूप में प्रतिष्ठित ‘लोकतंत्र’ प्रति युद्ध छेड़ देने के कारण उन्हें भारतीय होते हुए भी ‘भारतीय नागरिक’ नहीं कहा जा सकता. अतः एक आम नागिरक को मिले संवैधानिक अधिकार से भी उन्हें वंचित करने की ज़रूरत है. भारत के नागरिक होने की पहली शर्त यह होनी चाहिए – या शायद है भी- कि वह भारतीय संविधान में आस्था रखता हो. फिर भी यह कहा जा सकता है कि यह युद्ध एक नए तरह का महाभारत है जिसमें आपको ‘अपने’ कहे जाने वाले लोगों से ही लड़ना है. जहां तक उनके सरकार से संतुष्ट नहीं रहने की बात है तो यह स्वीकार करना चाहिए कि आजादी से अब-तक सरकारी संरक्षण में बस्तर को जम-कर लूटा गया है. और यही नक्सलवाद के पनपने का कारण भी रहा है. लेकिन आज वहां के जनसामान्य का आक्रोश नक्सलियों के लिए एक ‘उत्पाद’ की तरह है जिसकी तिजारत कर वह अपनी 2000 करोड सालाना की दुकानदारी को अंजाम देते हैं. आपके अंतिम सवाल में दुसरे सवाल का जबाब छिपा है कि जब वह अपने जैसे ही लोगों, अपनी ही पुलिस का क़त्ल करने से मही चूकते तो फिर उन्हें भारतीय नागरिक कैसे कहा जाय.बहुत धन्यवाद आपका.
    आ. मधुसूदन जी की हर प्रतिक्रया अपने-आपमें विचारों का गुच्छा होता है. बहुत अच्छी लगती है उनकी प्रतिक्रिया. याज्ञवल्‍क्‍य जी खुद वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेखकीय आचार से सम्बंधित उनकी बातें हमें प्रेरित करेगी आगे. सौरभ के उज्जवल भविष्य की कामना. नयी पौध के रूप में उनकी प्रतिक्रया उम्मीद जगाती है. मुझे भी थोड़ा अपने हिन्दी को सुधारने हेतु प्रयास करना चाहिए. भाषा दोष मुझमे भी है इसे विनम्रता पूर्वक स्वीकार करता हूं. जीत भार्गव साहब ब्लॉग जगत में एक जाना-पहचाना नाम है, उनके आह्वान से उर्जा मिलती है. उनका भी आभार. रजनीश झा जी की विभिन्न रचनात्मक क्षेत्रों में सक्रियता काबिले-तारीफ़ है. हाल ही में उनके द्वारा ‘निरुपमा प्रकरण’ पर लिखी मार्मिक कविता प्रशंसनीय है. उन्हें भी आभार. निकस जी के चुटीलेपन के लिए साधुवाद. लेकिन क्या करें परमार साहब. ‘पहलवानी’ तो करते ही रहना चाहिए. शान्ति के समय किया गया युद्धाभ्यास ही तो युद्ध के समय काम आता है. अनिल जी का फटकार अच्छा लगा. सौमित्र साहब, टिप्पणी और आलेख में उतना ज्यादा फर्क भी नहीं है. कई बार अपन टिप्पणी देने बैठते हैं लेकिन वो अपने ‘आकार’ के कारण आलेख हो जाता है. जैसा आपके लेख के सन्दर्भ में हुआ. उस पर लिखी अपनी एक क्षुद्र टिप्पणी के कारण पुनः एक आलेख लिखना पड़ा और काफी गालियाँ भी मिली कुछ तालियों के साथ-साथ. आपके लिए भी शुक्र-गुजारी. पुनीता जी आप पढ़ती रहती हैं अपना आलेख यह जानकार अच्छा लगा. सही में पढ़ना ही महत्वपूर्ण है कोई ज़रूरी नहीं होता हर बार प्रतिक्रिया देना.अपने व्यस्त समय में से आपने इस टिप्पणी के लिए समय निकाला इसके लिए आपको भी नमन. रंजना दीदी की प्रतिक्रया अपने लिए आशीष होता है . लगभग हर बार अपने छोटे भाई को प्रोत्साहन दे कर वह प्रेरित एवं अभिभूत करती रहती हैं. स्वयं वो एक अच्छी लेखिका हैं, उनका ब्लॉग पढ़ कर आनंदित होते रहता हूं. पुनः सभी का हार्दिक आभार.

  4. बहुत ही सही कहा आपने…शत प्रतिशत सहमत हूँ आपसे…
    यूँ भी आपकी चिंतन धारा मुझे बहुत प्रभावित करती है…विषय पर जिस प्रकार सारगर्भित आलेख लिखा है आपने,उसपर इससे अधिक और आगे कुछ कहने को बचा नहीं है….
    अतिवाद चाहे किसी भी क्षेत्र में हो व्यवस्था की विध्वंसक ही होती है…क्या किया जाय,जिनके हाथों राज्य की सत्ता है,लगाम लगाने का सामर्थ्य है , उन्हें अपने स्वार्थ साधने से ही फुर्सत नहीं और जिनके हाथों कलम की ताकत है,उन्होंने कबके अपने कर्तब्यों को तिलांजलि दे दी है… आमजन तो बस हर तरफ से पिसने को बाध्य हैं …ऐसे में आपका प्रयास सराहनीय और वन्दनीय है..आपके विचार केवल आपके नहीं है,बल्कि आज बहुसंख्यक जनता यही सोच रखती है इन अतिवादियों के बारे में….बाकी मेरा सुझाव यही है कि कुतर्कियों के फेर में पड़ अपनी उर्जा नष्ट न करें…

    किसी भी कार्य में महत्वपूर्ण होता है उसका उद्देश्य न कि कथ्य और तथ्य…आपने जिन प्रसंगों का उदहारण दिया वह बात को समझाने के लिए किया था,न कि आपका उद्देश्य इतिहास लिखना था,तर्क करने वाले केवल इतना समझ लेते तो फिर कोई बात बचती क्या…लेकिन जिन्हें नहीं समझना वे नहीं समझेंगे और इसलिए इसे बिलकुल भी महत्व न दें…
    अपना पुनीत प्रयास जारी रखें..
    शुभकामनाएं..

  5. पंकज जी आपका लेख मैने पढा।मीडिया की अति सक्रियता के विषय में आपके विचारों से मैं पूर्ण रुप से सहमत हूँ।जल्दबाजी और बिना किसी प्रमाण के कुछ भी लिख देने से कई बार बेकुसूर को मानसिक कष्ट उठाने पड जातें हैं ।मीडिया के कुछ तत्व बिकाऊ ज़रुर हैं पर मीडिया आज के समय का सबसे महत्त्पूर्ण सूचनातंत्र है।इसके घटते स्तर पर रोक लगाना बहुत ही ज़रुरी हो गया है।
    आपके आलेख पर की गयी टिप्पडियाँ भी मैंने पढी।व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप निकालने का ये तरीका बिल्कुल गलत है।क्या फर्क पड्ता है कि सुजाता राजकुमारी हो या गरीब? लेखक किस समस्या पर फोकस कर रहा है मेरे लिये यही जानना सही रहता है।आपने सही सवाल उठाये है।
    आपके लेख प्रवक्ता.काम पर भी पढ्ती रहतीं हूँ।व्यस्त ज्यादा रहतीं हूँ,प्रतिक्रिया नहीं दे पाती हूँ इसे अन्यथा ना लें।
    धन्यबाद।

  6. प्रिय संजीव पाण्डेय जी और पंकज झा जी,
    आप दोनों को एक लेखक के रूप में जानता हू। एक बहसबाज और टिप्पणीकार के रूप में देखकर अच्छा नहीं लगा। हालांकि मेरे अच्छा लगने न लगने से कोई फर्क नहीं पड़ता। आपलोगों के आपसी बहस से एक पाठक के रूप में आहत हूं। शायद यह अच्छा होता अगर आप लोग आपसी बहस को भी एक आलेख का रूप देते। एक पाठक तो यही चाहता है। खैर आप दोनों लेखक, पाठक और टिप्पणीकार सब कुछ बनना चाहते हैं, यह आपका विशेषाधिकर है। इंटरनेट सबको इतनी छूट तो देता ही है।
    एक पाठक की हैसियत से आप दोनों को एक सुझाव देना चाहता हूं। आप किसी भी विचारधारा, क्षेत्र, कुल-गोत्र या जाति से संबंध रखते हों आपका लिखा हुआ पढा जाता है। अच्छा लेखन के कारण। अगर आप किसी के लिखे में बाल की खाल निकालने लगेंगे, यह जानते हुए कि बाल में कोई खाल नहीं है तो हमारे जैसे पाठकों को दुःख होता है। किसी का विचार है, लिखने दीजिए। उच्चारण, वर्तनी, तथ्य, प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतों का हवाला देकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने या स्वयं को अधिक बुद्धिमान बताने से आपकी छवि-हानि ही होगी। दस्तावेजी आंकड़े अथवा जानकारी हमेशा द्धितीयक ही होंगे। लेकिन इसमें बुराई भी क्या है? आप अपनी बात आलेख के माध्यम से बता दीजिए, हम सबका फायदा होगा।
    कृपया हमारे लिखे में बिना कोई वर्तनी या व्याकरण का दोष निकाले एक पाठक की भावना समझने का कष्ट करें। यह टिप्पणी बिना आलेख पढ़े ही लिखा है, क्योंकि आप दोनों की टिप्पणियां पढ़ने में ही वक्त निकल गया।

  7. पंकज जी,
    बचपन में हम लोग सुबह सुबह कसरत करने जाया करते थे. वहां तरह तरह के लोग कसरत करते थे. कुछ नौजवान लगातार दंड पेलते दिखाई पड़ते थे. मेरे एक दोस्त ने बताया कि इन लोगों को पता नहीं कि ये क्यों इतनी मेहनत कर रहे हैं. इन लोगों ने बेवजह बॉडी बना ली है और दिन में लोगो से लड़ने के बहाने ढूंढते रहते हैं.
    आज पता नहीं क्यों यह प्रसंग याद आ रहा है.

  8. पंकज भाई,
    ये नितांत अल्प बुद्धि, और बकैती करने वाले पत्रकार हैं, जिन्हें स्वयंभू बुद्धिजीवी कहा जाता है, इस तरह कि बकैती हमारे यहाँ पान के दूकान वाला करता है, मुद्दों इस इतर भाषायी विवाद को तुल देकर इन्होने साबित किया है कि बरसात में बेंग कैसे टर्र टर्र करता है, इनके भाषाई ज्ञान पर भाई सौरभ कि टिप्पणी सबसे उपर्युक्त है
    विचारोंन्मुखी लेख के लिए साधुवाद, जारी रहिये.

  9. jha ji ! aapk likhte hai aur bahut unda likte hai, aapke vichar naxal ke bare me thoda ispast likhe to aacha lagega. ISIT NAXALS ARE WIMPIRE, next ISIT THEY ARE NOT INDIAN, next ISIT WHY THEY ARE NOT SATISFIED WITH GOVT, next WHY THEY ARE KILLING TO INDIAN POLICE AS IF THEY ALSO BELONS TO INDIA. so plz flash light on this topic. so we can write JAI HIND JAI CHATTISGHAR.

  10. @पंकज जी आपने मीडिया के अतिवादी रुख को बेनकाब किया है, जिसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं. फिलहाल मीडिया का बड़ा हिस्सा वाम और वंश की अति-पूजा में लगा है. और उसे नंगा करोगे तो जाहिर है कुछ कुतर्की सामने आयेंगे. आप इनसे विचलित होने की बजाय लिखते रहें. क्योंकि जनता जानती है की क्या सच है और क्या झूठ. आपके लेख के सन्दर्भ में कहना चाहूँगा की इन अतिवादियों के अतिवाद से ही इनकी दूकान चलती है. जाहिर है वह बौखलायेंगे. वाम और वंश ने देश के मुख्यधारा के मीडिया को जबरदस्त ढंग से अपने प्रभाव में ले रखा है. और इससे उनके हित सधते हैं. लेकिन बाकी मीडियाकर्मी क्यों उनके इशारों पर नाचते हैं? यह समझ से परे हैं…शायद किसी मीडिया घराने में मोटी तनख्वाह की नौकरी का जुगाड़ बैठ जाए!! खैर, एक अच्छे लेख के लिए दिल से धन्यवाद.

  11. संजीव जी आपने व्याकरण का हवाला दिया है। अब अपनी एक ही टिप्पणी को आप व्याकरण की कसौटी पर कस लें। (यह करवा-करवा क्या होता है।)….क्या इस वाक्य के अंत में पूर्णविराम चिन्ह लगाना ठीक है? (आप किसी पत्रिका के समाचार संपादक है।) इस वाक्य के अंत में है होना चाहिए या हैं? (कृप्या इसकी पड़ताल करे कि आपने यह गलती की है या मैं ही गलत हूं।) इस वाक्य में कृप्या होना चाहिए या कृपया?….(उतर बिहार के लोगों को मैं घोड़ा की जगह घोरा, सड़क की जगह सरक, पड़ाक की पराक बोलते सुन चुका हूं।) इस वाक्य में उतर बिहार से आपका क्या तात्पर्य है? क्या चढ़ता बिहार भी कोई क्षेत्र है क्या?

    आपकी बाकी टिप्पणियों की चर्चा की जाए तो आपकी हालत पतली हो जाएगी।

    मुझे लगता है कि बहस में आप पंकज जी से हार रहे हैं इसलिए आप विचार से दूर भाग रहे हैं और व्याकरण का सहारा ले रहे हैं। आपकी इस पलायनवादी मानसिकता पर मुझे तरस आ रहा है।

  12. प्रिय संजीव जी, प्रतिक्रिया के कई रूप होते है, लेकिन ऐसा लगता है कि, यह अजीबोगरीब प्रतिक्रिया का अंदाज है, ऐसा लगता है कि, आप विचार नहीं दे रहे है, बस बहस कर रहे है, ऐसी बहस जिसका आधार कूतर्क हो, यह सकारात्‍मक परिणाम नहीं देता। पंकज के लेख उम्‍दा है, विचारों में अंतर हो सकता है लेकिन ऐसा बेतूका विवाद सही नही है।

  13. कहा-कहाँ तक वार करेंगे संजीव बाबू. संवैधानिक बहस से शुरू हुए मामले को व्यक्तिगत आचरण तक और अब जाति से लेकर क्षेत्र तक पहुच गए. मेरे मैथिल पहचान की चर्चा करने के लिए धन्यवाद. किसी क्षेत्र-विशेष की विशेषता से हिन्दी समृद्ध ही होती है. कई उदाहरण ऐसे मिल जायेंगे आपको जिसमें आपके अपने स्थानीय मौलिकता को राष्ट्र की धारा में सम्मिलित कर देने पर एक अलग ही मिठास मिलना संभव होता है. मैं अभी छत्तीसगढ़ में हूं यहाँ सामान्यतः “पीड़ा” शब्द के बदले “पीरा” साहित्य में खूब इस्तेमाल होता है. यहाँ की एक प्रख्यात लेखिका हैं जया जादवानी जी….वे जब पानी, दुनिया आदि शब्द के साथ भी बहुवचन जैसे “पानियों, दुनियाओं” इस्तेमाल करती हैं तो पढ़ने वाले के आनंद का पारावार नहीं रहता. किसी को भी उसमें व्याकरण की त्रुटि नज़र नहीं आती. मै फिर-फिर-फिर-फिर कहूँगा कि व्याकरण से भावना महत्वपूर्ण होता है. लेकिन सामान्यतया रात के अँधेरे में/को ही देख पाने वाले उल्लू जैसे छिद्रान्वेषियों के लिए क्या कहा जाय. बहस से मूल बात तो कहाँ गायब कर दिया गया पता ही नहीं….खैर.
    अब खतरा तो ये है कि जैसे आपके अनुसार एक ही आलेख में पूरे संविधान को छाप देना चाहिए उसी तरह हर विमर्श का अंश नहीं अपितु पूरा पोथा छाप कर ही मेरे लिए कोई आलेख लिखना संभव होगा ..है ना? या हिन्दी की बात करते हुए भी यही करू. नहीं तो आप फिर यही कहेंगे कि एक उद्धरण दे कर मैं कैसे निष्कर्ष तक पहुच सकता हूं.
    बहरहाल…… अपने इस आलेख के बहाने केवल “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके अतिवाद को छत्तीसगढ़ के सन्दर्भ में” प्रस्तुत करने का मेरा एक छोटा सा प्रयास था . इसके अलावा हम इस आलेख में कम से कम अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रया नहीं देंगे ना ही चाहेंगे कि विषय से भटकाव हो. एक मात्र आलेख में जिसमें आपको केवल छिद्र ही छिद्र नज़र आया हो उस पर आप जैसे लोग क्यू अपना वक्त बर्बाद करें? मोडरेटर महोदय से इस माध्यम से भी एक बार और निवेदन कि अगर उनको लगे कि इस विषय पर बात होनी चाहिए तो अलग से परिचर्चा शुरू की जा सकती है….सादर.

  14. मीठा-मीठा गप्प-गप्प, करवा-करवा थूं-थूं। यह करवा-करवा क्या होता है। आप किसी पत्रिका के समाचार संपादक है। क्या इस शब्द का मतलब आप बताएंगे। करवा-करवा शब्द मेरी जानकारी में नहीं है। कड़वा-कड़वा शब्द की जानकारी मुझे है। कृप्या इसकी पड़ताल करे कि आपने यह गलती की है या मैं ही गलत हूं। क्या करवा-करवा शब्द का प्रयोग मैथिल में होता है। हालांकि उतर बिहार के लोगों को मैं घोड़ा की जगह घोरा, सड़क की जगह सरक, पड़ाक की पराक बोलते सुन चुका हूं। शायद आपके उपर बोलचाल की स्थानीय शब्दों का प्रभाव ज्यादा है।

  15. आदरसहित लिखता हूं।
    जो भी लिखा/छपा/विचारा जाए, वह समस्याको सुलझानेके लिए हो। उसका अंतिम लक्षित उद्देश्य समस्याका निराकरण, या न्यूनीकरण हो। शब्दोंके जालसे बाहर निकल कर अर्थ लगाया जाना चाहिए, ऐसा मैं मानता हूं।
    भारतके प्रति पत्रकार अपने आपसे हि/भी प्रामाणिक हो।
    नीतिमान व्यक्तिके मस्तिष्कमे जो विचार होता है, उसेहि जिह्वापर लाता है, और जो जिह्वापर होता है, वही कृतिमें लाता है। यह ३ जब एकाकार होते हैं, तो उस व्यक्तिको महात्माकी (बुद्धकी) नैतिक शक्ति प्राप्त होती है।
    लेबल से उपर उठकर विचार करें।
    पूरखोंने कहा था। ॥वादे वादे जायते तत्व बोधः॥, किंतु सकारात्मक दृष्टि /वृत्ति ना रही,तो फिर ॥वादे वादे जायते कंठशोषः॥ —गला सूखानेके लिए आपको समय है क्या?

  16. अतिवादी लाल दलाल वाम मीडिया में ही नहीं, दक्षिण मीडिया में भी है। दलाल तो हर मीडिया में है। चाहे वो लाल हो या भगवा या मध्यमार्गी। जो मीडिया में है दलाली कर रहा है। कोई भाजपा के सहारे दलाली कर रहा है तो कोई कांग्रेस के सहारे। कोई वाम मोर्चा के सहारे कर रहा है। पंकज जी माल किसे पसंद नहीं है। ज्यादा कुछ नहीं बोलेंगे।

    • panday ji ! i do agree……….ki paise se kalam bikti hai. har news wala ki na kisi rajneetik party ka agent hai, agar media print ho ya electronic ho, apne kartavyo ka nirwah kare to humare desh se brastachar lagbag khatam ho sakta hai. lekin ki paisa bolta hia ! media ka meaning hona chahiye : news maksad aur jariya paisa. lekin aaj ki media ka meaning hai : maksad paisa jariya paisa. aab bhai kahege ki humara bhi parivar hai, to (sai itna dijiye ja me kutumb samaya mai bhi bhuka na rahu sadhu bhi bhuka na jaye) itna to aahi jata hai phir dalali kyo? aapko aam janta padati hai, aap jo kahete hai wo GEETA ke saman hum mante hai, apni naitik jawabdari ko samajna aapka daitav banta hai. kya aise HIND ki JAI karu jis HIND me hum jaise log baste hai phir bhi JAI HIND!

  17. The authors of the articles which are published in newspapers have to be critical of the action of government in order to expose its weaknesses. Such articles tend to become an irritant or even a threat to power. Governments naturally take recourse to suppress newspapers publishing such articles in different ways. Over the years, the governments in different parts of the world have used diverse methods to keep press under control. They have followed carrotstick methods. Secret payments of money, open monetary grants and subventions, grants of lands, postal concessions, Government advertisements, conferment of titles on editors and proprietors of newspapers, inclusion of press barons in cabinet and inner political councils etc.

    Enactment of laws providing for precensorship, seizures, interference with the transit of newspapers and demanding security deposit, imposition of restriction on the price of newspapers, on the number of pages of newspapers and the area that can be devoted for advertisements, withholding of Government advertisements, increase of postal rates, imposition of taxes on newsprint, canalisation of import of newsprint with the object of making it unjustly costlier etc. are some of the ways in which Governments have tried to interfere with freedom of press. It is with a view to checking such malpractices which interfere with free flow of information, democratic constitutions all over the world have made provisions guaran 317 teeing the freedom of speech and expression laying down the limits of interference with it. lt is, therefore, the primary duty Of all the national courts to uphold the said freedom and invalidate all laws or administrative actions which interfere with it, contrary to the constitutional mandate.

  18. आपके लेख का स्टैंडर्ड देख कर ही लग गया है कि आप पचास केस तो कम बोल रहे है। आप तो राम जेठमलानी और गोपाल सुब्रहमणय को मात करने वाले लग रहे है। सोली सोराब जी भी आपके सामने बौने है। अच्छा है आप जैसे महान वकील अगर गरीबों को मिले तो उनका भला हो।

  19. जनाब चार लाइन का उदाहरण से ही पूरा जजमेंट को समझा रहे है हमें। इँडियन एक्सप्रेस वर्सेस यूनियन आफ इंडिया का जजमेंट चार लाइन का नहीं है। ये कई पेज का जजमेंट है। इसमें यह भी है कि किस तरह से स्टेट इंटरनल सिक्युरिटी, एक्सटरनल सिक्यूरिटी, विज्ञापन, इंटेलिजेंस एजेंसियों के माध्यम से प्रेस पर नियंत्रण करती है। फिर यह फैसला अखबारी कागजों पर इंपोर्ट डयूटी बढ़ाए जाने को लेकर हुए केस में आय़ा था। कैसे स्टेट प्रेस को कंट्रोल करने का बहाना बनाती है उसे भी जरा पढ़िए न। वकील तो देश में लाखों है। अगर आप हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बिना ला की डिग्री किए वकील बन गए तो कोई बड़ी बात नहीं है। हर साल देश में बीस हजार वकील बनते है। चार लाइन का उदाहऱण लिख कर पूरा जजमेंट का अर्थ मत निकाले। पहले पूरा जजमेंट पढ़ ले। फिर इतना हमें पता है कि उस जजमेंट को पढ़कर समझने में कम से कम आपको एक दिन जरूर लगेगा।

  20. बहुत मुश्किल है संजीव जी….! एक ही बात को अलग-अलग ढंग से कहा जाना कौन सा मिस-इंट्रपेटेशन हो गया. आप जिस भी सोर्स की बात करें अपना पक्ष तो महज़ इतना है ना, यही कहा है ना मैंने कि प्रेस को भारतीय संविधान ने अलग से कोई आजादी नहीं दी है. वह आम लोगों को मिले अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का ही उपयोग करता है. और यह अधिकार भी उसको आम आदमियों की तरह ढेर सारे शर्तों के अधीन मिला हुआ है. जिसमे एक महत्वपूर्ण शर्त है ऐसी कोई भी बात ना कहि जाय जिसमें राज्य को छिन्न-भिन्न करने को प्रश्रय या प्रोत्साहन मिलता हो. इस प्रतिबन्ध को ”मूल संविधान” के अनुच्छेद १९ (२) में “युक्ति-युक्त निर्बंधन” कहा गया है. तो आखिर आप प्राथमिक सोर्स इस्तेमाल करें या द्वितीयक , बात तो वही है ना. आपने भी इंडियन एक्सप्रेस का जो उदाहरण दिया जाहिराना तौर पर वह भी मूल संविधान में नहीं अपितु उसकी व्याख्या करने वाले न्यायालय द्वारा दी गयी व्यवस्था है ना. तो इसमें “सोर्स” को लेकर कोई विरोधाभास कहाँ है.?
    दूसरा सवाल भी ऐसा ही है. सुजाता, बुद्ध या आनंद या और भी कोई. जिनसे भी ये कहाया गया हो. मूल निवेदन तो यही सन्देश देना है ना कि वीणा की तार को ज्यादा या कम नहीं कसना चाहिए, मध्य मार्ग अपनाना समीचीन है. तो इन तीन बातों में आपत्तिजनक क्या है? सवाल कही से भी ज्यादा या कम विद्वान होने का नहीं है. सवाल महज़ इतना है कि जिस किसी भी ढंग से, जैसे भी बात को घुमाया-फिराया जाय बस यह तीन ही है. आपके भी किसी प्रतिक्रया से यह नहीं लग रहा है कि आप तथ्यात्मक ढंग से इसको झुठला सके हैं. बहुत खुशी होती अगर कोई प्रख्यात संविधानविद इस पूरे बहस को पढ़ रहे होते और अपनी विशेषज्ञ टिप्पणी देते. अपनी जानकारी में नेट जगत में सक्रिय दिनेश राय द्विवेदी साहब क़ानून के जानकार हैं. मोडरेटर जी से अनुरोध है कि अगर उचित समझें तो इस बहस को उन्हें अग्रसारित कर दें……बहुत आभार संजीव जी.

  21. कृप्या इतिहास को अपने हिसाब से नहीं बदले। इस देश का दुर्भाग्य है कि लोग इतिहास को अपने तरीके से लिखते है, बदलते है। आब्जेक्टिविटी नहीं रहती है। देश में वामपंथ हो या दक्षिणपंथ या सेक्यूलर सारों ने इतिहास को अपने तरीके से बदला है। फिर उनके अनुगामी उन्हीं किताबों को पढ़ आगे अपना ज्ञान झाड़ते है। आप भी शायद उन्हीं में से एक किसी के अनुगामी है। कम से कम आपके लेख को देख कर एसा ही महसूस हुआ। पंकज जी इतिहास का इंट्रपेटेशन मौलिकता के आधार पर करे तो अच्छा रहेगा। फिर तथ्यों को एकदम ही गलत तरीके से पेश करना चुभता है।
    भारतीय संविधान की आप डीडी बसु की किताब को रेफर कर रहे है। आप सुभाष कश्यप को रेफर कर रहे है। मैं आपको संविधान लिखे जाने संबंधी एक प्राइमरी सोर्स संविधान सभा डिबेट को रेफर कर रहा हूं। आपके डीडी बसु और सुभाष कश्यप के किताबों का आधार पर इसी तरह के प्राइमरी सोर्स रहे है। मेरा कहने का मतलब है कि किसी ने कुछ लिख दिया तो शत प्रतिशत नहीं है। आप अपने दिमाग का इस्तेमाल करे और उनके तथ्यों को जोड़-घटाव करे, पड़ताल करे। जबतक सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट आप नहीं पढ़ेंगे तबतक आपको सुभाष कश्यप और डीडी बसु कोई मदद प्रेस की आजादी को लेकर आपको नहीं करेंगे।

  22. जिन दो किताबों का आप उल्लेख कर रहे है वो सेकेंड्री किताब है। मैं सुप्रीम कोर्ट की जजमेंट की बात कर रहा हूं जो प्राइमरी सोर्स है। किसी की किताब पर निर्भर करने के बजाए आप प्राइमरी सोर्स पर जाए। जहां तक वियतनाम की लेखक की बात है तो आप फिर सेकेंड्री सोर्स की बात कर रहे है। भारत में पालि और अन्य भाषाओं में वास्तविक बौद्व साहित्य उपलब्ध है। उसके आधार पर आप सुजाता और बुद्व की बात करें। किसी वियतनामी लेखक की किताब पर नहीं। आप बिहार के रहने वाले है। बिहार के ही धरती है पर कई बौद्य धर्म के विद्वान लेखक है। बाहर जाने की जरूरत नहीं है। सुभाष कश्यप और डीडी बसु कमेंट्री है जो अपने आप में परिपूर्ण नहीं है। जो एक जजमेंट आज सुप्रीम कोर्ट का आता है उसे आगे खुद सुप्रीम कोर्ट बदल देता है। इसलिए आप विद्वान होने के नाते कृप्या दोनों किताबों पर निर्भर नहीं रहे। मैं दोनों किताब पढ़ चुका है। इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान की कई और किताबें पढ़ चुका हूं।

  23. https://en.wikipedia.org/wiki/Freedom_of_expression_in_India#cite_note-5
    कृपया उपरोक्त लिंक पर गौर करें जिसमे स्पष्ट कहा गया है कि :-
    The constitution of India does not specifically mention the freedom of press. Freedom of press is implied from the Article 19(1)(a) of the Constitution. Thus the press is subject to the restrictions that are provide under the Article 19(2) of the Constitution. Before Independence, there was no constitutional or statutory provision to protect the freedom of press.
    जहां तक सवाल ‘इंडियन एक्सप्रेस वर्सेस यूनियन आफ इंडिया’ मामले का है तो कृपया उस फैसले का का अंश नीचे देखें……
    Freedom of speech can be restricted only in the interests of the security of the State, friendly relations with foreign State, public order, decency or morality or in relation to contempt of court, defamation or incitement to an offence. It cannot, like the freedom to carry on business, be curtailed in the interest of the general public. If a law directly affecting it is challenged it is no answer that the restrictions enacted by it are justifiable under cls.
    क्या मैंने इससे अलग कुछ लिखा है? अगर आप चाहेंगे तो बुद्ध वाले सन्दर्भों की प्रति भी आपको स्केन करके उपलब्ध करबा दूंगा….बावजूद उसके कहना चाहूँगा कि बुद्ध की जीवनी के सम्बन्ध में बहुत से लोगों ने अलग-अलग ढंग से कल्पनाओं का सहारा लेकर भी लिखा है. तो कम से कम इस सन्दर्भ में आपका भी उद्धरण हम गलत नहीं साबित कर रहे हैं. लेकिन जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल है तो आप को काफी पढ़ना चाहिए उस मामले में. हो सके तो कुछ वकीलों से भी विमर्श करना बेहतर होगा. खाकसार को बिना वकील हुए ही निचली अदालत से लेकर उच्च न्यायालय तक और व्यक्तिगत से लेकर राज्य और केंद्र सरकार से भी करीब पचास मुकदमा लड़ने का अनुभव है ….धन्यवाद.

  24. इसके अलावा आप वरिष्ठ संविधानविद एवें लोकसभा को पूरा जीवन देने वाले सुभाष कश्यप कि किताब पर भी गौर करेंगे तो आपको मदद मिलेगी….धन्यवाद.

  25. अच्छा होता संजीव जी कि आप बाल की खाल निकालने के बदले लेख में छुपे भावनाओं पर गौर फरमाते. कई बार साहित्यिक ढंग से लिखे गए चीज़ों मे कहे जाने वाले चीज़ों पर ज्यादा गौर किया जाना चाहिए. खैर…! मैंने यह कही नहीं लिखा कि मीडिया को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं मिली हुई है. आप ही की कही गयी बातों को थोड़ा अलग ढंग से कह कर मैंने यह निवेदन किया है कि अपने यहाँ मीडिया को कोई अलग से आजादी नहीं मिली है अपितु वह आम नागरिकों को मिले इस अधिकार का ही उपयोग करता है. आपके द्वारा लिखा गया सन्दर्भ भी पढ़ कर ही मैंने अपनी यह धारणा बनायी है. इसके अलावा मुझे उम्मीद है कि आपने दुर्गा दास बासु का “भारत का संविधान” भी ज़रूर पढ़ा होगा. क्युकी जल्दबाजी में मैं कम से कम आपको मुर्ख समझने का खतरा मोल नहीं ले सकता. लेकिन एक बार अपने हार्ड डिस्क का ‘एफ ५’ बटन ज़रूर आप इस्तेमाल करे वह पुनः पढ़ें. रही बात बुद्ध के कथानक की तो कृपया वियतनाम के लेखक ‘तिक-न्यात-हंह’ की किताब जंह-जंह चरण पड़े गौतम के’ में सिद्धार्थ की जीवनी पढ़ें. आपको सुजाता का प्रसंग पूरे तौर पर समझ में आ जाएगा. मै पुनः अपनी बातों पर कायम हूं कि भारतीय संविधान कही भी अलग से प्रेस को अभिव्यक्ति की आजादी प्रदान नहीं करता. आम लोगों की मिली यह आजादी भी उसी अनुच्छेद में वर्णित “युक्ति-युक्त निर्बंधन” के अधीन है. विद्वता पूर्ण प्रतिक्रया के लिए पुनः आभार ज्ञापन.

  26. आपका इतिहास का ज्ञान भी क्षीण है। सुजाता राजकुमारी नहीं थी। वे बोधगया के मात्र आधा किलोमीटर दूरी पर स्थित गांव बकरौर की रहने वाले एक साधारण महिला थी। भगवान बुद्व से जब वो मिली थी तो बुद्व निस्तेज नहीं थे। हां उन्होंने कठिन तपस्या कर अपनी काया जरूर खराब की थी। सुजाता ने उन्हें खीर खिलाया। जिस बात का जिक्र आप आनंद के संबंध में कर रहे है वो गलत है। आनंद को कतई बुद्व ने यह नहीं कहा था। जब बुद्व कठोर तपस्सा में लीन थे, उस समय सुजाता ने बुद्व के नजदीक जाकर यह गीत गया था इस वीणा के तारों को इतना मत कसो नहीं तो वे टूट जाएंगे, इस वीणा के तारों को इतना ढीला मत छोड़ो नहीं तो वे बज नहीं सकेंगे। बुद्व ने जब सुजाता की यह वाणी सुनी तो उनका ध्यान सुजाता की तरफ गया। उसके बाद बुद्व बकरौर गांव से सिर्फ आधा किलोमीटर की दूरी पर स्थित पीपल वृक्ष के पास आकर बैठ गए। आनंद, उपाली समेत बुद्व के पांच अनुयायी उस समय तक बुद्व को छोड़ चुके थे। ये बुद्व के कठिन तपस्या से परेशान थे। लेकिन इन्हीं पांच अनुयायी को सबसे पहले बुद्व ने अपनी दीक्षा दी। यह दीक्षा उन्होंने तब दी जब वे सारनाथ के पास बुद्व से मिले। इसे बौद्व धर्म में धर्म चक्र परिवर्तन कहते है। सुजाता और भगवान बुद्व के बीच हुए वार्तालाप का साहित्यिक प्रमाण बौद्व साहित्य में मिलता है साथ ही बकरौर में अशोक काल का बनाया हुआ बौद्व स्तूप भी है, जो अभी भी सुरक्षित है। यह बौद्व स्तूप भगवान बुद्व और सुजाता के बातचीत संबंधी स्थल पर ही बना हुआ है, जो अशोक ने उनकी मौत के बाद बनवाया था।

  27. पंकज झा, कृप्या लेख लिखने से पहले अपने ज्ञान को बढ़ाए। जिस भारतीय संविधान की अनुच्छेद 19 ए मीडिया की आजादी नहीं दिए जाने की बात आप कर रहे है उसमें मीडिया की स्वतंत्रता शामिल है। आपने अपने लेख में कहा है कि 19ए में व्यक्ति की स्वतंत्रता शामिल है, मीडिया की स्वतंत्रता शामिल है। कृप्या सुप्रीम कोर्ट के उस जजमेंट को आप पढ़े जो सुप्रीम कोर्ट ने 1981 में इंडियन एक्सप्रेस वर्सेस यूनियन आफ इंडिया में दिया है। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि प्रेस की आजादी को भी अनुच्छेद 19 में ही कवर किया गया है बेशक उसमें प्रेस का जिक्र नहीं किया गया है। यह काफी डिटेल जजमेंट है जिसे आपको पढ़ना चाहिए। क्योंकि इसे पढे बिना आप इतना बड़ा ब्यान दे रहे है। दूसरी बात भारतीय संविधान सभा में मीडिया की स्वतंत्रता पर अंबेडकर ने एक भाषण दिया है जो संविधान सभा डिबेट में आप देख सकते है। उसमें अंबेडकर ने कहा है कि बेशक अमेरिका की तरह हमने मीडिया की स्वतंत्रता को अलग से भारतीय संविधान में शामिल नहीं किया है, पर मीडिया को मौलिक अधिकारों के अंदर स्वतंत्रता शामिल है। उन्होंने अपने डिबेट में कहा कि अखबारों को चलाने वाले लोग व्यक्ति या नागरिक होते है, जिसमें संपादक और जनरल मैनेजर जैसे लोग चलाते है। मीडिया में लोगों की भावना इन्हीं लोगों के माध्यम से आता है। इसलिए संविधान की धारा 19 ए में मीडिया की स्वतंत्रता शामिल है। पहले आप इंडियन एक्सप्रेस वर्सेस यूनियन आफ इंडिया का जजमेंट पढ़ ले फिर इस बात पर आपसे मैं बहस करूंगा।

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