भारत के 69वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नई दिल्ली से भाषण कर रहे थे वहीं ट्वीटर प्रदेश में कुछ अलग ही घमासान हो रहा था। हिंदी की सख्ती रोको (StopHindiImposition), यह नारा लोकप्रियता की पायदानें चढ़ रहा था। मोदी के हिंदी से लगाव की महीमा पिछले एक-डेढ़ वर्ष में पूरे देश ने देखी थी। इसलिए पहले-पहल ऐसा लगा, कि यह नारा उसी की एक तीव्र प्रतिक्रिया है। लेकिन थोडी सी खोजबीन करने पर पता चला, कि कर्नाटक के कुछ लोगों ने एकत्र आकर फेसबुक पर एक पन्ना शुरु किया था जिसके जरिए यह नारा लोकप्रिय करने का वास्ता दिया गया था। शायद इसीलिए, हैश टैग की इस फेंक में कर्नाटक से लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए दिख रहे थे।
हिंदी भाषा पूरे भारतीयों पर लदी जा रही है, स्थानीय भाषाओं को पर्याप्त अवसर नहीं मिलता, अन्य भाषीयों को दरकिनार किया जाता है, जैसे चिरपरिचित मुद्दे टैग की इस दौड में सामने आ रहे थे। कुछ लोगों ने गैस सिलिंडर तो कुछ लोगों ने रेले तिकिटों की तस्वीरें ड़ालकर बताना चाहा, कि कैसे हिंदी भाषा सबका ग्रास ले रही है। हिंदी को छोड़कर सभी प्रांतों के लोग इसमें सम्मिलित होकर निषेध प्रकट कर रहे थे। कई मराठी भाषी भी आगे आकर उसमें हिस्सा ले रहे थे और हिंदी के विरोध में अपना रोष प्रकट करते दिख रहे थे ।
हिंदी काफी तेजी से बढ़ती हुई भाषा है और उसके बहाव के आगे कई स्थानीय भाषाएं सहमी हुई दिखती है, यह बात सच है। लेकिन ‘अर्थस्य पुरूषो दासः’ यह जितना सच है उतना ही ‘अर्थस्य भाषा दासी’ भी सच है। आज स्थिति यह है, कि देश के अधिकांश होटलों के रसोईघरों में हिंदी बोली जाती है। कन्याकुमारी दक्षिण में देश का सबसे आखरी सिरा है। छह महिनों पूर्व जब मैं वहां गया था, तब बिचौलियों ने मुझे घेरकर हिंदी में ही ‘रूम चाहिए’ के प्रश्नों की बौछार की थी। आसपास के सभी होटलों पर जैन भोजन, पंजाबी थाली के बोर्ड लगे थे। इसका कारण स्पष्ट है। अधिक से अधिक लोग जहां से आते है और अधिक से अधिक जिस चीज की मांग की जाती है, उस प्रदेश का प्रभाव तो होगा ही और वर मांग पूरी करने का प्रयास तो होगा ही। जैसी मांग हो वैसी आपूर्ति, यह बाज़ार का मौलिक नियम है।
कर्नाटक के मैसूर से तमिलनाडू में ऊटी और केरल के मुन्नार की ओर यात्राएं जाती है। उन सभी बसों में गाईड और कर्मचारी कन्नड होते है लेकिन वे सटीक हिंदी बोलते है, क्योंकि वे जानते है, कि हिंदी के कारण उनका पेट भर सकता है। केवल अंग्रेजी अथवा कन्नड बोलकर मैं पेट भरूंगा, ऐसी डिंग वे नहीं मार सकते, क्योंकि भारतीय समाज की स्थिति ऐसी है ही नही।
वास्तव में हमारे संविधान में कुछ बातें केंद्र के लिए और कुछ बातें राज्यों के लिए छोड़ी है। केंद्र का कामकाज मुख्यतः हिंदी और अंग्रेजी में चलता है, इसका कोई इलाज नहीं है। हर प्रदेश की अलग अलग भाषा का प्रयोग करना चाहे, तो हम बड़ी ही आफत में फंस सकते है। उदाहरण लें, तो पुणे में रक्षा विभाग की एक दर्जन से अधिक संस्थाएं है। उन्हें मराठी में व्यवहार करना अनिवार्य करना कितना जायज़ होगा? इसके उलट डाक विभाग केंद्र के अधीन होकर भी उसके अधिकांश कागजात हर एक प्रदेश के अनुसार हिंदी/अंग्रेजी और स्थानीय भाषा में उपलब्ध कराए जाते है।
अधिकांश राष्ट्रीय बैंकों में भी तीनों भाषाओं में कामकाज चलता है। लेकिन इन बैंकों में हिंदी का अधिक प्रयोग करने की सरकारी नीति है (कम से कम संविधानिक बंधनों के कारण सरकार को यह नीति अपनानी होती है, वरना उसमें कितना उत्साह होता है, सब जानते है)। इसके अंतर्गत हर बैंके में हर दिन एक नया हिंदी शब्द लगाया जाता है। इस तख्ती को दिखाकर कोई अगर यह कहें, कि हिंदी को लादा जा रहा है, तो उसे — ही कहा जाएगा।
अलग अलग राज्यों में सहकारी बैंके और राज्य सरकार के कार्यालयों द्वारा स्थानीय भाषा में काम करना अपेक्षित है। इसी कारण हर राज्य के बिजली बोर्ड, परिवहन मंडल और राजस्व विभाग के कागज़ात संबंधित भाषाओं में होने चाहिए। अगर वे ऐसे नहीं है, तो औरों को दोष देने में क्या मतलब है? बल्कि वह हास्यास्पद अधिक होता है। महाराष्ट्र में यह दृश्य अधिकतर देखा जाता है। इसी विषय पर मैंने मराठी में लेख लिखने पर कई लोगों ने आपत्ति जताई। लेकिन मैंने कहा, कि हिंदी भाषीयों का वर्चस्व आणि हिंदी भाषा का प्रसार इसमें हमें गल्लत नहीं करनी चाहिए।
संक्षिप्त में कहा जाए, यह कुछ ऐसा है, कि मेरी कमीज़ से उसकी कमीज़ अधिक सफेद कैसे, इस प्रश्न के उत्तर में यह आग्रह किया जाए, कि उसको कमीज़ पहननी ही नहीं चाहिए।
वास्तव में त्रिभाषा सूत्र निश्चित करने के बाद इस तरह के संघर्ष होने का कोई कारण नहीं था। देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में त्रिभाषा सूत्र वर्ष 1961 में निश्चित किया गया था। इसके उपरांत वर्ष 1968 में कोठारी आयोग ने उसमें थोड़ा सुधार करते हुए अलग त्रिभाषा सूत्र बनाया। उसमें मातृभाषा अथवा प्रादेशिक भाषा को पहला स्थान था। दुसरी भाषा का स्थान गैर-हिंदी प्रदेशों में हिंदी अथवा अंग्रेजी को और हिंदी-भाषक राज्यों में किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा (खासकर दक्षिण भारतीय भाषा) का होना था। हिंदी-भाषक राज्यों में अंग्रेजी अथवा कोई भी आधुनिक भारतीय भाषा एवं गैर-हिंदी प्रदेशों में अंग्रेजी अथवा आधुनिक भारतीय भाषाओं में से कोई एक तिसरी भाषा होनी थी। लेकिन एक तरफ तमिलनाडू ने हिंदी को विरोध किया वहीं दुसरी ओर उत्तर के राज्यों ने दक्षिण भारतीय भाषाओं का स्वीकार नहीं किया। उसकी बजाय संस्कृत और उर्दू को दूसरी भाषा का दर्जा दिया गया। इसलिए भाषाओं में जो झगड़े थे वे ज्यों के त्यों रहे।
और जिस कर्नाटक राज्य में इस बासी खिर में उबाल लाया गया, वहां क्या हाल है? कन्नड के अलावा अन्य भाषा की फिल्मों के प्रदर्शन पर पाबंदी लाने के लिए वहां अब भी मांग की जा रही है। अन्य भाषाओं के धारावाहिकों और फिल्मों की डबिंग पर लगाई हुई पाबंदी इसी महिने में भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने उठाई है। बेळगाव-धारवाड में अपनी भाषा का दमन किए जाने को लेकर वहां के मराठी लोग बरसों से आंदोलन कर रहे हे।
इस आंदोलन के एक नेता किरण ठाकूर से एक बार मैं बात कर रहा था। उन्होंने बताया, कि सबसे अधिक मुश्किल उस क्षेत्र में रहनेवाले मुस्लिमों को होती है। क्योंकि उन्हें सरकारी सख्ती के कारण कन्नड सीखना पड़ता है, मराठी लोगों की बहुसंख्या होने के कारण वह भाषा सीखनी होती है, व्यावहारिक प्रयोग के लिए अंग्रेजी सीखनी पड़ती है और धार्मिक शिक्षा के लिए उर्दू भी सीखनी पड़ती है!
वास्तव में भारतीय भाषाओं के सामने असली चुनौती अंग्रेजी की है। बहुतांश भाषाओं के अखबारों अथवा मीडिया में महिने में कम से कम एक लेख अपनी भाषा के भविष्य को लेकर चिंता जतानेवाला होता है। अंग्रेजी के हाथी को हर दृष्टिहीन अपने अपने तरीके से देख रहा है और उसका दोष हिंदी पर ड़ाल रहा है, यह आज का चित्र है। तीन वर्षों पूर्व ज्ञानपीठ पारितोषिक विजेता साहित्यिक गिरीश कार्नाड ने बहुभाषिकता समाप्त होकर एक ही भाषा में (अंग्रेजी माध्यम) बच्चों को शिक्षा देने की प्रवृत्ति को आडे हाथों लिया था। उनका कहना था, कि इस पद्धति से बच्चों की बौद्धिक वृद्धि कुंठित होती है और यह कर्नाटक में ही कहा था। पुणे में मैंने एक बार उन्हें छेड़ा था तब उन्होंने इतना ही कहा था, “यह विषय काफी गहन है, लेकिन महत्त्वपूर्ण है”।
आखिर में, डा। बाबासाहब आंबेडकर द्वारा दी गई चेतावनी। बाबासाहब ने कहा था “भाषिक आधार पर बने हुए राज्य की सरकारी (अधिकृत) भाषा वही भाषा हो, तो वह आसानी से अलग राष्ट्र के रुप में पनप सकता है। स्वतंत्र राष्ट्रीयता और स्वतंत्र देश के बीच अंतर अत्यंत संकरा है।” यह और भी महत्त्वपूर्ण इसलिए है, कि अलग मराठी भाषी राज्य के निर्माण के लिए लिखे हुए दस्तावेज में उन्होंने यह मत रखा है। अतः हिंदी अगर अपने बूते आगे आ रही हो, तो इस पर असली उपाय है उसके साथ अपनी भाषा विकसित करना, न कि हिंदी के नाम दमन का रोना रोना।
देविदास देशपांडे
मैं आपकी बात से सहमत हुँ.uti,कुर्ग,मैसूर, मुन्नार ,विशाखापत्तनम, कोच्चि आदि स्थानो पर मुझे,टैक्सी वाले,होटल वाले, रिक्शावाले सभी हिंदी में बातचीत केते मिले. अभी मैं यू.के. मैं हुँ. एकदम सेंट्रल लन्दन ,या सेंट्रल लिस्टर मैं होटल,स्टोर ,वाचनालय. सिनेमा, कार के शोरूम,में हिंदी बोलनेवाले,समझनेवाले, हैं. यहां के लोगों में एक बात की समझ विकसित हो चुकी है की बिना हिंदी बोले उनका काम नहीं चलनेवाला. आपकी बात ”अर्थस्य भाषा” एकदम सही है. कर्नाटक के लोगों को यह बात समझ में आनी चाहिए की हिंदी सर्व सुलभ,सरल आसानी से समझ में आने वाली भाषा है. जिस भाषा में भी लिपि ,उच्चारण ,और बोधगम्यता होगो वह प्रचलन में होगि तथा और अधिक प्रचलित होती जाएगी.
धन्यवाद सुरेशजी
हिंदी एक प्रसरणशील भाषा है. उसका तिरस्कार करने की बजाय उसका स्वीकार करना वक्त की मांग है.
देविदास देशपांडे जी,
आपका लेख सटीक है. फिर भी मैं कुछ जोड़ना चाहता हूँ…
जैसे अपने देश में हिदी के वर्चस्व के कारण अन्य भाषा भाषी विरोध करते हैं वैसे ही अंतर्काष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हम हिंदी भाषी अंग्रेजी का विरोध करते हैं. जैसे आपने कहा – आवश्यकता अविष्कार की जननी है- धंधा पाने के लिए कन्याकुमारी वाले भी हिंदी में बोलते हैं वैसे ही विदेश में नौकरी पाने के लिए लोग अंग्रेजी पर जोर देते हैं. गाँव के बाहर न आने वाले को ग्रामीण भाषा के अलावा कुछ सीखने की जरूरत नहीं है. यह तो है एक पहलू.
दूसरा पहलू है – हम हिंदी के लिए दबाव क्यों बनाते हैं. सुविधाएं ऐसी बनाइए कि लोग हिंदी की तरफ झुकें. जैसे जरूरत ने हिंदी सीखने को मजबूर किया वैसे. हिंदी को इतनी समृद्ध बनाइए कि अंग्रेजी के बिना भी इंटरनेट के सारे काम हिंदी में हो सकें.- देखिए हिंदी पनपती है कि नहीं? लेकिमन सवाल उठता है कौन करे? हमारे देश की यही तो खासियत है. सुझाव दे सकते हैं उनका कार्यान्वयन नहीं कर सकते.
जहाँ तक तमिल और हिंदी का सवाल है इसमें सुलह होना एक राजनीतिक मसला है भाषाई नही. राजभाषा चयन समिति के प्रसंग पा सकें तो देखें. अंत में तमिल व हिंदी ही बची थीं और उनमें वोटिंग हुई – वह भी बरबरी पर ठहरी. तब अध्यक्ष नेहरू ने हिंदी के पक्ष में मत देकर विजयी बनाया. इसलिए वहाँ हिंदी के प्रति धिक्कार वोट बटोरता है. यह मामला अन्य राज्यों से अलग है. काश्मीर में भी हिंदी अधिनियम लागू नहीं होता. इनके जवाब तो राजनीतिक ही होंगे.
May I request Vidwan Shri M. R. Iyengar ji to evaluate the following article (1 of 6) on the subject of “Hindi in Tamilnadu”—-Sir I would be grateful t o you, for spending your time to read this article.
Gratefully yours
Dr. Madhusudan
https://www.pravakta.com/part-two-hindi-in-tamil-nadu-promotional-strategy-dr-madhusudan
एकदम सही कहा है, अय्यंगारजी. हिंदी को सबके लिए स्वीकार्य बनाना हम सबके लिए चुनौती है. और अन्य भाषाओं से हिंदी को भी शब्दों का स्वीकार करना होगा. जितनी जल्दी यह होगा, उतना बेहतर है.