व्यंग्य

किसकी आवाज़ बिकाऊ नहीं यहां

-अंशु शरण-

democracy

1.  अवसरवाद

लोकतन्त्र स्थापना के लिए वो हमेशा से ऐसे लड़ें,
कि उखड़े न पाये सामंतवाद की जड़ें,
इसलिए तो
लोकतंत्र के हर स्तम्भ पर पूंजी के आदमी किये हैं खड़े।
किसकी आवाज़ बिकाऊ नहीं यहाँ,
संसद से लेकर अख़बार तक,
हर जगह दलाल हैं भरे पड़े।

तो हम क्यों ना जाये बाहर,
अवसरवाद के साथ,
विचारधारा अब घर में ही सड़े।

  1. मीडिया

जुबाँ खुलने से पहले,
कलम लिखने से पहले,
अख़बार छपने से पहले ही,
बिकी हुयी है |

और इनके बदौलत ही
सरकार और बाजार की छत,
लोकतंत्र के इस स्तम्भ पर
संयुक्त रूप से
टिकी हुयी है |

3.  सारथी संपादक साहब

वैतनिक और गुलाम कलमों के सारथी संपादक साहब,
आपके इस बौद्धिक रथ पर
क्यों एक राजनैतिक वीर सवार है |
जिसने झूठ के तीरों से,
शुरू की एक ऐसी मार है,
जिसकी एक बड़ी आबादी शिकार है।
संपादक साहब,
क्या आपका राष्ट्रवादी जागरण रथ,
चाटुकारिता की रेस में दौड़ने को,
आपको राज्य सभा छोड़ने को,
तैयार है।