ईश्वर का नाम ‘सच्चिदानन्द’ क्यों व कैसे

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 ईश्वर के अनेक नामों में से एक नाम सच्चिदानन्द भी है। प्रायः हम सुनते हैं कि जयघोष करते हुए धार्मिक आयोजनों में कहा जाता कि श्री सच्चिदानन्द भगवान की जय हो। यह सच्चिदानन्द नाम ईश्वर का क्यों व किसने रखा है? इसका तात्पर्य व अर्थ क्या है? इसी पर विचार करने के लिए कुछ पंक्तियां लिख रहे हैं। सृष्टि के समग्र ऐश्वर्य का स्वामी होने के कारण इस सृष्टि के रचयिता, पालन कर्ता व संहारकर्ता को ईश्वर कहा जाता है। इस संसार में जितना भी वैभव या धन, दौलत जो ऐश्वर्य के ही भिन्न नाम है, इसका स्वामी केवल एक सृष्टिकर्ता ईश्वर है। ईश्वर के तीन प्रमुख कार्यों सृष्टि की रचना, इसका पालन व प्रलय करने के कार्यों को करने वाला तथा सृष्टि की समस्त सम्पत्ति का स्वामी वही एक ईश्वर है, यह जान लेने पर अब सच्चिदानन्द शब्द व ईश्वर के स्वरूप पर विचार करते हैं। सच्चिदानन्द मुख्यतः तीन शब्दों व पदों को जोड़कर बनाया गया है जिसमें पहला पद है सत्य, दूसरा है चित्त और तीसना पद आनन्द है। यह ईश्वर का स्वाभाविक स्वरूप अनादि काल से है व अनन्त काल अर्थात् हमेशा ऐसे का ऐसा ही रहेगा, इसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं होगा, देश-काल-परिस्थितियों का इस पर कोई प्रभाव नहीं होगा।

सत्य शब्द किसी के अस्तित्व की सत्यता को कहते हैं। ईश्वर सत्य है, यदि ऐसा कहें तो इसका अर्थ होता है कि ईश्वर का अस्तित्व वास्तविक व यथार्थ है अर्थात् सत्य है। इसका विपरीत अर्थ करें तो कहेंगे कि ईश्वर के अस्तित्व होना मिथ्या नहीं है। ऐसा नहीं है कि ईश्वर हो ही न और हम कहें कि उसका अस्तित्व इस संसार व जगत में विद्यमान व उपस्थित है। इसी प्रकार से जिन पदार्थों को भी सत्य कहा व माना जाता है उनका अस्तित्व होता है और जिनका अस्तित्व नहीं होता वह मिथ्या पदार्थ होते व कहे जाते हैं। इससे यह ज्ञात हुआ कि ईश्वर की सत्ता अवश्य विद्यमान है, यह सत्य है, झूठ नहीं है। अब दूसरे शब्द चित्त पर विचार करते हैं। चित्त का अर्थ है चेतन पदार्थ। चेतन का अर्थ है कि उसमें संवेदनशीलता है, जड़ता नहीं। ईश्वर जड़ या भौतिक पदार्थ नहीं है। वह जड़ के विपरीत चेतन गुण वाला तथा भौतिक के स्थान पर अभौतिक पदार्थ है। जड़ पदार्थों में स्वतः कोई क्रिया नहीं होती, वह चेतन की प्रेरणा या ईश्वर द्वारा निर्मित प्राकृतिक नियमों के अनुसार होती है जिन्हें भी हम ईश्वर की प्रेरणा कह सकते हैं। हम व हमारी आत्मा चेतन है, जड़ नहीं। यह मस्तिष्क जो कि हमारी आत्मा का साधन है, इसकी सहायता से सोचती है और विचार करने का सामर्थ्य सभी चेतन आत्माओं में होता है। यदि आत्मा न हो तो मस्तिष्ठ निष्क्रिय ही रहेगा। इसका कोई सकारात्मक उपयोग नहीं होगा। आत्मा न केवल मस्तिष्क अपितु शरीर के सभी अंगों व इन्द्रियों का मन व मस्तिष्क की सहायता से अपने उद्देश्य की पूर्ति में साधन रूप में उपयोग करती है। शरीर में आत्मा द्वारा पैर को इशारा या प्रेरणा करने पर पैर चलने लगते हैं, रूकने का इशारा करने पर रूक जाते हैं। ऐसी ही सब अंगों की स्थिति है। इसी प्रकार से ईश्वर भी मूल प्रकृति को प्रेरणा कर सृष्टि की रचना करते हैं और सृष्टि की अवधि पूरी होने पर इसकी प्रलय करते हैं। वह जीवात्माओं के कर्मों के साक्षी होकर उसके शुभाशुभ अर्थात पुण्य-पाप कर्मों के फल देते हैं। उन्हें सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी होने के कारण सभी जीवों के अतीत व वर्तमान के कर्मों का पूरा-पूरा ज्ञान होता है। कोई भी जीव कर्म करने के बाद उसके फल को भोगे बिना छूटता नहीं है। पुण्य कर्मों का फल सुख व अशुभ अथवा पाप कर्मों का फल दुख होता है। जन्म व मरण भी हमारे शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त होते हैं। यह था ईश्वर का चेतन स्वरूप और उस स्वरूप के द्वारा किये जाने वाले कुछ कार्य।

आनन्द भी ईश्वर का स्वाभाविक गुण है। वह आनन्द से युक्त व पूर्ण है। उसमें अपने लिये कोई इच्छा नहीं है। इच्छा का कोई उद्देश्य होता है। इच्छा तो तब हो जब कोई अपूर्णता या आवश्यकता हो। ऐसा ईश्वर में कुछ घटता नहीं है। वह सदा-सर्वदा-हर समय सुख की पराकाष्ठा से परिपूर्ण है और हमेशा रहेगा। आनन्द का गुण होने के कारण वह सदा शान्तचित्त रहता है। इसमें न क्रोध होता है, न कोई निजी कामना, न रोग, शोक और मोह अथवा राग व द्वेष। इस प्रकार से वह सदा स्थिर चित्त रहकर संसार का संचालन व पालन करता है। उसका यह आनन्द का गुण हम जीवों के लिए बहुत लाभदायक है। हम विधि पूर्वक स्तुति-प्रार्थना-उपासना करके उससे इच्छित कामनायें सिद्ध व पूरी कर सकते हैं। जीवात्मा का स्वरूप ईश्वर की तुलना में सत्य-चित्त-आनन्द की अपेक्षा सत्य-चित्त मात्र ही है। जीवात्मा में आनन्द का अभाव है। इसी कारण वह जन्म-जन्मान्तरों में सुख व आनन्द की खोज व प्राप्ति में भटकता रहता है। भौतिक पदार्थों जिनके पीछे वह भागता है, आधुनिक व वर्तमान युग में विवेकहीन होकर मनुष्य कुछ अधिक ही दौड़ लगा रहा है, उसमें क्षणिक सुख है जो कि अस्थाई है। वह ईश्वर से प्राप्त होने वाले आनन्द की तुलना में नगण्य हैं। ईश्वर व उसके आनन्द को विवेक से ही जाना जा सकता है। इसी कारण विवेकशील धार्मिक लोग धन व भौतिक पदार्थों के पीछे दौड़ने के स्थान पर ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं। यही वास्तविक धर्म-कर्म होता है। स्तुति, प्रार्थना, उपासना, यज्ञ, अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, माता-पिता-अतिथियों का सत्कार आदि से आनन्द की प्राप्ति व दुःखों से छूटने के लक्ष्य की प्राप्ति होती है। ईश्वर का आनन्द कैसे प्राप्त होता है? इसका विधान कुछ ऐसा है कि जैसे स्विच आन करने पर हमारे घरों के बल्ब जल उठते हैं वैसे ही उपासना में ईश्वर से सम्पर्क व कनेक्शन लग जाने अर्थात् ध्यान में स्थिरता व निरन्तरता आ जाने पर उसका आनन्द हमारी आत्मा में प्रवाहित होने से हमारे दुःख व क्लेश दूर होकर हम आनन्द से भरपूर हो जाते है। सिद्ध योगियों को यह आनन्द मिलता है। योग में आंशिक सफलता मिलने पर भी कम मात्रा से यह आनन्द प्राप्ति का क्रम आरम्भ हो जाता है। योगी जितना आगे बढ़ता है उतना ही अधिक आनन्द उसको प्राप्त होता है। इस प्रकार हमने ईश्वर के आनन्द स्वरूप पर भी विचार किया और कुछ जानने का प्रयास किया

अतः सत्य, चित्त व आनन्द से युक्त होने के कारण ईश्वर के प्रमुख नामों में से एक नाम सच्चिदानन्द भी है। हम आशा करते हैं कि पाठक इसे जानने के बाद ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना अर्थात् क्रियात्मक योग की ओर प्रेरित हो सकते हैं और होना भी चाहिये। यौगिक जीवन ही आदर्श मानव जीवन है। इसके विपरीत तो भोगों से युक्त जीवन ही होता है जिसका परिणाम जन्म-जन्मान्तरों के बन्धन, रोग, दुःख व अवनति का मिलना होता है। मार्ग का चयन हमारे हाथ में है। जिसे योग मार्ग अच्छा लगे वह उस पर चले और जिसे भोग मार्ग अच्छा लगे वह उस पर चल सकता है, फल देना ईश्वर के हाथ में है। प्रसिद्ध सत्य लोकोक्ति है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र आफ फल भोगने में परतन्त्र है।

मनमोहन कुमार आर्य

 

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