समय के साथ क्यों नहीं बदल सकी हिंदी पत्रकारिता ?

30 मई, हिंदी पत्रकारिता दिवस

डा विनोद बब्बर

पिछले दिनों पत्रकारिता के एक छात्र ने पूछा कि ‘1993 से अब तक कितनी बदली हिंदी पत्रकारिता ?’ जब हम पत्रकारिता के क्षेत्र में 1993 की बात करते हैं तो स्पष्ट है कि बात सूडान में पड़े अकाल और पत्रकार केविन कार्टर के बहुचर्चित चित्र ‘द वल्चर एण्ड ए गर्ल’ से है। उस चित्र में एक गिद्ध भूख से मर रही एक बच्ची के मरने का इंतज़ार कर रहा है। इस चित्र के लिए पत्रकार महोदय को पुलित्जर पुरस्कार भी मिला लेकिन उसके कुछ समय बाद मात्र 33 वर्ष की आयु के उस पत्रकार से किसी ने पूछा लिया कि ‘ आपके उस चित्र में जो लड़की है उस लड़की का क्या हुआ?’ पत्रकार महोदय बोले, ‘मुझे नहीं मालूम। क्योंकि मुझे फ्लाइट पकड़नी थी।’ इस पर प्रश्नकर्ता ने कहा, ‘ओह, इसका मतलब उस समय वहां दो गिद्ध थे। उनमें एक के हाथ में कैमरा था।’ इस बात ने पत्रकार कार्टर को अपराधबोध से ग्रस्त कर दिया कि वह अवसाद में चला गया और उसने आत्महत्या कर ली।

निश्चित रूप से संवेदनशीलता कल भी मनुष्यता की कसौटी थी और आज भी है लेकिन तब से अब तक तो बहुत कुछ बदला है। उस समय केवल एक केविन कार्टर था, आज सोशल मीडिया के माध्यम से बने स्वयंभू पत्रकार भी तो दिनभर अनेक प्रकार के चित्र फेसबुक ट्विटर इंस्टाग्राम से व्हाट्सएप तक चिपकाते रहते हैं । केविन में संवेदनशीलता शेष थी इसलिए उसे अपराधबोध हुआ लेकिन आज हम सब भी तो किसी की दुर्घटना में छटपटा रहे व्यक्ति को अस्पताल पहुंचने अथवा इसी प्रकार की प्राथमिक चिकित्सा देने की बजाय वीडियो बना रहे होते हैं। हमारी यह हृदयहीनता आज ‘उपलब्धि’ बन गई है। इस पर जब कोई प्रश्न उठता है तो हम तुनकर कहते हैं, ‘पत्रकार का काम किसी की मदद करना नहीं है’. उनका यह तर्क गलत भी नहीं है लेकिन मन में एक सवाल कुलबुला रहा है कि ‘क्या अभिनेता का काम मदद करना होता है?’ शायद नहीं। अभिनेता का काम भी अभिनय करना है तो वैश्विक महामारी कोरोना के दौरान समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को दुःखी परेशान लोगों की मदद करने की क्या जरूरत थी। बहुत संभव है हम कहें कि उन के पास पैसे थे अथवा उन्हें समाज सेवा के नाम पर राजनीति में अपने लिए स्थान सुरक्षित करना था। लेकिन क्या दुखी परेशान गरीब का दर्द बेचकर अपने समाचार पत्र अथवा चैनल की आय बढाने वालों का क्या कोई सामाजिक दायित्व नहीं होता?’

ऐसे प्रश्नों से घिरने पर ‘पत्रकार का काम समस्याओं को सामने लाना है न कि समाधान करना है?’ कहना बहुत गलत नहीं है लेकिन असाधारण संकट के समय में साधारण नियमों, परम्पराओं को दरकिनार करना मानवीय स्वभाव  है। ‘मैंने फलां समस्या के लिए फलां को ट्विट किया था।’ कहने वाले बेचारे बहुत भोले हैं इसलिए उन्हें नहीं मालूम कि अगर एक ट्विट पर समस्याओं का समाधान होने लगे तो समस्याएं ढ़ूंढ़ने पर भी नहीं मिलती। जहां बात पहुंचाई गई है वहां भी उन्हीं के भाई बंधु हैं इसलिए जिनके पास भी वहीं तर्क हैं, ‘यह समस्या हमारे नहीं, फलां विभाग से संबंधित है।‘ या ‘उचित कार्यवाही के आदेश दे दिये गये हैं’।

केवल यही क्यों, बड़े घरानों के समाचार पत्र जिनके अनेक संस्करण प्रतिदिन करोड़ों के विज्ञापन पाते हैं, वे क्या कर रहे है? वे शायद व्यापारी है पर स्वयं को ईमानदार बताने वालो को इस बात से कोई मतलब नहीं कि छोटे और मंझोले समाचार पत्र मरणसन्न स्थिति में है। किसी प्रकार की सुविधा अथवा सरकारी विज्ञापन मिलने तो दूर, उन्हें अपनी वार्षिक विवरणी ( एनुअल रिटर्न ) भरने में भी नाको चने चबाने पड़ते हैं । दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले छोटे समाचार पत्र के स्वामी को 24 घंटे के अंदर अपना ताजा अंक प्रैस सूचना कार्यालय में जमा करना आवश्यक है । छोटे और मंझोले समाचार पत्र अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं और उन्हें सुविधा के नाम पर कुछ नहीं मिलता लेकिन कानूनी बाधाओ का ढेर है।

विशेष बात यह है कि जो समाज छोटे समाचार पत्रों को विज्ञापन अथवा वार्षिक सदस्यता शुल्क देकर सहयोग करता था, वह युग अब बहुत पीछे छूट चुका है। कभी समाचार पत्रों को देशभर में पहुंचने का महत्वपूर्ण दायित्व विभाग संभालता था लेकिन अब साधारण डाक का युग लगभग समाप्त हो चुका है। केवल पंजीकृत डाक ही पहुंचाई जाती है जिसका भारी भरकम शुल्क देना छोटे समाचार पत्रों के साधारण पाठकों की क्षमता से बाहर है । उस पर सस्ते इंटरनेट पैक और हर हाथ में पहुंचे मोबाइल ने भी सामान्यजन की रुचि बदलने का काम किया है। अब लगभग हर सूचना और समाचार तत्काल मोबाइल पर ही प्राप्त हो जाते हैं इसलिए अब समाचार पत्र पढ़ने की आदत समाप्ति की ओर है । यही नहीं, आज के कुछ स्वनाम-धन्य बड़े समाचार पत्र अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए राष्ट्रहित की बलि चढ़ते हुए नहीं सोचते हैं। पहलगाम की आतंकी घटना के बाद भारतीय सेना  द्वारा पाकिस्तान को सिखाए गए सबक पर कुछ समाचार पत्र इस तरह से प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं जो व्यक्तिगत अथवा राजनीतिक विरोध से बढ़कर राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात के समान है । इसके बावजूद तथाकथित बड़े समाचार पत्र बड़ा चढ़ा कर अपनी प्रचार प्रसार संख्या दिखाते और इस झोल का मोल वसूल कर फल-फूलते हैं। 

 30 मई हिंदी पत्रकारिता दिवस इसलिए बनाया जाता है क्योंकि इसी दिन 1826 में हिंदी का पहला समाचार पत्र ‘उदन्त मार्त्तण्ड’ कोलकाता से पं. युगलकिशोर शुक्ल ने प्रकाशित किया था। इसके बाद अनेक स्थानो से पत्र- पत्रिकाएं निकली जो कुछ दिन चलने के बाद बंद होती रही लेकिन यह क्रम चलता रहा। हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में सबसे बड़ा योगदान किया है भारतेंदु हरिश्चंद्र ने। उन्होंने हरिश्चंद्र चंद्रिका, हरिश्चंद्र मैगज़ीन, कविवचन सुधा, बाला बोधिनी नाम के पत्र 1867 और 1874 के बीच में शुरू किये। उनके प्रकाशनों में प्रमुख स्वर राष्ट्रचेतना, निर्भीकता और प्रगतिशील आदर्शों का हुआ करता था। भारतीय संस्कृति के प्रसार को राष्ट्रीयता की शर्त माना जाता था। तत्पश्चात राष्ट्रीय एकता और स्वराज के लिए तथा सामाजिक कुरीतियों के विनाश तथा पश्चिमी संस्कृति की नकल के विरुद्ध कई पत्रिकाएं निकलीं लेकिन आज ‘एजेंडा पत्रकारिता’ के दौर में संस्कृति की बात करना तक अपराध हो गया है।

विदेशी शासन और संस्कृति के विरूद्ध पत्रकारिता की इस परंपरा को महामना मदनमोहन मालवीय, अमृतलाल चक्रवर्ती, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त, गणेशशंकर विद्यार्थी, बाबू श्रीप्रकाश, बाबूराव विष्णु पराडकर, माधवराव सप्रे, आचार्य नरेंद्र देव, जैसे महान संपादकों ने आगे बढ़ाया। उस समय तक पत्रकारिता एक मिशन मानी जाती थी। संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराडकर कहा करते थे, ‘सच्चे भारतीय पत्रकार के लिए पत्रकारी केवल कला या जीविकोपार्जन का साधन-मात्र नहीं होनी चाहिये। उसके लिए वह कर्तव्य-साधन की पुनीत वृत्ति भी होनी चाहिये क्योंकि अपने राष्ट्र में जन-जागृति का आवश्यक और अनिवार्य कार्य करना भारतीय पत्रकार का उत्तरदायित्व है। पत्रकार बनने से पूर्व हमे समझ लेना चाहिये कि यह मार्ग त्याग का है, जोड़ का नहीं। जिसे भोग-विलास की लालसा हो, वह और धंधे करे।’ तब राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करना पत्रकारिता की अनिवार्य शर्त थी। लेकिन आज ? पत्रकारिता के क्षेत्र में अनेक ऐसे लोगों का प्रवेश हो गया है जो अपनी दुकान चमकाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। 

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पत्रकारिता में कुछ भी सकारात्मक बचा ही न हो। उम्मीदों पर दुनिया कायम है तो हम आशा का दामन क्यों छोड़े। जो कुछ अच्छा हो रहा है उसका वंदन, अभिनंदन! आज भी अनेक ऐसे कलमकार हैं जो जनजागरण कर रहे हैं। जरूरत है उनके साथ कंधे से कंधे मिलाकर चलना अथवा दूर रहते हुए भी उनका उत्साह बढ़ाया जा सकता है।

 इतिहास साक्षी है,  प्रकृति का श्राप और कुछ नहीं अपितु व्यवस्था के पाप का फल होता है। इधर जिस तेजी से पर्यावरण नष्ट हो रहा है, परिवार टूट रहे हैं – मानवीय मूल्य रसातल में जा रहे हैं, समाज नित्य नई चुनौतियों से जूझ रहा है, समाज को जागृत करने का दायित्व हर बार पत्रकारिता संभालती रही है । दुर्भाग्य की बात यह है इलेक्ट्रॉनिक चैनल और बड़े समाचार पत्र पत्रिकाएं अपने कर्तव्य भुला चुके हैं तो दूसरी ओर व्यवस्था नित्य नए और कड़े नियम कानून की आड़ में छोटे समाचार पत्रों से वाणी और कलम छीनने पर आमादा है। आज यदि कुछ समाचार पत्र और पत्रिका प्रकाशित हो भी रही है उस दिए में तेल और पाती के स्थान पर अपनी और अपने परिवार की जरूरत को सिकोड कर निज संसाधन और जनून ही आहुति दे रहा है ! सब को खबर देने वाले की खबर आखिर कौन लेगा? महफिल का अंधेरा दूर करने के प्रयास में चिराग पे क्या-क्या बीत रही है, इसकी ख़बर रखना क्य समाज और व्यवस्था का दायित्व नहीं है?

डा विनोद बब्बर

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