राजनीति

क्यों न हो सीबीआई का दुरूपयोग

-संजय द्विवेदी

सीबीआई के दुरूपयोग को लेकर भारतीय जनता पार्टी की चिंताएं समझी जा सकती हैं। शायद इसीलिए उसके सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवानी के नेतृत्व में भाजपा सांसद पिछले दिनों संसद में गांधी जी की प्रतिमा के सामने प्रदर्शन करते नजर आए। जाहिर तौर पर भाजपा का यह कदम एक प्रतीकात्मक कदम से ज्यादा कुछ नहीं है क्योंकि जो सरकारें हैं उनका काम करने का तरीका है और वे संस्थानों, सुविधाओं और ताकत का दुरूपयोग करती ही हैं। सीबीआई के पूर्व प्रमुख जोगिंदर सिंह ने कुछ समय पहले स्वयं स्वीकार किया था कि सीबीआई का हौवा जो भी हो किंतु वह पूरी तरह स्वायत्त संस्था नहीं है और उस पर केंद्रीय गृहमंत्रालय और सरकार का सीधा हस्तक्षेप रहता है। ऐसे में सीबीआई को एक पवित्र गाय मानना और उस पर जरूरत से ज्यादा विश्वास करने का कोई कारण नहीं है। सरकारी संस्थान अंततः सरकार के तहत ही काम करते हैं यह भरोसा करना कठिन है कि स्वायत्त संस्थाएं भी अपनी स्वायत्तता कायम रख पाती है।

आप देखें तो सीबीआई अपने राजनीतिक इस्तेमाल के लिए काफी ख्यात रही है। कहा तो यहां तक जा रहा है बजट के कटौती प्रस्ताव पर मायावती, मुलायम सिंह यादव, शिबू सोरेन का समर्थन अकारण नहीं था। इसके पीछे कहीं न कहीं सीबीआई में इन नेताओं के खिलाफ मामले ही कारण हैं। सत्ता ऐसी सौदेबाजियों की अभ्यस्त होती है। कटौती प्रस्ताव पर जीत हासिल कर कांग्रेस को जो भी हासिल हुआ हो, पर ऐसी सौदेबाजियां अंततः सीबीआई जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता के क्षरण से ही फलित होती हैं। सत्ता में बने रहने के लिए सरकारें कैसी नैतिक कीमत चुकाती हैं, ये संस्थाएं और उनके प्रमुख ही उसे बेहतर बता सकते हैं। भारतीय लोकतंत्र की यह त्रासदी है कि वह संख्या गणित की कवायदों में नैतिकता की बलि चढ़ा देता है। सरकार नरसिंहराव की हो या मनमोहन सिंह की सबके सब इस हमाम में आरोपी ही हैं। राजनीति की बुनियाद इतनी खोखली है कि कोई किसी के साथ भी खड़ा हो सकता है। भ्रष्टाचार के आरोंपो सने-लदे-फंदे नेता अचानक सत्तारूढ़ दल का कृपा पाते ही परम पवित्र हो जाता है। अचानक उसके खिलाफ सक्रिय जांच एजेंसियां और पुलिस तंत्र नरम हो जाता है। यह हकीकत इतनी बार देखी और सुनी गयी है कि अब किसी भी तरह किसी सरकारी जांच एजेंसी पर भरोसे का मन नहीं होता। कानूनी विवादों, अपराधिक प्रकरणों में फंसे नेता जब कांग्रेस की साथ खड़े नजर आते हैं तो इसका कारण सिर्फ धर्मनिरपेक्षता के लिए उनकी प्रतिबद्धता एक कारण नहीं होती उसके पीछे वो दबाव भी होते हैं जो जांच एजेंसियों के माध्यम से बनाए जा सकते हैं। राजनीति यूं ही काजल की कोठरी नहीं कही जाती उसके यही प्रकट कारण हैं।

सौदे करने और राज करने की नीति ने भी सरकारी जांच एजेंसियों को खासा अविश्वसनीय बना दिया है। सीबीआई का हाल भी हमारी परंपरागत पुलिस जैसा ही है। उसके पास अपनी पीठ ठोंकने लायक प्रमाण भी नहीं है। ज्यादातर मामलों में वह चीजों को लंबा खींचने की आरोपी है और उसके तमाम दावों के बावजूद लोग उसके फंदों से बच निकलते हैं। ऐसे में हमारी परंपरागत पुलिसिंग और सीबीआई के कामकाज के तरीके में कोई ज्यादा त्वरा, गति और परिणामकेंद्रित जांच के परिणाम तो नजर नहीं आते। सीबीआई की कुल जमा उपलब्धि यही है उसके उपर अभी जनता का भरोसा कायम है। कारण यह है कि सीबीआई के पास कुछ खास मामले ही जाते है सो किसी मामले की जांच सीबीआई को सौंपा जाना ही बड़ी बात हो जाती है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है सीबीआई को जरा-जरा से मसले में उपयोग करने से बचा जाए। इससे उसके पास मामले कम होंगे और तो वह विषय को गंभीरता के साथ हल करने की सोच पाएगी। जहां तक सीबीआई के राजनीतिक दुरूपयोग की बात है उसे रोका नहीं जा सकता। कोई भी संस्था जो सरकारी तंत्र के लिए काम करती है उसका पूरी तरह निरपेक्ष हो पाना संभव नहीं होता। अंततः सरकार के अधिकारी और मंत्रियों की उपेक्षा करने का साहस सरकारी तंत्र की सेवाओं में नहीं आ पाता। नौकरी कर रहे अधिकारी अंततः अपने वर्तमान बास की अवज्ञा का साहस नहीं पाल सकते। ऐसे में कोई आर्दश कल्पना बेमानी है। नेतृत्व की इच्छा और दृढ़ता से ही ऐसी चीजें संभव हो सकती है। सरकार बचाने और समर्थन हासिल करने के लिए नरसिंहराव ने जो किया और उसकी बहुत निंदा की गयी, वही काम मनमोहन सिंह ने एक जमाने में अमर सिंह का साथ लेकर किया। आज वही काम मनमोहन सरकार ने कटौती प्रस्ताव पर किया। सो हमारे लोकतंत्र में नैतिकता के मायने लगभग चुक गए हैं, मनमोहन सिंह जैसे इमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री भी अगर लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, मायावती और शिबूसोरेन के साथ खड़े दिखते हैं तो सीबीआई को कोसने से क्या हासिल। काजल की कोठरी में सही मायने में नैतिक विमर्श अब पूरी तरह बेमानी हो चुके हैं।