राजनीति

मोदी प्रधानमंत्री नहीं तो मुलायम आखिर क्यों?

सिद्धार्थ शंकर गौतम

आम चुनाव में भले ही अभी पर्याप्त समय बचा हो किन्तु देश के भावी प्रधानमंत्री हेतु दर्जन भर नाम राजनीतिक हलकों में तैर रहे हैं। कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जिस बेरहमी से छीछालेदर हुई है उससे इतना तो तय है कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद यदि कांग्रेस सत्तासीन होती है (जिसकी संभावना हालांकि कम ही है) तो भी मनमोहन सिंह का राजनीतिक पुनर्वास सेवानिवृति की राह को प्रशस्त करेगा। वैसे कांग्रेस की ही बात करें तो पी चिदंबरम को हाल ही में मशहूर पत्रिका दी इकानोमिस्ट ने संभावित प्रधानमंत्री का तमका दे दिया है। फिर कांग्रेस के ही बड़े चेहरों में सुशील कुमार शिंदे की किस्मत भी चमक सकती है। हां इससे इतर राजनीति की थोड़ी बहुत समझ रहने वाला भी यह समझता है कि राहुल गांधी को संभावित प्रधानमंत्री के रूप में नकारने का साहस न तो चिदंबरम में है न ही शिंदे में। खैर कांग्रेस की एकल पारिवारिक राजनीति के बारे में आम जनता को कुछ बताने-समझाने की आवश्यकता नहीं है। देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी में जरूर प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षा रखने वालों की कमी नहीं है। नरेन्द्र मोदी की दावेदारी पर पूर्व में ही काफी बखेड़ा हुआ है जिसका खामियाजा भी पार्टी को उठाना पड़ा है। मोदी पर २००२ के गोधरा दंगों का दाग इतना गहरा हो चुका है कि उनकी संभावित प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर भविष्य में पार्टी भले ही एकजुट हो जाए किन्तु उसके अन्य सहयोगी दल मोदी को कटाई स्वीकार नहीं करेंगे। नीतीश कुमार का नाम इस फेहरिस्त में सबसे आगे रखा जा सकता है। इस माह होने जा रहे गुजरात विधानसभा चुनाव में भी मुख्यमंत्री कौन से अधिक भावी प्रधानमंत्री कौन की चर्चा हो रही है। फिर दोनों दलों से इतर भी कई क्षेत्रीय क्षत्रप खुद को दिल्ली की सत्ता का दावेदार बनाने की जुगत में हैं। चाहे मायावती हों या शरद पवार; सभी का एकमेव लक्ष्य प्रधानमंत्री की कुर्सी ही है। हां; क्षेत्रीय क्षत्रपों की इस सूची में मुलायम सिंह का नाम न लेना अपरिपक्वता ही है। हाल ही में कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता नारायण दत्त तिवारी ने अपने लखनऊ प्रवास के दौरान मुलायम सिंह को आशीर्वाद देते हुए कहा कि वे देश संभालें और बेटे अखिलेश को सूबे की जिम्मेदारी उठाने दें। यूं भी मुलायम की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का अंतिम निचोड़ है प्रधानमंत्री पद। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंद्र कुमार गुजराल की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी मुलायम सिंह को नकारते हुए हुई थी। इससे पहले भी मुलायम का नाम प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में प्रमुखता से लिया जाता रहा है। राजनीति के धरतीपकड़ राजनेता की छवि में राम चुके मुलायम भी दिल में प्रधानमंत्री पद की आस रखते हैं जिसे उन्होंने कभी नकारा भी नहीं है। उनकी दावेदारी अन्य क्षेत्रीय क्षत्रप से कहीं अधिक मजबूत मानी जा रही है और वर्तमान राजनीतिक गठबंधन के दौर में यह असंभव भी नहीं है। कुल मिलकर तमाम राजनीतिक कयासबाजियों को झुठलाते हुए २०१४ में कांग्रेस से राहुल, भाजपा से मोदी और संभावित तीसरे मोर्चे से मुलायम की दावेदारी पर किसी को संशय नहीं होना चाहिए। और यदि जनादेश खंडित आता है या संभावित तीसरे मोर्चे को अपेक्षाकृत अधिक सीटें प्राप्त होती हैं तो मुलायम की उड़ान कोई नहीं रोक सकता। पर मेरा सवाल यहां यह है कि यदि मोदी सांप्रदायिक हैं और तमाम राजनीतिक दल सांप्रदायिक ताकतों को रोकने हेतु कांग्रेस के साथ हो सकते हैं तो मुलायम को क्यों नहीं सांप्रदायिक कहा जाता और क्यों उनके विरोध में कांग्रेस या अन्य दल नहीं उतरते?

 

दरअसल मोदी और मुलायम में कई समानताएं हैं जो इन्हें राजनीति में काफी हद तक विवादित व्यक्तित्व बनाती हैं। मोदी के सर पर यदि मुस्लिमों के कत्ले आम का आरोप लगाया जाता है तो १९९०-९१ में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर फैजाबाद में कारसेवकों और हिन्दुओं पर गोली चलवाने वाले मुलायम पर क्यों नहीं सांप्रदायिकता का तमगा नहीं लगता? चूंकि मुलायम की राजनीति मुस्लिम-यादव गठजोड़ पर टिकी है और ये दोनों ही जातियां अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आती हैं लिहाजा यदि वे बहुसंख्यक हिन्दुओं पर गोलियां चलवाते भी हैं तो उनके सौ खून माफ़ और यही मोदी अगर कथित रूप से मुस्लिमों का नरसंहार करवाते हैं तो वे खूनी, धरती पर बोझ। मोदी हों या मुलायम; दोनों की राजनीति साम्प्रदायिता की रोटियां सेंकने से चलती है। मोदी को हिन्दुओं का समर्थन प्राप्त है तो मुलायम को मुस्लिम समुदाय अपना रहनुमा मानता है। दोनों यह बात अच्छी तरह जानते भी हैं और उन्हें अनुमान भी है कि उनकी भविष्य की राजनीति का दम-ख़म भी यही वर्ग है। उत्तरप्रदेश की सपा सरकार के ६ माह के कार्यकाल में सूबे में ९ छोटे-बड़े सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं जिनमें हिन्दुओं को निशाना बनाया गया है वहीं २००२ के बाद से अब तक गुजरात में एक भी बड़ा सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। यह साबित करता है कि मोदी और मुलायम में से कौन अधिक सांप्रदायिक है? फिर दोनों के ही औद्योगिक घरानों से निकटतम संबंध हैं। मोदी को जहां टाटा, गोदरेज, अडानी समूह का साथ मिला है तो मुलायम के पास भी सहारा, अंबानी जैसे कद्दावर समूह हैं। यानी आर्थिक पक्ष से दोनों ही काफी मजबूत हैं। दोनों की राजनीतिक सूझ-बूझ अद्भुत है और मुलायम का तो राजनीतिक समझौते करने में कोई सानी नहीं है। ऐसे में जब कोई सवाल उठाता है कि मोदी को प्रधानमंत्री आखिर क्यों बनना चाहिए जबकि उनपर तो गोधरा दंगे के दाग हैं; मैं पूछता हूं कि क्या जनता मुलायम सिंह जैसे मुस्लिम परस्त को भी देश का भावी प्रधानमंत्री पद पर देखना पसंद करेगी? यदि सांप्रदायिक होने से मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते तो मुलायम कौन से दूध के धुले हैं? उन्हें क्यों कांग्रेस इतना आश्रय दे रही है कि उनकी हसरतें कुलांचें मारने लगी हैं। मुख्य मसला भावी प्रधानमंत्री का नहीं बल्कि देश की अस्मिता का है जिसे किसी भी हाल में नकारा नहीं जा सकता।