राजनीति

प्रशांत भूषण पर ही जनमत संग्रह क्यों न करा लिया जाये ?

-राजीव रंजन प्रसाद-   bhushan prashant

यह सही है कि आम आदमी पार्टी का उदय जिस दृष्टिकोण के साथ हुआ, उसके केन्द्र में भ्रष्टाचार से त्राहि-त्राहि करते आम लोग ही हैं। आम आदमी पार्टी से लोगों की अपेक्षायें जिस तेजी से बढ़ी, उतनी ही शीघ्रता से इस पार्टी ने स्वयं को प्रसारित-प्रचारित करने वाली राजनीति को भी जन्म दिया है और किसी मंजे हुए राजनीतिक दल की तरह अब वे जन-आकांक्षाओं के साथ टॉम एंड जेरी का खेल खेलने के वरदहस्त होने लगे हैं। पानी, बिजली और जनलोकपाल जैसे मुद्दों पर दिल्ली सरकार ने जिस तरह का कार्य किया है वह केवल हड़बड़ी ही है जिसके पीछे सबसे बड़ा विजन तालियां बटोरना प्रतीत हो रहा है। अवसरवादिता यहां भी पूरे आयाम से अंगड़ाई ले रही है तथा दो वर्ष पहले तक नरेन्द्र मोदी के लिये प्रचार करने वाले कुमार विश्वास आज उन्हें चुनाव लड़ने के लिये यूं ही नहीं ललकारते, अपितु वे जानते हैं कि कवि सम्मेलनों से इतना नाम पैदा करने की गुंजाइश नहीं है जितनी राहुल गांधी या मोदी पर फिक्र करने से हासिल हो सकता है। सच यही है कि जिस तेजी से आम आदमी पार्टी पर विश्वास का गुब्बारा फूल रहा था उसे सुई चुभाने के लिये एसी ही अवसरवादिता और नामलोलुपता पर्याप्त है; खास तौर पर प्रशांत भूषण के हालिया बयान तो इस पार्टी में विचारधारा की कंगाली होने की ओर इशारा कर रहे हैं।

अब प्रशांत भूषण कहते है कि नक्सल इलाकों में सुरक्षाबलों की तैनाती पर भी रायशुमारी हो। बस्तर के संदर्भ में यही बात दूसरे तरह से पूछना क्या उचित नहीं है कि क्यों न इससे पहले इस बात पर रायशुमारी हो कि माओवादी ही नक्सल इलाकों में रहें अथवा अपने अपने गृह राज्य के लिये बोरिया बिस्तर बांधे? हाल ही में बस्तर में सक्रिय रहे माओवादी प्रवक्ता गुडसा उसेंडी ने अपने गृह प्रदेश अर्थात आन्ध्रप्रदेश में जाकर पत्नी सहित आत्मसमर्पण किया है। आन्ध्र में आत्मसमर्पण के जो कारण बताये गये वह हैं कि उस राज्य में पुनर्वास की योजना छत्तीसगढ़ से बेहतर है, अधिक धनराशि प्राप्त होती है जो ईनाम जिस नक्सली के सिर पर सरकार रखती है, वह उसे ही दे दिया जाता है आदि-आदि। कुल मिलाकर यह कि इस कथित लाल क्रांतिकारी के आत्मसमर्पण का मामला पूरी तरह पूंजी से जुड़ा हुआ है, आने वाली जिन्दगी को बेहतर जीने की ख्वाहिश से जुड़ा हुआ है। यह पहला उदाहरण नहीं है जहां किसी माओवादी नेता की गतिविधियों ने अंतत: उसे वैसी ही सुरक्षा दी हो, जैसी किसी कर्मचारी को उसका प्रोविडेंट फंड देता है। यह तो हर किसी को अहसास है कि बस्तर में लड़ने वाला नक्सल नेतृत्व वस्तुत; आन्ध्र, ओड़िशा और महाराष्ट्र की देन है। साथ ही उसे बैद्धिक समर्थन दिल्ली का शातिर दिमाग देता है। बस्तर की तबाही के गीत गाते रहिये, नष्ट कर दीजिये यहां की आदिवासियत, आम जन की मासूमियत, उसका अस्तित्व, उसकी संस्कृति, उसकी कला, उसकी विरासतें, उसकी गीत, अभिव्यक्ति भी क्योंकि आप यह दावा करते हैं कि सारी दुनियां की सोच समझ तो आपकी ही आती है? क्या यह नहीं होना चाहिये कि जनता से ही राय ली जाये कि राजनीति करने वाले वकील बंधु चुनाव भी क्यों लड़ें ? क्या यह नहीं होना चाहिये कि बस्तर के आदिवासी जनमत संग्रह द्वारा बतायें कि कितने लोग प्रशांत भूषण को जानते भी हैं; कितनों ने उन्हें बस्तर जैसे इलाकों में देखा है; काम करने न भी देखा हो तो भी यहां की भौगोलिक और राजनीतिक अवस्थितियों की टोह लेते ही देख लिया है? माओवादियों के लिये कानूनी लड़ाई लड़ना प्रशांत भूषण के प्रोफेशन का हिस्सा है और इससे किसी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिये किंतु बस के ड्राईवर को मेकेनिकल इंजीनियर होने की गलफहमी भी हो जाये तो बात चिंतनीय हो जाती है। आम आदमी पार्टी से मोह भंग होने की स्थितियों को उसके प्रशांत भूषण जैसे नेता ही पैदा कर रहे हैं।

दिल्ली से जब कोई बात आती है तो उसमे अपने किस्म की प्रतिध्वनि भी सन्निहित होती है। तीन चार बड़े शहरों जितने बड़े क्षेत्रफल वाला राज्य जहां का मुख्यमंत्री चाहे तो अपनी वेगनआर कार में एक ही दिन में पूरे शासित क्षेत्र के दो-तीन चक्कर लगा सकता हो, वह शेष भारत में सभी घटनाओं और अवस्थितियों से बड़ी और रोज रोज की खबर बन गया जबकि इस बीच में दक्षिण भारत में दो बड़ी रेल घटनायें हुईं जिसमें अनेक लोग जिन्दा जल गये, यह चर्चा आवश्यक नहीं समझी गयी। बात अगर नक्सली क्षेत्रों की है तो इसी दौर में दो बडी घटनायें बस्तर में हुईं। पत्रकार साईं रेड्डी की हत्या के विरोध में देशभर से अनेक पत्रकार बासागुडा में इकट्ठे हुए और अनावश्यक हत्याओं के विरोध में नक्सलियों के विरुद्ध प्रदर्शन किया। यह एक बहुत बड़ी खबर होनी चाहिये थी और इसे केन्द्र में रखकर यदि संचार माध्यम विमर्श खड़ा करते तो सकारात्मक बहस का जन्म होता, किंतु एसा हुआ नहीं। पुन; आगामी 26 जनवरी को छत्तीसगढ़ के अनेक पत्रकार ओरछा से आरंभ कर नक्सलगढ़ अबूझमाड के भीतर पदयात्रा करने जा रहे हैं; यह भी एक दुस्साहसी, सहाहनीय और विमर्श योग्य कदम है। यह बताता है कि स्थानीय पत्रकार नक्सलवाद के हर पक्ष को ही खबर नहीं बनाते, अपितु वे अभिव्यक्ति की उस स्वतंत्रता के लिये भी वचनबद्ध हैं जिसका हनन व्यवस्था अथवा माओवादी चाहे जिस भी पक्ष द्वारा किया जा रहा हो। एसा क्यों है कि इतनी बड़ी घटना पर घटाटोप मौन धारण किया गया है जबकि प्रशांत भूषण का जनमत संग्रह वाला बयान अखबारों के मुखपृष्ठ की खबर है? गुडसा उसेंडी का आत्मसमर्पण भी मुख्यधारा की मीडिया में बड़ी-बड़ी चर्चायें मांगता है, चूंकि इस घटना को देख, जान और समझकर संभव है, अनेक उन युवाओं का दिवास्वप्न टूट जाये जो माओवाद को क्रांति मानते आये हैं। क्या यह माना जाये कि संचार माध्यम खबरों का विश्लेषण करना भूल चुके हैं? क्या यह माना जाये कि संचार माध्यमों को एसा झुनझुना ही खबर के रूप में चाहिये जिसका राजनीति में वैसा ही महत्व है जितना खाने में चटनी का?

प्रशांत भूषण के बयान को अब गंभीरता से लिया जाना चाहिये, क्योंकि यह एक ऐसे नेता का बयान है जो दिल्ली राज्य के बाद देश की राजधानी दिल्ली पर अपनी सत्ता का सपना सजो रहे हैं। यह एक राजनीतिक दल की महत्वपूर्ण समस्याओं को लेकर दृष्टि है, उसकी विचारधारा है। प्रशांत भूषण ने यह भी कहा है कि माओवादियों का आआपा में स्वागत है। माओवादियों का मुख्यधारा में आना कोई बड़ी या नयी बात नहीं होगी; नेपाल इस प्रयोग से गुजर चुका है किंतु यह साफ होना चाहिये कि प्रशांत भूषण ने केवल अंधा बयान नहीं दिया है और यह केजरीवाल समेत सभी आआपा नेताओं की भी सोच है। यदि आआपा को लगता है कि प्रशांत भूषण ने एक बार फिर निजी बयान दिया है जिसका पार्टी की अब तक सामने न आयी, विधारधारा से कोई लेना-देना नहीं है तो क्यों मेरा सुझाव है कि पार्टी द्वारा प्रशांत भूषण पर ही जनमत संग्रह क्यों न करा लिया जाये ?