चीन से निकटता के चलते क्या संयुक्त राष्ट्र में बदलेगी भारत की भूमिका ?

संदर्भ- एससीओ घोषणा-पत्र में पहलगाम हमले की निंदा के बाद संयुक्त राष्ट्र में भारत की भूमिका

प्रमोद भार्गव

 षंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन के बाद वैश्विक व्यवस्था में बदलाव का अनुभव किया जा रहा है। दुनिया एक नए षीतयुद्ध की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। निर्मित होती इस नई स्थिति में अमेरिका और उसके सहयोगी एक तरफ हैं, वहीं ब्रिक्स जैसे समूह दूसरी तरफ। इधर रूस, भारत और चीन एक मजबूत नए गठबंधन की ओर बढ़ रहे हैं। इसी का परिणाम रहा कि एससीओ में जारी संयुक्त घोशणा पत्र में पाकिस्तान की मौजदूगी में भारत में हुई आतंकी घटना पहलगाम हिंसा के जिम्मेदारों को सजा दिलाने पर मोहर लगना, भारत की एक बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि है। पहलगाम हमले की निंदा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की उपस्थिति में की गई। इस घटनाक्रम को जहां पाकिस्तान की फजीहत के रूप में देखा जा रहा है, वहीं अमेरिकी अखबारों ने डोनाल्ड ट्रंप को भारत, अमेरिका संबंधों में दरार डालने वाले खलनायक के रूप में पेश किया गया है। चूंकि यह सम्मेलन चीन में संपन्न हुआ है, इसलिए चीन को नई विश्व व्यवस्था के सूत्रधार के रूप में देखा जा रहा है। बावजूद क्या यह मान लिए जाए कि चीन और भारत के बीच सुधरते संबंधों के आईने में भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में सदस्यता दिलाने में वह सहयोगी बनेगा ?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के तियानजिन में आयोजित हुए एससीओ के वार्षिक शिखर सम्मेलन में पहलगाम में हुए भयावह आतंकवादी हमले को भारत की अंतरात्मा पर आघात बताने के साथ, इसे विश्व बंधुत्व एवं मानवता में विश्वास रखने वाले प्रत्येक राष्ट्र के लिए एक खुली चुनौती भी माना। मोदी ने आतंकवाद से निपटने में दोहरे मापदंड त्यागने की जोरदार पैरवी की। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री षहबाज षरीफ, चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग और अन्य वैश्विक नेताओं की उपस्थिति में मोदी ने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई मानवता के प्रति हमारा कर्त्तव्य हैं। याद रहे पाकिस्तान आतंकवाद का जनक होने के साथ उसका सबसे बड़ा समर्थक देश है। अब तक चीन पाकिस्तान का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन करता रहा है। चीन ने कथित तौर से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान में स्थित लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के पांच आतंकवादियों पर प्रतिबंध लगाने की उन्हें वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के भारतीय प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था। हालांकि कुछ समय पहले पाकिस्तान में मौजूद लश्कर के आतंकवादियों के मुखौटा संगठन द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) को अमेरिका द्वारा वैश्विक आतंकवादी संगठन घोषित किया था। इसे चीन ने भी सही ठहराया था। बावजूद चीन संयुक्त राश्ट्र की सदस्यता या सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्यता लेने में सबसे बड़ी बाधा है। क्योंकि चीन स्वयं सुरक्षा परिशद् का स्थायी सदस्य है। इस कारण वैश्विक मंच पर अपने बीटो पावर का उपयोग भारत के विरुद्ध करता रहा है। 2016 में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश को रोकने में चीन की यह ताकत भारतीय विदेश नीति के विस्तार में एक बड़ी बाधा रही है। चीन के पास सुरक्षा परिशद् के पांच सदस्यों में से एक के रूप में बीटो षक्ति है, अब तक इसका उपयोग वह संयुक्त राश्ट्र में भारत के सदस्य बनने से लेकर क्रूर आतंकियों को वैश्विक आतंकी घोशित करने के प्रस्तावों को भी रोकता रहा है। क्योंकि भारत का बढ़ता वैश्विक प्रभाव चीन के वर्चस्व को चुनौती देता रहा है। चीन को यह वर्चस्व इसलिए खलता है, क्योंकि वह एशिया में अपना प्रभुत्व बनाए रखना चाहता है। एशिया में भारत ही ऐसा देश है, जो चीन के सामानांतर न केवल चौथी अर्थव्यवस्था बन गया है, बल्कि सामरिक षक्ति से लेकर अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भी अपनी धाक जमा रहा है। भारत और चीन के बीच गाढ़ी होती मित्रता में चीन के साथ भारत के सीमा विवाद और अन्य भू-राजनीतिक मुद्दे गौण होते दिख रहे हैं, इसी कारण उम्मीद जगी है कि अब चीन संयुक्त राश्ट्र की सदस्यता में भारत का रोड़ा न बने।  
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन कर चुके हैं। साथ ही संयुक्त राष्ट्र निकाय के विस्तार की भी मैक्रों ने वकालात की थी। जर्मनी, जापान, भारत और ब्राजील को परिषद का स्थायी सदस्य होना चाहिए। भारत की दलील है कि 1945 में स्थापित 15 देशों की सुरक्षा परिषद् 21वीं सदी की लक्ष्यपूर्तियों के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें समकालीन भ-राजनीतिक वास्तविकताओं का प्रतिबिंब दिखाई नहीं देता है। वर्तमान में सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी सदस्य और 10 अस्थायी सदस्य देश शामिल हैं। जिन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा दो साल के कार्यकाल के लिए चुना जाता है। परंतु पांच स्थायी सदस्य रूस, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और अमेरिका हैं, इनमें से प्रत्येक देश के पास ऐसी शक्ति हैं, जो किसी भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर वीटो लगा सकता है। भारत 2021-22 में संयुक्त राष्ट्र की उच्च परिषद् में अस्थायी सदस्य के रूप में चुना गया था। किंतु दुनिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उससे निपटने के लिए स्थायी सदस्यों की संख्या दुनिया का हित साधने के लिए बढ़ाई जानी चाहिए। इसीलिए मैक्रों को कहना पड़ा था कि ‘सुरक्षा परिशद् के काम काज के तरीकों में बदलाव, सामूहिक अपराधों के मामलों में बीटो के अधिकार को सीमित करने और षांति बनाए रखने के लिए जरूरी फैसलों पर ध्यान देने की जरूरत है। अतएव जमीन पर बेहतर और बेहिचक तरीके से काम करने की दृश्टि से दक्षता हासिल करने का समय आ गया है। दरअसल मैक्रों की यह टिप्पणी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 22 सितंबर 2024 को ‘भविश्य के शिखर सम्मेलन‘ को संबोधित करने के कुछ दिन बाद आई थी इसमें मोदी ने इस बात पर जोर दिया था कि वैश्विक शांति और विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार आवश्यक हैं। उन्होंने कहा था कि सुधार प्रासंगिकता की कुंजी है। वाकई इस समय संस्थाएं अपनी प्रासंगिकता खोती दिखाई दे रही है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने 15 सदस्य देशों की सुरक्षा परिषद् को भी पुरानी व्यवस्था का हिस्सा बताकर आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि अगर इसकी संरचना और कार्य प्रणाली में सुधार नहीं होता है तो इस संस्था से दुनिया का भरोसा उठ जाएगा।  
दूसरे विश्व-युद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का गठन हुआ था। इसका अहम् मकसद भविश्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीशिका और आतंकवाद से सुरक्षित रखना था। इसके सदस्य देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त है। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की अनुकंपा से सुरक्षा परिशद् का सदस्य बना था। कांग्रेस नेता और संयुक्त राष्ट्र में अवर महासचिव रहे शशि थरूर की किताब ‘नेहरू-द इन्वेंशन ऑफ इंडिया‘ में थरूर ने लिखा है कि 1953 के आसपास भारत को संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था। लेकिन उन्होंने चीन को दे दिया। थरूर ने लिखा है कि भारतीय राजनयिकों ने वह फाइल देखी थी, जिस पर नेहरू के इंकार का जिक्र है। नेहरू ने ताइवान के बाद इस सदस्यता को चीन को दे देने की पैरवी की थी। अतएव कहा जा सकता है कि नेहरू की भयंकर भूल और उदारता का नुकसान भारत आज तक उठा रहा है। जबकि उस समय अमेरिका भारत के पक्ष में था। अब देखना होगा कि बदलते परिदृश्य में चीन भारत के प्रति किस तरह का आचरण अपनाता दिखाई देता है ?

प्रमोद भार्गव

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