एक समय उत्तरप्रदेश को कांग्रेस का अभेद्य गढ़ कहा जाता था| लम्बे समय तक गाँधी-नेहरु परिवार की स्वाभाविक सत्ता का केंद्र भी उत्तरप्रदेश ही रहा है| स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व.पं. जवाहरलाल नेहरु से लेकर प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी; प्रथम महिला राज्यपाल ( उत्तरप्रदेश ) सरोजिनी नायडू से लेकर प्रथम मुख्यमंत्री ( उत्तरप्रदेश ) गोविन्द वल्लभ पंत तक सभी ने प्रदेश में कांग्रेसी दबदबे को साबित किया है| मगर १९८९ के बाद से राज्य की जनता का कांग्रेस से ऐसा मोह भंग हुआ कि वह अब तक अपना पुराना मुकाम और वर्चस्व पाने हेतु संघर्षरत है| वर्तमान में सोनिया गाँधी तथा राहुल गाँधी संसद में उत्तरप्रदेश के क्रमशः रायबरेली और अमेठी का प्रतिनिधितित्व करते हैं मगर पूरे प्रदेश की जनता के बीच उनकी छवि सर्वमान्य नहीं है| सोनिया गाँधी को जहां प्रदेश की समझ नहीं है वहीं युवराज प्रदेश राजनीति के मामले में अपरिपक्व ठहराए जाते हैं| कहा जाए तो कांग्रेस के पास वर्तमान में एक भी ऐसा करिश्माई नेतृत्व नहीं है जो राज्य में कांग्रेस को उसकी खोई ज़मीन हासिल करवा सके| वैसे राज्य में लम्बे समय तक कांग्रेस की सत्ता न होने का एक कारण कांग्रेसी नेताओं की आपसी नूरा-कुश्ती तथा उनका विरोधाभासी चरित्र भी होना है| चमचामूलक संस्कृति और चरण-चारण की सभ्यता जितनी कांग्रेस में है, देश की किसी पार्टी में नहीं|
हाल ही में उत्तरप्रदेश कांग्रेस के नेताओं का विरोधाभासी चरित्र पुनः देखने को मिल रहा है| एक ओर तो कांग्रेसी राहुल गाँधी को देश का भावी प्रधानमंत्री तक साबित करने में कोई कोताही नहीं बरतते मगर जब बात स्वयं के हित की आती है तो यही कांग्रेसी “प्रियंका लाओ-कांग्रेस बचाओ” का नारा लगाने से भी नहीं चूकते| अमेठी में राहुल की जनसभा में एक कांग्रेस कार्यकर्ता ने तो यह कहने से भी गुरेज नहीं किया था कि यदि उत्तरप्रदेश जीतना है तो प्रियंका को चुनावी परिदृश्य में आगे लाना होगा| यही कारण है कि प्रदेश में होने जा रहे चुनाव के मद्देनज़र राहुल गाँधी के साथ ही कांग्रेस नेताओं में प्रियंका गाँधी को स्वयं के चुनाव क्षेत्र में लाने की होड़ सी लग गई है| यानी अब प्रियंका को भी प्रदेश में कांग्रेस और अपने परिवार की नाक बचाने चुनावी रण में प्रचार हेतु उतरना पड़ेगा| इससे पहले प्रियंका अमेठी और रायबरेली में लोकसभा चुनाव की कमान संभाल चुकी हैं| यह पहला मौका होगा जब प्रियंका को विधानसभा चुनाव में स्टार प्रचारक की भूमिका में लाना कांग्रेस की चुनाव जिताऊ रणनीति का अहम हिस्सा होगा| हालांकि यह तो वक़्त ही बतायेगा कि प्रियंका पर दावं लगाना कांग्रेस के लिए कितना असरदार हो सकता है?
अमेठी और रायबरेली की बात करें तो यहाँ प्रियंका अपने पारिवारिक संबंधों का ज़िक्र करते हुए जिस आत्मीयता से लोगों से मिलती हैं, वह लोगों को भाव-विभोर कर देता है| दोनों ही क्षेत्रों में प्रियंका में लोग इंदिरा गाँधी की छवि देखते हैं| यही कारण है कि २००२ के बाद से इन क्षेत्रों में हमेशा कांग्रेसी हाथ मजबूत हुआ है| मगर इस बार परिदृश्य बदला हुआ है| अमेठी और रायबरेली से हाथ का साथ छूटता जा रहा है| प्रियंका के लिए ये दोनों क्षेत्र इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इस दौरान राहुल जहां पूरे प्रदेश में चुनाव प्रचार में व्यस्त होंगे वहीं सोनिया गाँधी चुनाव प्रचार के अंतिम समय में मात्र फाइनल फिनिशिंग टच देने हेतु मौजूद होंगीं| अमेठी और रायबरेली; दोनों ही क्षेत्रों ने कांग्रेस परिवार के सदस्यों को भरपूर प्यार दिया है मगर जब भी इनके अंतर्गत आने वाली विधानसभा सीटों पर चुनाव की नौबत आती है तो जनता गाँधी-नेहरु परिवार के विश्वस्त एवं करीबियों से कन्नी काट लेती है| अमेठी-रायबरेली लोकसभा के अंतर्गत आने वाली १० विधानसभा सीटों में से ७ पर फिलहाल कांग्रेस का कब्ज़ा है, जिसे प्रियंका शत-प्रतिशत करना चाहेंगी| गांधी-नेहरु परिवार के इन क्षेत्रों में राजनीतिक असर को इस तरह भी समझा जा सकता है कि इनसे सटा सुल्तानपुर; जहां १९८९ के बाद से कभी कोई कांग्रेसी विधानसभा सीट नहीं जीत पाया| कहने का लब्बोलुबाव यह है कि सोनिया या राहुल के इन क्षेत्रों से सांसद रहने के बावजूद कांग्रेस को विधानसभा स्तर पर कोई ख़ास फायदा नहीं होता| इस बार प्रियंका के लिए यह मिथक तोड़ना किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं होगा|
प्रियंका ने बीते लोकसभा चुनाव में अमेठी और रायबरेली में जिस आक्रामकता से चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी, उसे मीडिया ने बड़े जोर-शोर से भुनाया था| हालांकि कांग्रेस को इन चुनावों में प्रियंका द्वारा प्रचार का ज़बरदस्त फायदा मिला मगर दोनों कांग्रेस परिवार की पारंपरिक सीटें होने के कारण विपक्षी दलों ने प्रियंका की सफलता को सिरे से खारिज कर दिया| अब जबकि प्रियंका को वापस चुनाव प्रचार की कमान सौंपने की वकालत शुरू हो गई है तो देखना दिलचस्प होगा कि प्रियंका अपनी भूमिका को कैसे निभा पाएंगी? दरअसल प्रियंका का मानना है कि यदि वे सक्रिय राजनीति में आईं तो कांग्रेसी उनके नाम को भी राजनीति का अखाड़ा बना देंगे| राहुल ब्रिगेड के समानांतर प्रियंका ब्रिगेड का चलन भी आम हो जाएगा| इसलिए वे सक्रिय राजनीति से कोसों दूर रहना पसंद करती हैं| अपने भाई राहुल के लिए प्रियंका या यह त्याग पार्टी सहित सभी को पता है, तभी उन्हें चुनाव प्रचार में सहभागी बनाने हेतु राहुल और सोनिया से गुहार लगाईं जा रही है| वैसे अपने भाई और कांग्रेस की साख को बचाने के लिए यदि प्रियंका पूरे प्रदेश में चुनाव प्रचार की कमान संभाल लें तो अचरज नहीं होगा|
सवाल ही नहीं उठता, यू.पी में क्या कोई रोटी नही खाता या इंसान नहीं रहते की कांग्रेसी कहे की इंदिरा गांधी का प्रतिरूप आपसे वोट मांग रहा है जिसे कहे वोट दे देना आँख मीच कर.
जनता बदल रही है. अब वंशवाद और भ्रष्टाचार किसी का नहीं चलेगा. विश्वास न हो तो देख लेना.
चाहे कोंग्रेस कोइ भी तुरूप का इका लाए, यूपी का वोटर सबको भौचक्का कर देगा!! अब तक लालूवादी माने जानेवाले बिहार का वोटर ने इसका सबूत दे ही दिया है.आम मतदाता अब चमकीले चेहरों और ऊंचे खानदानो के पीछे का काला सच जान चुका है. काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है. हाँ मीडिया जरूर उनका सिजदा कर रहा है, जिसका असर वक्त ही बताएगा.
राहुल-प्रियंका और उनकी माताजी के पास न तो यूपी के विकास के लिए कोई गेम प्लान है और ना ही स्पष्ट नजरिया. वह यूपी को अपनी बपौती समझते हैं सिर्फ मायावती को गालिया देकर खुद को बेहतर साबित करना चाहते हैं. जबकि उसी बसपा और उसकी शत्रु सामान सपा की बैसाखी पर दिल्ली में सरकार चलाते हैं. इस अजीब बर्ताव को क्या आम लोग नहीं जानते!!