समाज

नारी तुम केवल श्रद्घा थी…….!

nari asmitaनयनतारा सहगल की योरोप यात्रा के दौरान उनके पहनावे (साड़ी) को देखकर आश्चर्य व्यक्त करते हुए एक अंग्रेज ने उनसे पूछा था, आपके इस ड्रेस में न कहीं बटन है, न आप बेल्ट से इसे बांधती हैं, क्या यह कभी खुल नहीं जाता? गिर नहीं जाता यह? सहगल का जवाब था…… यह पिछले हजारों-हजार साल से नहीं गिरा है। उनकी हाजिरजवाबी से भौंचक रह जाता है अंग्रेज़, साथ ही श्रद्घावनत भी होता है भारतीय ललनाओं का परिचय पाकर। सहगल की वह साड़ी प्रतीक है न केवल भारतीय तहज़ीब का, संस्कृति का, वरन भारतीय नारियों द्वारा सहस्त्राब्दियों के शौर्य, पराक्रम, त्याग, सेवा, तप, संघर्ष का भी।

हालाकि अगर यह साड़ी देश के सम्मान का प्रतीक रहा है तो साथ ही चीर-हरण करने वाले दुश्‍शासन भी अलग-अलग रूपों में रहे हैं. मीडिया और महिलाओं के संबंधों पर विचार करते हुए यह मजबूरी है कि हमें दुश्‍शासन की भूमिका आज के समाचार चैनल समेत एवं सभी अन्य प्रसार माध्यमों को ही देनी होगी. बस यहाँ पर किसी कृष्ण की ज़रूरत इसलिए नहीं है क्युकि आज कोई द्रोपदी आर्तनाद नहीं कर रही हैं, इस्तेमाल होने वाली यौवनाएं ना केवल अपनी कथित विशेष स्थिति से खुश हैं अपितु जम कर इंजॉय भी कर रही हैं. अतः कम से कम केवल प्रसार माध्यमों को ही दोष देना निश्चय ही उनके साथ ज्यादती होगी. जो दिखता है वही टिकता और बिकता है वाले इस दौर में आप कूद कर किसी नतीजे पर नहीं पहुच सकते. जिम्मेदार भले ही कोई हो लेकिन यह आज की सच्चाई है कि फिक्शन और नॉन-फिक्शन सभी माध्यमों में आज नारी केवल भोग की वस्तु ही रह गयी है. और इस मामले में कोई उदाहरण देने की भी ज़रूरत नहीं है. लेकिन सवाल कैरियर के दौर में आगे निकल गयी लड़कियों का है भी नहीं. अफ़सोस तो ये है कि जब तक कोई नकारात्मक कारण नहीं हो तब तक गाँव-देहात की,छोटे कस्बे और शहरों की महिलाएं और लडकियां इन माध्यमों की नज़र से कोसों दूर हैं. आज आप किसी भी चैनल पर गाँव में अपने घर के आगे रंगोली बनाती हुई, खेतों में काम कर अपने घर को समृद्ध करती हुई या कल-कारखानों में छोटे-छोटे कार्यालयों में काम कर अपने घर को आधार प्रदान करती हुई महिलाओं,युवतियों का अस्तित्व कही नहीं दिखेगा. यानी आज की महिलाओं का मीडिया की नज़र में अस्तित्व तभी है जब वे छोटे-छोटे शहरों से,भारी बोर दोपहरों से झोला उठा कर महानगरों तक की राह ना तय कर ले.मीडिया का हर मामले में शहर केन्द्रित हो जाना सबसे ज्यादा महिलाओं के वास्तविक सरोकारों पर ही भारी पड़ा है. आज भी दूर-दराज़ में दहेज़ के लिए प्रताडित होती महिलाएं,यूं शोषण की शिकार बनती बच्चियाँ,टोनही (डायन) कहकर सारे-राह अपमानित होती वृद्धायें या कोख में ही मार दी जाती भ्रूण के बारे में मुख्य धारा के मीडिया ने कोई सरोकार दिखाया हो ऐसा शायद ही कही देखने में मिला होगा. यदि दिल्ली में किसी लड़की ने प्रेमी के विछोह में आत्महत्या कर ली हो,या किसी आरुशी की हत्या हो गयी हो तो भले ही उस खबर को राष्ट्रीय महत्व का विषय बना दिया जाये लेकिन आप वैसी ही घटना रोज़ अपने आस-पास घटते हुए देखेंगे,लेकिन किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगेंगी. आप गौर करेंगे कि केवल वही खबरें या कथा-कहानियां आज जगह पाती हैं जिसके बिकने की संभावना हो या जो टीआरपी बटोर सके. बात चाहे लाखों के आभूषण शयन कक्ष में भी पहनी हुई टेसुए बहाती बालाजी की महिलायें हो,या ट्रक के टायर और इंजीन आयल का भी विज्ञापन करती हुई सेक्सी दिखती मॉडलें,सभी जगह सामाजिक सरोकार जैसे सिरे से ही गायब हो गया है. यदि पुनः समाचारों की ही बात करें तो का से कम उन्हें ज़रूर गौर करना होगा कि केवल बिकने वाली वस्तु ही समाचार नहीं हुआ करती.क्या केवल सनसनी बेचना ही समाचार है?

महिलाओं से ही जुड़े हुए कुछ ख़बरों के सन्दर्भ पर गौर करें. अभी हाल ही में पटना से एक खबर आई थी कि वहां पर एक लड़की को सड़क पर सरेआम नग्न कर दिया गया। वास्तव में खबर दुर्भाग्यजनक थी। लेकिन जिस तरह उसको दिन भर परोसा गया, जिस तरह से उसके विडियो को (ब्लर करके ही सही लेकिन) कई दिन तक दिखाया गया क्या वो ऐसा नहीं लग रहा था कि जबरन खबर को बेचा जा रहा है? आपको ताज्जुब होगा कि उसके दुसरे ही दिन पटना में ही एक साहसी लड़की ने एक गुंडे की सड़क पर ही पिटाई कर उसको पुलिस के हवाले कर दिया। वो गुंडा छेडख़ानी के ही आरोप में कुछ दिन पहले ही जेल हो आया था। क्या ऐसी घटना को नारी सशक्तिकरण का रूप दे कर दिन भर नहीं दिखाया जा सकता था? एक खबर और आपने कई दिनों तक देखी होगी। मध्य प्रदेश के किसी स्कूल में कपड़े का नाप लेने के बहाने एक शिक्षक द्वारा छात्राओं के साथ बदसलूकी की गयी थी। ज़रूर ऐसे कुंठित लोगों का पर्दाफाश किया जाना चाहिए। लेकिन उस घटना के चार दिन बाद छत्तीसगढ़ के कांकेर का एक नज़ीर श्रद्धा से भर देने वाला था। वहाँ के एक गाँव माकडीखुना में पदस्थ एक शिक्षक की विदाई पर सारा गाँव रो पडा था। प्रदेश के एक अखबार में छपी एक कोलम की खबर के अनुसार आशीष ठाकुर नामक उस गुरूजी की बिदाई के लिये बाकायदा एक आयोजन समिति का गठन कर जुलुस नारे एवं गाजे-वाजे के साथ उनकी विदाई की गयी। श्री ठाकुर ने अपने समर्पण भाव एवं गाँव के सुख-दु:ख में शामिल होकर अपनी एक अलग ही छवि बनायी थी। क्या ऐसी खबर को प्रेरणास्पद मानकर मीडिया उसको नहीं दिखा सकता था,यह एक उदाहरण नहीं होता देश के लिये? ऐसे ही जब राज ठाकरे नाम का गुंडा समूचे महाराष्ट्र में मां भारती को कलंकित करने का काम कर रहा था और बार-बार दुत्कारे जाने पर भी राष्ट्रीय मीडिया उस “क्रांतिकारी” का झलक बेचने को बेताब थे। हिंदी मीडिया को अपमानित कर निकाल देने के बावजूद जब वे लोग मराठी चैनलों से फीड ले के उसका अनुवाद कर दिखाने मे व्यस्त थे, उसी दौरान छत्तीसगढ़ के धमतरी के राजू ठाकरे नामक सपूत ने एक अनाथ महिला की मृत्यु हो जाने पर उन्हें अपनी मां समझ उसके अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था की। तो क्या बजाय दिन भर एक पदलोलुप नेता को कवरेज देने के, राज ठाकरे और राजू ठाकरे के इस फर्क को केन्द्रविंदु नहीं बनाया जा सकता था ? उपरोक्त कोई भी घटना ना ही केवल तुकबंदी के लिये वर्णित है और ना ही काल्पनिक। इन छोटी-छोटी घटनाओं को तरजीह दे कर आप समाज में एक सकारात्मक सन्देश देने की जिम्म्मेदारी का पालन तो कर ही सकते हैं। लेकिन जैसा की शुरू में वर्णित है आखिरकार आप दोष केवल प्रसार कम्पनियों को ही नहीं दे सकते. ना केवल माध्यमों से समाज प्रभावित होता है बल्कि समाज से भी प्रसार माध्यमों को प्रभावित होना पर रहा है. आखिर वैश्वीकरण के कोख से निकले उपयोगितावाद से किसी का भी पल्ला छुड़ाना इतना आसान थोड़े है.जब स्वयं समाज की लड़किया-बच्चियाँ और उनके अभिभावक ही सफलता के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हो तो आखिर किसी एक अनुषंग से हम आत्मसंयमित होने की अपेक्षा कैसे पाल सकते हैं ?

बहरहाल…एक सकारात्मक एवं संदेशात्मक खबर के साथ ही कलम को विराम दूंगा. छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव की “रोशनी रामटेके” नाम की पोलिटेक्निक की छात्रा एक दिन चुपचाप घर चली जाती है कक्षा में कभी नहीं आने के लिए. रोशनी के सहपाठियों को काफी खोजबीन करने पर पता चलता है कि आर्थिक कठिनाइयों के कारण वो फीस देने में समर्थ नहीं थी सो उसे पढाई छोड़नी पड़ गयी है. दीपावली के पूर्व संध्या की बात है. सभी छात्राओं ने अपने-अपने जेब खर्च मे से जमा कर उसकी फीस अदा की और सस्नेह उस बालिका को उसके गाँव से वापस बुलाया गया. आपने कही देखी या पढी ये खबर ? उपरोक्त पूरे आलेख का आशय यही है कि ऐसी “रोशनी” बिखेड़े मीडिया भी या ऐसे बिखड़े हुई रोशनी को प्रकाशित होने दें तो कोई बात बने. ऐसे परस्पर सहकार एवं सरोकार के द्वारा ही हम उपरोक्त वर्णित साड़ी की मर्यादा और सम्मान भी कायम रख सकते हैं.

-पंकज झा