सेक्स की तलाश में नहीं रहती मेरे उपन्यासों की स्त्री : मैत्रेयी पुष्पा

साल-2007 के आख़िरी दिनों या फिर 08 के शुरुआती महीनों में कभी, दिन-तारीख़ तो अब याद नहीं…दैनिक जागरण के अपने स्तंभ बेबाक बातचीत के लिए मैत्रेयी पुष्पा से ये गुफ्तगू की थी. आज के संदर्भों में भी ये सवाल उतने ही ख़रे हैं…

– चण्डीदत्त शुक्ल

मैं अपना टेप रिकार्डर खोलती हूं, इसमें उन सच्ची औरतों की आवाजें हैं, जो नि:शंक भाव से मानती हैं कि जरूरी नहीं, पति ही उनके बच्चों का पिता हो…ये पंक्तियां हैं मैत्रेयी पुष्पा के एक लेख की। उनके उपन्यासों की स्त्री इतनी बेबाक है कि समाज के ठेकेदारों को कई बार निर्लज्ज भी नज़र आने लगती है। हालांकि, मैत्रेयी अपने पात्रों के ऐसे नामकरण का सख्ती से प्रतिकार करती हैं। अल्मा कबूतरी, चाक, कस्तूरी कुंडल बसै, इदन्नमम और हालिया चर्चा में आई कही ईसुरी फाग समेत तकरीबन 14 साल में 13 रचनाएं लिख चुकी पुष्पा ने माना कि स्त्री विमर्श के क्षेत्र में सक्रिय अन्य महिला साहित्यकारों के वे सीधे निशाने पर हैं, साथ ही उन्होंने यह भी बताया, ऐसा क्या है, जिसकी वजह से वह कड़वा-कड़वा लिखने को मजबूर हो जाती हैं? प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश :

चर्चा है कि सिर पर एक बड़े साहित्यकार का हाथ न होता तो आप इतनी प्रसिद्ध न होतीं..

अगर यही सच होता तो मेरे लेखन को सारे संसार में पसंद करने वालों की लंबी तादाद न होती। फिर तो (उक्त साहित्यकार का नाम लेकर कुछ झुंझलाते हुए) वही मेरी किताबें पलटते और रख देते..आप तक उनकी चर्चा भी न पहुंचती।

आपकी नायिकाएं अपनी मुक्ति देह की आजादी में तलाशती है और आप बिना वजह अपने रचनाकर्म को सेक्स केंद्रित करती हैं?

यह बेकार की बात है..दरअसल स्त्री को घेरने की कोशिश उसकी देह को लेकर ही की जाती रही है, मेरे बारे में भी इसीलिए यह सबकुछ कहा जाता है ताकि अपनी जुबान बंद कर लूं। एक चीज साफ जान लीजिए, मुझे ऐसा कोई डर नहीं कि सच कहने से मुझे मिलने वाले कितने पुरस्कार रुकवा दिए जाएंगे या विरोध में समीक्षाएं लिखी जाएंगी। यह तो होता ही रहा है। जहां तक रचनाओं में सेक्स उड़ेलने की बात है, इस तरह कुछ भी नहीं हुआ है। जहां घटनाक्रम ऐसा है, परिस्थितियों की मांग हुई है, वहीं मेरी नायिकाओं ने ऐसा किया है। अगर मैं जान-बूझकर सेक्स को कथा का सूत्र बनाने वाली मानसिकता रखती तो कहीं ईसुरी फाग में तो इसकी अपार संभावना थी। पूरी पुस्तक में कई जगह शरीर को लेकर फाग कही गई है। ऐसे तो काम दृश्यों की भरमार हो जाती।

… लेकिन आपकी एक नायिका तो दुष्कर्म का शिकार होते हुए भी आनंद अनुभव करती है? क्या वह हर वर्जना से मुक्त है?

यह कहना आसान है कि वह वर्जनाओं से मुक्त है लेकिन क्या अल्मा या अन्य स्त्रियां सिर्फ साधारण वर्जना से घिरी हैं? यह तो यातना और यंत्रणा है। सांरग चाक में जिस स्थिति में वर्जनाएं तोड़ती नजर आती है, दरअसल वह उस समय की सामाजिक-शैक्षणिक व्यवस्था की यंत्रणाएं तोड़ रही होती है। फिर अल्मा की तुलना आप अपने समाज से क्यों करते हैं? कबूतरी एक अपराधी जनजाति की महिला है। कबूतरा या तो जंगल में रहता है या फिर जेल में। अल्मा एक मादा भी तो है। उसकी नस्ल खत्म हो रही है। फिर दुष्कर्मी के खेतों में उसके डेरे हैं। अब वह क्या करे? आप ही बताइए, जब स्त्री की जान ही सांसत में आ जाए तो वह जीने के रास्ते तो तलाशेगी ही।

…पर स्त्री की शुचिता का सवाल कहीं पीछे नहीं छूट जाएगा?

आखिर अकेली स्त्री से ही क्यों उम्मीद करते हैं कि वही शुचिता का खयाल रखेगी? मैं इतनी उम्र में भी रात के 12 बजे तक घर से बाहर रहने की बात कहूं तो लोग आसमान सिर पर उठा लेंगे लेकिन पति तीन बजे रात में भी घर आना चाहें तो स्वागत है, ऐसी विसंगति क्यों है? स्त्री को पता है कि वह कितनी पवित्र है और रहना चाहती है। उसकी परिभाषाएं पुरुष नहीं गढ़ सकते। पुरुष वर्चस्व के दायरे में स्त्री की देह ही होती है। जन्म से शादी के पहले तक उसी देह की रक्षा होती है और विवाह के बाद उसका उपभोग। इस पूरे चक्र में स्त्री की योग्यता क्यों नहीं देखी जाती? देह से हटकर सोचें तो पता लगेगा कि स्त्री क्या है?

चौदह साल के लेखकीय जीवन में तेरह रचनाएं? ऐसे में रचनात्मक उत्कृष्टता की गुंजाइश बचती है?

आपने तो यह प्रश्न साफ-सुथरे ढंग से पूछा है। मुंबई की एक महिला साहित्यकार ने कहीं कहा था, मैत्रेयी हर साल बच्चे पैदा करती हैं। मेरे उपन्यास निश्चय ही मेरी संतान हैं और किसी से कमजोर भी नहीं हैं। जब तक मुझे लगेगा मैं सशक्त बात रख रही हूं, लिखती रहूंगी।

आपके एक बयान को लेकर इन दिनों खूब विवाद है, जिसमें कथित तौर पर आपने एक साहित्यकार की कृपादृष्टि हासिल करने के लिए किए गए उपक्रमों की चर्चा की है? इसमें कितना सच है?

यह पीत पत्रकारिता का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसमें लेशमात्र भी सत्य नहीं है।

आप अन्य महिला साहित्यकारों के हरदम निशाने पर ही क्यों रहती हैं?

(हंसते हुए) मैं चाहती हूं कि निशाने पर रहूं। मैं यहां स्त्री का सच कहने आई हूं, सुविधाभोगी स्त्री का नहीं, उस ग्रामीण स्त्री का सच, जिसकी ओर अन्य महिला साहित्यकारों की निगाह नहीं गई है। निशाने साधे जाने से मैं भयभीत नहीं होती।

8 COMMENTS

  1. आखिर अकेली स्त्री से ही क्यों उम्मीद करते हैं कि वही शुचिता का खयाल रखेगी लेखिका के इस jawab ने मुझे सोचने के लिए मजबूर kar diya . यह वो सत्य है जो हमारे समाज को कटघरे में खड़ा कर देती है.

  2. भाई चंडीदत्त जी,
    सवाल तो अच्छे है, लेकिन पुष्पा जी से ऎसे ही जवाब की उम्मीद थी. हर बात मे पुरुषो से तुलना या उनका ही पीछा करना कहा तक जायज है ? लेखिकाए हर बात मे स्त्री को पुरुषो के बरक्श देखने लगे और बुराई मे भी उन्हे पीछे छोड दे ये कहा की स्वतंत्रता है ! उदाहरणो का सामान्यीकरण नही किया जा सकता. बेटा, भाई या पति भी रात को देर से आये तो भी सवाल उठ्ते ही है,भले ही थोडे कम. शोषण से तो सभी को लडना है, भले वह देह-शोषण ही क्यो न हो. क्या स्त्री, क्या पुरुष सभी इस दंश को झेल रहे है.

  3. पुष्पा जी के विचार पढ़ कर निराशा हुई. सोचा था, की वे स्त्री-विमर्श के सवालों पर कोई गंभीर बात कहेंगी, मगर वे तो एक तरह से केवल अनैतिकता को स्वीकृति देने में लगी रही. पति रात को बारह बजे बाहर जाता है तो ये भी निकलेंगी. यही है नारी मुक्ति. यक एकांगी दृष्टिकोण है. लेकिन अब यही चल रहा है. मै सुभाष भाई से सहमत हूँ कि ‘यंत्रणा और देह-शोषण क़िसी मजबूरी का नंगा सच है तो उसके खिलाफ लड़ाई होनी चाहिये’. यह सच है कि नंगपन ज्यादा बिकने लगता है. पुष्पा फिल्म निर्माताओं की तरह चलाकीभरा बयान दे रही है, कि जहां घटनाक्रम ऐसा है, परिस्थितियों की मांग हुई है, वहीं मेरी नायिकाओं ने ऐसा किया है। हद है, यह ”परिस्थितियों की मांग” ही ”टांग” दिखने को प्रेरित करती है. वरनाबेचारी लेखिकाए, क्यों अनैतिकता के दृश्य दिखाती. कहाँ महादेवी वर्मा आशापूर्ण देवी. महाश्वेतादेवी, शिवानी जैसे लेखिकाएं हुई, कहाँ अब नंगेपन को यथार्थ बता कर चरित्रहीनता को साहित्य का खुल कर हिस्सा बताने वाली लेखिकाओं की बाढ़-सी आ गयी है. नैतिक मूल्यों को स्थापित करने वाली लेखिकाओं को हाशिये पर डाल दिया गया है.

    • unhone yeh baaat kahi bhi nhi jis rastey aap usey lekr ja rahey hain..unhone keval iek udaharan bhar diya hai k yadi aisa ho..aur agar aapki baat hi maan lein toh bhi pati hi kyun swatantr hai fir in karyon hetu..?????

  4. – आदरणीय लेखिका मैत्रेयी पुष्पा अपने लेख ( सेक्स की तलाश में नहीं रहती मेरे उपन्यासों की स्त्री) में यह अभिकथन करती हैं कि :
    “मैं यहां स्त्री का सच कहने आई हूं”.
    – A novel is in the domain of literature and is an invented and fictitious prose narrative portraying characters and actions representative of real life.
    – लेखिका का यह अभिकथन है कि वह स्त्री का सच कह रही हैं.
    – मेरा निवेदन है कि उपन्यास को सच-सच बातों वाला ग्रन्थ कहना शायद ठीक नहीं होगा; यह बहुत कठिन अभिकथन है.
    – समाज का सच वर्णन करने के लिए साहित्य के अनेक विकल्पों में से उपन्यास का चयन करना शायद युक्तिसंगत नहीं है, जब विषयः विवाद् ग्रस्त है.
    – वास्तविकता लिखने की लिए उपन्यास का चुनाव भेजे में नहीं पड़ता.
    – अन्ततोगत्वा लेखक तो इस युग में राजा – रानी है. कोन सुनता है जी ? जी कोई नहीं.

  5. “सच्ची औरतों की आवाजें हैं, जो नि:शंक भाव से मानती हैं कि जरूरी नहीं, पति ही उनके बच्चों का पिता हो…ये पंक्तियां हैं मैत्रेयी पुष्पा के एक लेख की।”

    मैं उक्त कथन की सच्चाई गवाही दे सकता हूँ, इस सच्चाई के उघड जाने से न जाने कितने परिवार उजड़ जायेंगे, इसलिए ऐसी बातें दफ़न कर दी जाएँ इसी में भलाई है. हाँ इस स्थिति से गुजरने के लिए अधिकतर मामलों में स्त्री नहीं, पुरुष की जिम्मेदारी अधिक होती है. जिसे मैत्रेयी जी के इस जवाब में तलाशा जा सकता है :-

    “मैं इतनी उम्र में भी रात के 12 बजे तक घर से बाहर रहने की बात कहूं तो लोग आसमान सिर पर उठा लेंगे लेकिन पति तीन बजे रात में भी घर आना चाहें तो स्वागत है, ऐसी विसंगति क्यों है? स्त्री को पता है कि वह कितनी पवित्र है और रहना चाहती है। उसकी परिभाषाएं पुरुष नहीं गढ़ सकते। पुरुष वर्चस्व के दायरे में स्त्री की देह ही होती है। जन्म से शादी के पहले तक उसी देह की रक्षा होती है और विवाह के बाद उसका उपभोग।”

  6. ये बात तो है कि मैत्रेयी जी जो कहती हैं, वो खरी-खरी कहती हैं.. मैने उन्हें राजेन्द्र जी के एक सेमिनार में भी सुना है। बहुत बेबाक हैं.. उनकी रचनाएं भी पढ़ी हैं.. आपका ये इंटरव्यू वाकई लाजवाब है. जैसे सवाल खरे-खरे हैं वैसे ही जवाबों में भी तुर्शी नज़र आती है। लेकिन मैं मैत्रेयी जी का सम्मान करता हूं।

  7. अगर यंत्रणा और देह-शोषण क़िसी मजबूरी का नंगा सच है तो उसके खिलाफ लड़ाई होनी चाहिये. यह लड़ाई उसकी देह को बार-बार शब्दों में नंगा करके नहीं लड़ी जा सकती. यह तो उसकी मजबूरी और असहायता का अपमान है. ज्यादा पाठक होना अच्छे साहित्य होने की कसौटी नहीं हो सकता. किसी को नंगा देखने के लिये अगर भीड़ उमड़्ती है तो इसमें क्या आश्चर्य, पर उसे अच्छा तो नहीं कहा जा सकता. पुष्पा जी को एक औरत होने के नाते इतना तो समझना ही चाहिये कि नंगपन क्यों ज्यादा बिकने लगता है.

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