आरज़ू
लूणकरणसर, राजस्थान
बीकानेर जिले की लूणकरणसर तहसील का नाथवाना गांव, जहां रहने वाली 27 वर्षीय रेणु की कहानी आत्मनिर्भर होने और अपने सपनों को पूरा करने के लिए रोज संघर्ष करती एक औरत की कहानी है। उसके चेहरे पर सादगी की झलक है, मगर आंखों में अनगिनत अधूरे सपने तैरते रहते हैं। वह अक्सर कहती है “मेरे पास धन नहीं है, पर सपनों की कमी कभी नहीं रही।” वह अपने संघर्ष की कहानी साझा करते हुए बताती है कि उसका जन्म एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। घर में खाने तक के लाले थे। जब उसका जन्म हुआ, तो पिता की आंखों में खुशी नहीं, बल्कि चिंता की लकीरें गहरी हो गईं। उन्हें डर था कि बेटी का लालन-पालन कैसे करेंगे? उन दिनों गांव में बेटी को बोझ समझा जाता था। तभी उसके नाना-नानी ने उसे अपने पास रख लिया। उन्होंने अपनी क्षमता से बढ़कर उसकी देखभाल की।
रेणु छोटी उम्र से ही पढ़ाई में तेज थी। उसे किताबों में अपनी दुनिया नजर आती थी। पर गांव की सामाजिक सोच और तंग आर्थिक हालात ने उसके रास्ते में कई दीवारें खड़ी कर दीं। वह बताती है कि “मैं पढ़ना चाहती थी, पर किस्मत ने जल्दी बड़ा कर दिया।” महज पंद्रह वर्ष की उम्र में मेरा विवाह कर दिया गया। यह उस समय की सच्चाई थी, जब लड़कियों की पढ़ाई को जरूरी नहीं समझा जाता था। ससुराल में कदम रखते ही उसकी दुनिया बदल गई। वहाँ हर बात पर बंदिशें थीं। क्या पहनना है, कहाँ जाना है, किससे बात करनी है? हर चीज़ पर पहरा था। लेकिन रेणु का मन किसी कैद को मानने वाला नहीं था। उसे सिलाई का शौक था। वह अपने भीतर कुछ करने की आग महसूस करती थी।
दिन के उजाले में, जब घर के सभी पुरुष खेत चले जाते थे तो वह एक पुरानी सिलाई मशीन पर कपड़े सिलने का अभ्यास करती थी। टुकड़ों से कपड़े जोड़ते हुए वह जैसे अपने सपनों को सीती जाती। समय के साथ उसने इतना अच्छा सीखा कि गांव की औरतें उसके पास अपने कपड़े सिलवाने आने लगीं। ससुराल वालों को यह सब पसंद नहीं था। वे कहते “घर की औरत बाहर का काम नहीं करती।” लेकिन रेणु जानती थी कि उसका हुनर उसकी पहचान बन सकता है। इसी बीच उसने अपने मामा की मदद से चुपचाप मैट्रिक की परीक्षा दी। जब परिणाम आया, तो वह पास हो चुकी थी। उसे खुद पर यकीन हो चला था कि अगर हिम्मत की जाए तो हालात बदले जा सकते हैं। एक दिन उसने ससुराल में बताया कि वह बीकानेर में अपनी बुआ के घर कुछ महीनों के लिए जा रही है। सच्चाई यह थी कि वह वहां एक महीने के लिए ब्यूटी पार्लर का कोर्स करने गई थी। हर दिन वह नई तकनीकें सीखती, लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाना सीखती और अपने भीतर आत्मविश्वास का एक नया रंग भरती।
जब परीक्षा हुई, तो उसने सबसे अच्छा मेकअप करके टॉप किया। उसके प्रशिक्षकों ने कहा “तुम्हारे हाथों में कमाल है, रेणु! तुम चाहो तो आगे बढ़ सकती हो।” उस दिन उसने अपने भीतर एक नई उड़ान महसूस की। लेकिन गांव लौटने पर हकीकत की दीवार फिर सामने थी। ससुराल वालों को जब पता चला तो उन्होंने साफ साफ कह दिया कि “ब्यूटी पार्लर खोलने से औरत की इज्जत खराब होती है। हमारे घर की बहू ये सब काम नहीं करेगी।” उनके शब्दों में वही पुरानी सोच थी, जिसने अनगिनत औरतों के सपनों को दबा दिया।
रेणु ने बहुत समझाने की कोशिश की। उसने कहा “मैं घर की इज्जत नहीं मिटाना चाहती, बस अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूँ।” मगर उसके शब्दों की कीमत किसी ने नहीं समझी। उसके मन में फिर वही संघर्ष शुरू हो गया। उसे एहसास हुआ कि गांव की औरतों के लिए सपनों की उड़ान अक्सर परंपराओं की जंजीरों में बंध जाती है। यहाँ एक लड़की के सपने देखने से पहले ही उन्हें “मर्यादा” और “इज्जत” के नाम पर रोक दिया जाता है। फिर भी, रेणु ने हार नहीं मानी। उसने घर में एक छोटे से कोने में अपनी सिलाई मशीन रख ली। उसने गांव की लड़कियों को कपड़े सिलने का प्रशिक्षण देना शुरू किया। धीरे-धीरे उसके पास लड़कियाँ आने लगीं। वह उन्हें कहती “कौशल कोई पाप नहीं, मेहनत से ही इज्जत बनती है।” अब वह अपनी कमाई से घर के छोटे खर्च उठाने लगी है। उसके हाथों में हुनर है, आँखों में आत्मविश्वास और दिल में एक सपना है कि एक दिन उसका अपना ब्यूटी पार्लर होगा, जहाँ वह न सिर्फ खुद काम करेगी, बल्कि गांव की औरतों को भी रोजगार सिखाएगी।
रेणु की यह कहानी किसी एक महिला की नहीं, बल्कि उन हज़ारों महिलाओं की आवाज़ है जो अपने सपनों को समाज की दीवारों में कैद देखकर भी चुप नहीं रहतीं। ग्रामीण इलाकों में अब भी कई महिलाएं हैं, जिनके लिए शिक्षा और आत्मनिर्भरता तक पहुँचना किसी पहाड़ चढ़ने जैसा है। यहाँ लड़कियों की परवरिश में बचपन से यह सिखाया जाता है कि घर की सीमा ही उनका संसार है। पर वही सीमाएँ, कभी-कभी किसी रेणु जैसी लड़की के लिए चुनौती बन जाती हैं, जिसे वह पार करना चाहती है। गांवों में महिलाओं की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उनके सपनों को “शौक” मान लिया जाता है, न कि “हक”। जब वे कुछ अलग करने की कोशिश करती हैं, तो समाज सवालों की बौछार करता है। “लड़की होकर इतना क्यों सोचती है?” या “घर का नाम खराब मत कर”। ये वाक्य उनके रास्ते में बार-बार आते हैं। लेकिन धीरे-धीरे हालात बदल रहे हैं। अब गांव की लड़कियाँ मोबाइल चलाना जानती हैं, इंटरनेट पर सीखना जानती हैं और अपनी पहचान खुद गढ़ने की कोशिश कर रही हैं।
रेणु जैसी औरतें उन उम्मीदों की मिसाल हैं जो चुपचाप बदलाव की बुनियाद रखती हैं। उनके संघर्षों में कोई नारे नहीं, कोई भाषण नहीं, सिर्फ एक जिद होती है, अपनी पहचान खुद बनाने की। जब वह सुई से कपड़ा सीती है, तो जैसे अपनी जिंदगी के फटे हिस्सों को जोड़ती जाती है। उसका हर टांका इस बात का सबूत है कि हालात चाहे जैसे हों, औरत अगर ठान ले तो अपनी राह खुद बना सकती है। आज रेणु का सपना अभी अधूरा है, लेकिन उसकी कोशिशें जारी हैं। गांव की औरतें अब उससे सीखना चाहती हैं, अपनी बेटियों को उसकी तरह बनने की प्रेरणा देना चाहती हैं। शायद यही असली जीत है जब एक औरत की कहानी किसी और की हिम्मत बन जाती है।
नाथवाना की यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि बदलाव हमेशा बड़े शहरों से नहीं आता। कभी-कभी वह किसी मिट्टी के घर में, एक पुरानी सिलाई मशीन के पास बैठी किसी लड़की की आंखों में पलता है। वह लड़की, जो भले ही गरीब हो, लेकिन सपनों से अमीर है। रेणु जैसी महिलाएं हमें सिखाती हैं कि उम्मीद की डोर कभी टूटती नहीं बस उसे थामे रहना होता है, चाहे समाज कुछ भी कहे।