16वीं लोकसभा चुनावों के चमत्कारिक तथ्य

-वीरेन्द्र सिंह परिहार-
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देश में एक बात कई वर्षों से जानी-मानी थी कि अब देश में जो भी सरकारें बनेंगी, वह किसी एक पार्टी के बहुमत या बलबूते नहीं बल्कि कई पार्टियों के गठबंधन के आधार पर बनेगी। थोड़ी भी राजनीतिक समझ रखने वाले लोगों का यह मानना था कि यह गठबंधन सरकारों का युग है। खासकर भाजपा के मामले में जब मुस्लिम वोट बैंक और देश के बड़े हिस्से में उसकी प्रभावी उपस्थिति न होना, अकेले उसके बहुमत के बारे में सोचना एक दिवास्वप्न ही हो सकता था। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित ढंग से जिस तरह से 282 सीटें मिली हैं, और 1984 के बाद अपने दम पर बहुमत मिला है, उसे एक चमत्कार ही कहा जा सकता है। क्योंकि औरों की बात तो अलग है, स्वतः भाजपा को भी यह भरोसा नहीं था कि भाजपा अपने बलबूते बहुमत का आंकड़ा पार कर लेगी। लोगों को तो यह तक मानना था कि यदि एनडीए को ही बहुमत मिल जावे तो गनीमत है, और बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का तो यह भी मानना था कि कही सरकार बनाने के लिए एनडीए के बाहर के भी कुछ दलों की जरूरत न पडे। यद्यपि इस बात में करीब-करीब आम सहमति थी कि सरकार तो एनडीए की ही बनेगी। पर किसी ने ऐसा नहीं सोचा था कि कांग्रेस को इतनी करारी पराजय झेलनी पड़ेगी कि वह लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्षी दल भी न बन पाये, और मात्र 44 सीटें पर सिमट जाएं। बहुत से लोगों का मानना था कि हो सकता है कि कांग्रेस 100 के आंकड़े को पार न कर पाएं, पार वह 50 के आंकड़े को ही न पार कर पाएं, ऐसा किसी ने सोचा नहीं था। हद तो यह है कि गुजरात, राजस्थान, ओड़िशा, तमिलनाडु़ एवं अन्य कई राज्यों में कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता है। नरेन्द्र मोदी चुनाव अभियान में दावा करते थे कि कांग्रेस किसी भी राज्य में दहाई की आंकड़ा पार नहीं कर पाएगी, यह बात सच साबित हुई। स्वतंत्र भारत के 67 वर्षों के कालखण्ड में 10-11 वर्ष छोड़कर बाकी समय देश में राज करने वाली कांग्रेस पार्टी की ऐसी दुर्गति होगी, ऐसा शायद ही किसी ने सोचा होगा।

निःसन्देह इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी की इस तरह की भीषण पराजय निश्चित रूप से दूसरा चमत्कारिक तथ्य कहा जा सकता है। जिसके चलते कांग्रेस पार्टी और खानदान विशेष को हाशिएं पर जाने जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। जैसा कि नरेन्द्र मोदी अपने चुनाव अभियान में कंाग्रेस मुक्त भारत की बातें करते थे, कही यह उसकी तो शुरूआत नही। इसी चुनाव की तीसरी बड़ी विशेषता यह रही कि ऐसे सभी दल जो जातिवाद एवं परिवारवाद की राजनीति करते थे, वह सभी धराशायी हो गये। वंशवाद की पोषक कांग्रेस की जो गत हुई वह तो अपनी जगह है, जाति-आधारित राजनीति करने वाली बसपा का तो सूपड़ा ही साफ हो गया।देश के दूसरे हिस्सों की बात तो अलग है उत्तर प्रदेश में जहां बसपा एक बड़ी शक्ति मानी जाती है, और फिलहाल राज्य में मुख्य विपक्षी है, वहां एक भी सीट के लिए बसपा तरस गई। इसी तरह से जाति, संप्रदाय और परिवारवाद की राजनीति करने वाले मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी 5 सीटों पर सिमट गई, जो उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ है। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि जो पांच सीटें सपा को मिली, वह सभी मुलायम सिह और उनके परिवारजनों को मिली। सपा परिवार विशेष की पार्टी है, तो परिवार के बाहर के लोगों को जिताने का क्या औचित्य है? कुछ इसी तर्ज पर जैेसे उत्तर प्रदेश से सोनिया, राहुल के अलावा कोई दूसरा कांग्रेसी भी नहीं जीत पाया। इसी तरह जाति, सम्प्रदाय और परिवार की राजनीति करने वाले लालू यादव को बिहार में जोरदार झटका लगा और उन्हे मात्र 4 सीटे ही मिल सकी। उनकी पत्नी और बेटी को चुनाव हराकर मतदाताओं ने जैसे उनकी परिवारवादी राजनीति पर विराम लगा दिया हो। पर बिहार में लालू से ज्यादा झटका तो नीतिश कुमार को जदयू लगा, जो बिहार में सत्तारूढ़ होते हुए भी दो ही सीटें पा सकी। संभवतः नरेन्द्र मोदी के चलते भाजपा से गठबंधन तोड़ने के कारण मतदाताओं ने नीतीश कुमार को मजा चखाया हो। यहां तक कि जदयू के अध्यक्ष शरद यादव को भी निपटा दिया। सच्चाई यह थी कि मुलायम और लालू के सजातीय चाहे यादव मतदाता हो या मायावती के जाटव, मोदी लहर में ये विभाजित हो गए। तमिलनाडु में परिवार आधारित राजनीति करने वाली डीएम भी लोकसभा में प्रतिनिधित्वविहीन हो गई। निश्चित रूप से जाति एवं परिवार आधारित इन पार्टियों को मतदाताओं ने जिस ढंग से लाईन में लगाया वह भारतीय राजनीति का तीसरा बड़ा चमत्कार कहा जा सकता है।

इन चुनावों की एक बड़ी विशेषता यह रही कि देश के एक बड़ें क्षेत्र में अनु. मानी जाने वाली भाजपा की कहीं-न-कहीं पूरे देश में उप. देखी गई। बड़े राज्यों में मात्र उसे केरल में प्रतिनिधित्व नहीं मिला। भाजपा को बंगाल, तमिलनाडु और उडीसा जैसे राज्यों में भी अपने दमखम पर प्रतिनिधित्व मिला। उत्तर-पूर्व के छोटे-छोटे राज्यों में भी उसने उप. दर्ज कराई। इन सबके आधार पर भाजपा को अब सार्वदेशिक पार्टी कहा जा सकता है। यद्यपि इस चुनाव में जयललिता, ममता और नवीन पटनायक और मजबूत होकर उभरे। इसका अर्थ यह है यदि सुशासन और विकास की स्थिति है तो कोई भी लहर या आंधी कुछ खास नहीं बिगाड़ सकती। यद्यपि ममता की सफलता में बंगाल के 26 प्रतिशत मुस्लिमों के योगदान को नहीं नकारा जा सकता। पश्चिम बंगाल में सीपीएम को मात्र दो सीटें मिली। इसका यह भी अर्थ निकाला जा सकता है कि देश के दूसरे हिस्सो में जिस तरह से कम्युनिष्टों का प्रभाव क्षेत्र समाप्त हो गया है, वही स्थिति पश्चिम बंगाल की भी होने जा रही है। कुल मिलाकर सन् 77 से लगातार 34-35 वर्षों तक पश्चिम बंगाल राज करने वाले वाम मोर्चा की यह स्थिति भी एक चमत्कार से कम नहीं है।

इन चुनावों में एक ओर खास बात जो देखने को मिली वह है- मुस्लिम वोट बैंक का निष्प्रभावी होना, जो इसके पूर्व देश में सबसे निर्णायक माना जाता था। यहां तक कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां मुसलमानों की आबादी 16 प्रतिशत मानी जाती है, वहां एक भी मुस्लिम जीतकर नहीं जा सका। मुस्लिम वोट बैंक के सहारे भाजपा को रोकने का प्रयास भी काम नहीं आया। स्थिति यह रही कि मुस्लिम जहां विभिन्न पार्टियों में बंटे रहे, वहीं एक तबका भाजपा के साथ भी रहा। इसके उलट यदि ऐसा कहा जाए कि इस बार हिन्दू वोटबैंक प्रभावी रहा तो कोई आपत्ति न होगी। क्योंकि हिन्दू समाज में बहुतायत में जब जाति की दीवार टूट गई तो हिन्दू समाज ने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में एकजुट होकर वोट दिया। यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि मोदी भले पिछड़ी जाति के हो, पर सबसे ज्यादा समर्थन अगड़ी जातियों का मिला। कुल मिलाकर यह एक चमत्कारिक स्थिति ही मानी जाएगी कि जिस मुस्लिम वोट बैंक को प्रभावी और निर्णायक माना जाता था, वह तो काम आया नहीं और इसके उलट हिन्दू वोटबैंक निर्णायक बन गया। कुछ भी हो, पर उपरोक्त सभी बातों के आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि इस चुनाव में मतदाताओं ने वंशवाद, परिवारवाद, जातिवाद और सम्प्रदायवाद को काफी हद तक किनारे लगा दिया है, जिन्हें मोदी देश की सबसे बड़ी समस्या मानते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि मौकापरस्त अथवा अवसरवादियों को शीघ्र ही किनारे किया जा सकेगा।

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