शब्द

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ध्वनि चिन्हित करने को,

अक्षर थे बने,

दो अक्षर मिले और शब्द बने,

वाक्यों की माला में गुंथकर,

शब्दो को पूरे अर्थ मिले।

शब्दों से खेल खेल में ही,

लिपियों ने थे जब जन्म लिये,

वाणी काग़ज पर उतरी थी,

ज्ञान- विज्ञान-कला और साहित्य,

पुस्तक में थे बंधने लगे।

 

इन शब्दों से चित्र बनाऊं मैं,

रंगो से चित्र न बने मुझसे,

काग़ज और क़लम के बीच,

जबसे शब्द जुड़े मुझसे,

कभी गीत बने, कभी व्यँग्य हुए।

रूठे भी शब्द कभी  कभी मुझसे,

कभी मैं ही शब्दों से रूठ गई,

शब्दों की इस रूठा मनाई में,

एक कविता कलम से निकल गई।

कभी समाचारों में कोई घटना पढी,

कुछ शब्द जुड़े, आलेख बने,

कभी जीवन में कोई ऐसा भी मिला,

जिसके जीवन और शब्दों से मिलकर

मैंने कोई कहानी गुनी।

पाठक भी मिले, कुछ मित्र बने,

शब्दों के सहारे से ही मैं अपने

सन्नाटों से मुक्त हुई।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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