दुनिया 30 साल बाद भी नहीं जीत पायी एड्स की जंग  

  प्रभुनाथ शुक्ल
एड्स की 30 वीं वर्षगाँठ पूरी दुनिया में 01 दिसम्बर को मनायी जाती है। भारत के साथ वैश्विक देशों के लिए भी यह सामजिक त्रासदी और अभिशाप है। दुनिया में पहली बार 1987 में थॉमस नेट्टर और जेम्स डब्ल्यू बन्न ने इस दिवस के बारे में कल्पना की थी। एड्स स्वयं में कोई बीमारी नहीं है, लेकिन इससे पीड़ित व्यक्ति बीमारियों से लड़ने की प्राकृतिक ताकत खो बैठता है। उस दशा में उसके शरीर में सर्दी-जुकाम जैसा संक्रमण भी आसानी से हो जाता है। एचआईवी यानि ह्यूमन इम्यूनो डिफिसिएंसी वायरस से संक्रमण के बाद की स्थिति एड्स है। एचआईवी संक्रमण को एड्स की स्थिति तक पहुंचने में आठ से दस साल या कभी-कभी इससे भी अधिक वक्त लग सकता है। लेकिन 30 सालों बाद भी दुनिया के देश यौनजनित बीमारी एड्स को ख़त्म नहीं कर पाए। हालांकि एड्स मरीजों से कहीं अधिक बदतर हालात में एड्स कार्यक्रम से जुड़े 25 हजार से अधिक संविदा कर्मचारी हैं जो व्यवस्था के एड्स से परेशान और पस्त हैं।
चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि दुनिया में एचआइवी से पीड़ित होने वालों में सबसे अधिक संख्या किशोरों की है। यह संख्या 20 लाख से ऊपर है। यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 से अब तक एड्स से पीड़ित होने के मामलों में तीन गुना इजाफा हुआ है। दुनिया में एड्स संक्रमित व्यक्तियों में भारत का तीसरा स्थान है। एड्स से पीड़ित दस लाख से अधिक किशोर सिर्फ छह देशों में रह रहे हैं और भारत उनमें एक है। शेष पांच देश दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया, केन्या, मोजांबिक और तंजानिया हैं। सबसे दुखद स्थिति महिलाओं के लिए होती है। उन्हें इसकी जद में आने के बाद सामाजिक त्रसदी और घर से निष्कासन का दंश झेलना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक, 1981 से 2007 में बीच करीब 25 लाख लोगों की मौत एचआइवी संक्रमण की वजह से हुई। 2016 में एड्स से करीब 10 लाख लोगों की मौत हुई। यह आंकड़ा 2005 में हुई मौत के से लगभग आधा है। साल 2016 में एचआइवी ग्रस्त 3.67 करोड़ लोगों में से 1.95 करोड़ इसका उपचार ले रहे हैं। यह सुखद है कि एंटी-रेट्रोवायरल दवा लेने की वजह से एड्स से जुड़ी मौतों का आंकड़ा 2005 में जहां 19 लाख था वह 2016 में घटकर 10 लाख हो गया। 2016 में संक्रमण के 18 लाख नए मामले सामने आए जो 1997 में दर्ज 35 लाख मामलों के मुकाबले लगभग आधे हैं। पुरी दुनिया में कुल 7.61 करोड़ लोग एचआइवी से संक्रमित थे। इसी विषाणु से एड्स होता है। 1980 में इस महामारी के शुरू होने के बाद से अब तक इससे करीब 3.5 करोड़ लोगों की मौत हो चुकी है। इस बीमारी की भयावहता का अंदाजा इन मौतों से लगाया जा सकता है। एड्स के बारे में लोग 1980 से पहले जानते तक नहीं थे। भारत में पहला मामला 1996 में दर्ज किया गया था, लेकिन सिर्फ दो दशकों में इसके मरीजों की संख्या 2.1 करोड़ को पार कर चुकी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में केवल 2011 से 2014 के बीच ही डेढ़ लाख लोग इसके कारण मौत को गले लगाया। यूपी में यह संख्या 21 लाख है। भारत में एचआइवी संक्रमण के लगभग 80,000 नए मामले हर साल दर्ज किए जाते हैं। वर्ष 2005 में एचआइवी संक्रमण से होने वाली मौतों की संख्या 1,50,000 थी। नए मामले एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ही देखे जा रहे हैं।भारत के मशहूर चिकित्सा संस्थान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्थित एआरटी सेंटर के वरिष्ठ परामर्शदाता डॉ.मनोज तिवारी ने बताया कि भारत में एड्स के बढ़ते मामलों पर नियंत्रण के लिए 1992 में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन यानी नाको की स्थापना की गई। मगर बदकिस्मती यह रही कि वैश्विक महामारी होने के बाद भी भारत में नाको को सिर्फ एक परियोजना के रूप में चलाया जा रहा है। नाको से जुड़े लोग 23 सालों से अस्थाई रूप से संविदा पर काम कर रहे हैं। राष्ट्रीय कार्यक्रम होने के बाद भी आती-जाती सरकारों ने इस पर गौर नहीं किया। मनोज के अनुसार भारत सरकार ने नि:शुल्क एंटी रेट्रोवाइरल एआरटी कार्यक्रम की शुरुआत एक अप्रैल, 2004 से की थी।एआरटी की व्यापक सुलभता से एड्स से होने वाली मौतों में कमी आई है। लेकिन देश भर में संविदाकर्मी आज़ भी सरकारों की नीयति की वजह से बदहाली में है। देश भर में 25 हजार से अधिक और यूपी में 1500 कर्मचारी जो एड्स नियंत्रण से जुड़े हैं। लेकिन इनकी बदहाली पर किसी का ध्यान नहीं। केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डूडा, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ , राहुल गाँधी और राष्ट्रपति तक बात पहुँचाने के बाद भी संविदा कर्मचारियों को नियमित नहीं किया गया। जबकि इस प्रोग्राम में डॉक्टर,  परामर्शदाता , लैब टेक्निशियन,  स्टाफ नर्स , डाटा मैनेजर , केयर कॉर्डिनेटर व सोशल वर्कर कार्यरत है और सभी उच्च शिक्षित , प्रशिक्षित और अनुभवी भी हैं। हर साल संविदा का नवीनीकरण होता है जिसकी वजह से कर्मचारियो को मानसिक व आर्थिक समस्या का भी सामना करना पड़ता है। डा. मनोज ने बताया की सभी संविदा कर्मचारी राष्ट्रीय हेल्थ प्रोग्रामों में सहयोग देते है। कुछ जिलों में तो इनसे चुनाव की भी डयूटी कराई जाती है बावजूद यह मुफलिसी के दौर में हैं।मनोज ने बताया कि किसी भी कर्मचारी की आकस्मिक दुर्घटना में भी सरकारी स्तर पर एक पैसे की सहायता नहीं मिलती। बीमार होने पर ईलाज अपने पैसे से ही कराना होता है। किसी तरह की बीमा की सुविधा नहीं है। संविदा कर्मियों के लिए एक आयोग गठित होना चाहिए, जिसकी सिफारिश पर इस राष्ट्रीय कार्यक्रम से जुड़े कर्मचारियों को अच्छे वेतन और मानदेय की सुविधाएं मिलनी चाहिए। राज्य में जब शिक्षामित्रों को सरकारी स्तर पर बहाली हो सकती हैं तो एड्स प्रोग्राम से जुड़े संविदा कर्मचारियों की नियमित क्यों नहीं किया जा सकता है। केंद्र और राज्य सरकारों को एड्स कर्मचारियों की पीड़ा गम्भीरता से लिया जाना चाहिए।

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