जब तक पूर्ण नहीं हो पाते !

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(मधुगीति १८११२८ ब)
जब तक पूर्ण नहीं हो पाते,
सृष्टि समझ कहाँ हम पाते;
अपना बोध मात्र छितराते,
उनका भाव कहाँ लख पाते !
हर कण सुन्दरता ना लखते,
उनके गुण पर ग़ौर न करते;
संग आनन्द लिए ना नचते,
उनको उनका कहाँ समझते !
हैं गण शिव के गौण लखाते,
शून्य हिये बिन ब्रह्म न दिखते;
खिलते उपवन नज़र न आते,
श्रेष्ठ प्राण भी मन ना भाते !
द्रष्टि दोष वश देख न पाते,
जग आँगन जग थिरक न पाते;
वाल नयन ना वे दिख पाते,
रमते रसते उर ना जँचते !
ज्यों ही प्रकट ‘मधु’ प्रभु होते,
बुद्धि ले कर बोधि देते;
हर रहस्य की कुँजी पाते,
हर कोई प्राण प्रिये हो जाते !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

1 COMMENT

  1. प्रिय गोपाल बघेल ‘मधु’जी आप को मेरा नमस्कार !
    आप के द्वारा लिखी हुयी कविता एक उच्च कोटि की रचना है और आप का हिन्दी के प्रति विदेश मे प्रेम सरहनीय है। आप की संस्था Akhil Vishva Hindi Samiti​ का काम सरहनीय है जिसका हिन्दी परिवार सदैव आप का आभारी रहेगा । हमारी राष्ट्र भाषा मे लिख रहे है ये हमारे लिए गर्व की बात है ।
    और आप खुश रहे और ब्लॉग के माध्यम से हिन्दी की सेवा करते रहे ।
    धन्यवाद

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