यक्ष-प्रश्न- अन्तिम समापन कड़ी / बिपिन किशोर सिन्‍हा

yakshयक्ष-प्रश्न (३१) – मधुर वचन बोलनेवाले को क्या मिलता है? सोच-विचारकर काम करनेवाला क्या पा लेता है? जो बहुत-से मित्र बना लेता है, उसे क्या लाभ होता है? और जो धर्मनिष्ठ है, उसे क्या मिलता है?

युधिष्ठिर – मधुर वचन बोलनेवाला सबको प्रिय होता है। सोच-विचारकर काम करनेवाले को अधिकतर सफलता मिलती है। जो बहुत से मित्र बना लेता है, वह सुख से रहता है और जो धर्मनिष्ठ है, उसे सद्गति मिलती है।

यक्ष (३२) – सुखी कौन है? आश्चर्य क्या है? मार्ग क्या है? और वार्त्ता क्या है?

युधिष्ठिर – जिस पुरुष पर ऋण नहीं है और जो परदेश में नहीं है, वह दिन के पांचवें या छ्ठे भाग में भी अपने घर के भीतर चाहे साग-पात ही पकाकर खा ले, सुखी है। नित्य ही प्राणी यमराज के घर जा रहे हैं, हर व्यक्ति यह देखता है; मृत्यु के शाश्वत सत्य को समझता भी है, फिर भी इन घटनाओं को दूसरे पर घटित समझ सर्वदा जीने की इच्छा रखता है – दुनिया का यह सबसे बड़ा आश्चर्य है। तर्क की कही स्थिति नहीं है, श्रुतियां भी भिन्न-भिन्न हैं। एक ही ऋषि नहीं जिसका वचन प्रमाण माना जाय तथा धर्म का तत्त्व अत्यन्त गूढ है। अतः जिससे महापुरुष जाते रहे हैं, वही मार्ग है। इस मोहरूप कड़ाह में काल-भगवान समस्त प्राणियों को मास और ऋतुरूप करछी से उलट-पलटकर सूर्यरूप अग्नि और रात-दिनरूप ईंधन के द्वारा रांध रहे हैं – यही वार्त्ता है।

यक्ष (३३) – तुमने मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर ठीक-ठीक दे दिए। अब तुम पुरुष की भी व्याख्या कर दो और यह बताओ कि सबसे धनवान कौन है?

युधिष्ठिर – जिस व्यक्ति के पुण्यकर्मों की कीर्ति का शब्द जहां तक भूमि और स्वर्ग को स्पर्श करता है, वहीं तक वह पुरुष भी है। जिसकी दृष्टि में प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख और भूत-भविष्यत – ये जोड़े समान हैं, वहीं सबसे धनी पुरुष है।

यक्ष युधिष्ठिर के उत्तरों से पूर्ण संतुष्ट हुआ। प्रसन्न होकर उसने चारों मृत भाइयों में से किसी एक को जीवित करने का वचन दिया। चुनाव युधिष्ठिर को करना था – भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव में से किसे जीवित देखना चाहते थे? क्षण भर सोचने के पश्चात युधिष्ठिर ने यक्ष से आग्रह किया –

‘यक्ष! यह जो श्यामवर्ण, अरुणनयन, सुविशाल शालवृक्ष के समान ऊंचा और चौड़ी छातीवाला महाबली नकुल है, वही जीवित हो जाय।’

यक्ष – राजन! जिसमें दस हजार हाथियों के समान बल है, उस भीम को छोड़कर तुम नकुल को क्यों जिलाना चाहते हो? जिसके बाहुबल का सभी पाण्डवों को पूरा भरोसा है, उस अर्जुन को भी छोड़कर तुम्हें नकुल को जिला देने की इच्छा क्यों है?

युधिष्ठिर – यदि धर्म का नाश किया जाय, तो वह नष्ट हुआ धर्म ही कर्ता को भी नष्ट कर देता है और यदि उसकी रक्षा की जाय, तो वही कर्ता की भी रक्षा कर लेता है। इसी से मैं धर्म का त्याग नहीं नहीं करता, जिससे कि नष्ट होकर धर्म ही मेरा नाश न कर दे। वस्तुतः सबके प्रति समान भाव रखना परम धर्म है। लोग मेरे विषय में ऐसा ही समझते हैं कि राजा युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं। मेरे पिता की कुन्ती और माद्री – दो भार्याएं थीं। वे दोनों ही पुत्रवती बनी रहें – ऐसा मेरा विचार है। मेरे लिए जैसे कुन्ती है, वैसी ही माद्री है; उन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। मैं दोनों माताओं के प्रति समान भाव ही रखना चाहता हूं, इसलिए नकुल ही जीवित हो।

युधिष्ठिर के उत्तरों और विचारों से यक्ष अभिभूत हुए बिना नहीं रह सका। सम्मुख आ उसने प्रसन्नता पूर्वक कहा –

‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारी सोच, तुम्हारा आचरण और व्यवहार – सब के सब उत्कृष्ट हैं। तुम्हारी जितनी प्रशंसा की जाय, कम ही होगी। तुमने अर्थ और काम से भी समता का विशेष आदर किया है। मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूं। इसलिए तुम्हारे सभी भाइयों को तत्काल जीवित करता हूं।’

सभी चारों भ्राता तत्क्षण एकसाथ खड़े हो गए। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वे रात में गहरी निद्रा के पश्चात सवेरे जगे हों। सभी भ्राता एक दूसरे के गले मिले। यक्ष सम्मुख खड़ा मुस्कुरा रहा था। युधिष्ठिर ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए विनम्र स्वर में यक्ष से प्रश्न किया –

‘भगवन! आप यक्ष नहीं हैं। अवश्य ही कोई देवश्रेष्ठ हैं। आपकी कृपा से मेरे चारों भ्राता जीवित हो गए। मेरा आभार स्वीकार करें साथ ही अपना वास्तविक परिचय भी देने का कष्ट करें।’

यक्ष ने युधिष्ठिर को गले से लगाते हुए स्नेहमिश्रित वाणी में अपना परिचय दिया –

‘वत्स! मैं तुम्हारा पिता धर्मराज हूं। तुम्हें देखने के लिए ही यहां आया हूं। यश, सत्य, दम, शौच, मृदुता, लज्जा, दान, तप और ब्रह्मचर्य – ये सब मेरे शरीर हैं तथा अहिंसा, समता, शान्ति, तप, शौच और अमत्सर – इन्हें तुम मेरा मार्ग समझो। तुम मुझे सदा ही प्रिय हो। यह अत्यन्त प्रसन्नता की बात है कि तुम्हारी शम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान – इन पांचों साधनों पर प्रीति है तथा तुमने भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु – इन छः दोषों को जीत लिया है। इनमें पहले दो दोष आरंभ से ही रहते हैं। बीच के दो, तरुणावस्था आने पर होते हैं तथा अन्तिम दो दोष अन्त समय पर आते हैं। तुम्हारा मंगल हो। निष्पाप राजन! तुम्हारी समदृष्टि के कारण मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूं। तुम जो चाहे, वर मांग लो। तुम्हें वर देकर मैं प्रसन्न होऊंगा।’

युधिष्ठिर – मैं वर मांगता हूं कि जिस ब्राह्मण के अरणीसहित मन्थनकाष्ठ को लेकर मृग भाग गया है, उसके अग्निहोत्र को लोप न हो।’

धर्मराज – राजन! ब्राह्मण के अरणीयुक्त मन्थन्काष्ठ को मृग का रूप लेकर मैं ही भागा था। यह सब तुम्हारी परीक्षा के लिए आयोजित था। लो, वह मैं तुम्हें लौटाता हूं। तुम अपने लिए कोई वर मांगो।’

युधिष्ठिर – ‘हम १२ वर्ष तक वन में रहे। अब १३वां अज्ञातवास का वर्ष आ लगा है। अतः ऐसा वर दीजिए कि अज्ञातवास में हमें कोई पहचान न पाये।’

‘एवमस्तु,’ धर्मराज ने कहा और अन्तर्धान हो गए।

यक्ष प्रश्न और उनके उत्तर कालजयी हैं। एक-एक उत्तर की विशद विवेचना की जाय, तो प्रत्येक उत्तर पर कम से कम एक वृहद ग्रन्थ लिखा जा सकता है। यह काम मैं सुधी पाठकों के मनन-चिन्तन के लिए छोड़ता हूं। इतना तो आज भी सत्य है कि जो श्रेष्ठ जन इस आख्यान को पढ़ेंगे, मनन करेंगे, चिन्तन करेंगे और सदा ध्यान में रखेंगे उनके मन की अधर्म में, सुहृद-द्रोह में, पराए धन में, परस्त्रीगमन में और कृपणता में कभी प्रवृत्ति नहीं होगी।

॥इति॥

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