साल के पड़ाव पर, भई संतन की भीड़

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जयप्रकाश सिंह

1 जनवरी 2011 की दोपहर को भुवनेश्वर से एक परम मित्र का फोन आया। यह फोन रोमन नववर्ष की बधाई देने के लिए नहीं था। उन्होंने एक सूचना दी कि आज पूरी में भगवान जगन्नाथ के दर्शनार्थियों की संख्या रथयात्रा के समय होने वाली संतों की भीड़ से कम नहीं है। उन्होंने प्रत्येक सही-गलत बात के लिए भारतीय समाज को कोसने वाले बुद्धिजीवियों के प्रति शिकायती लहजे का प्रयोग करते हुए कहा कि हर नई घटना का सटीक विश्लेषण का दम भरने वाले ये लोग स्वत:स्फूर्त ढंग से घट रही इस तरह की घटनाओं पर ध्यान क्यों नहीं देते, विश्लेषण क्यों नहीं करते? उनका कहना था कि समाज द्वारा विजातीय तत्वों के भारतीयकरण के लिए किए जा रहे प्रयासों पर विद्वतजनों को ध्यान देना चाहिए।

31 दिसम्बर 2006 की रात को मेरे छात्रावास के ‘रुम-पार्टनर’ ने मुझे ताकीद की कल भोर में ही उठना है। हम दोनों काशीविद्यापीठ के लाल बहादुर शास्त्री छात्रावास में रहते थे। मेरे लिए यह ताकीद आश्चर्य से कम नहीं थी क्योंकि उनकी नींद साधारणतया 9 बजे ही भंग होती थी। आपातकालीन परिस्थितियों में भी वे इस सिद्धांत को भंग करने से परहेज करते थे। मैंने पूछा भोर में क्यों ? उत्तर था कल नया वर्ष है बाबा विश्वनाथ, संकटमोचन महावीर और मां अन्नपूर्णा के दर्शन करने हैं। मुझे उस समय रोमन नववर्ष का आस्था के साथ जोडने वाला यह प्रयास अजीवोगरीब ही लगा था। लेकिन अब ऐसा लगता है कि यह वाह्य तत्वों के भारतीयकरण के लिए छटपटा रहे भारतीय सामूहिक अवचेतन की अभिव्यक्ति थी।

इसी तरह 31 दिसम्बर 2010 की रात नोयडा के सेक्टर 62 में मीडिया नैपुण्य और शोध संस्थान ‘प्रेरणा’ के बगल में स्थित बाबा बालकनाथ मंदिर में जगराता का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। पूरे भारत से बाला बालकनाथ के श्रध्दालु इस जगराते में शामिल हुए। 31 दिसम्बर को जगराता आयोजित करने का विचार अद्भुत और आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा। यह भी विजातीय तत्वों के समाजप्रेरित भारतीयकरण का एक उदाहरण ही कहा जाएगा। ये उदाहरण भारतीय साभ्यतिक सांस्कृतिक सातत्य की तरफ ध्यान आकर्षित करते है। वह कैसे नई परिस्थितियों से तालमेल बैठाती है , इसके तरफ संकेत करते हैं।

असल में, एक आमआदमी की जिंदगी की तरह सभ्यताएं भी जन्म लेती हैं। बचपन की अठखेलियों के साथ आगे बढती हैं। जवानी की अंगडाई के साथ दुनिया पर छाने की बेताबी दिखाती हैं और बुढापे में आतंरिक क्षीणता या विजातीय तत्वों के संक्रमण का शिकार होकर दम तोड देती हैं। सभ्यता के प्राण हरने वाले ये कारण प्रतिरोधक क्षमता तथा सर्जनात्मकता क्षीणता की स्थिति में पैदा होते हैं। विश्व की अधिकांश सभ्यताओं-संस्कृतियों की जीवनयात्रा ऐसी ही होती है, ऐसी ही रही है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अविरल प्रवाह ही इस नियम का एकमात्र अपवाद है।

भारतीय साभ्यतिक -सांस्कृतिक सातत्य विद्वतजनों के लिए विश्लेषण और कौतुहल का विषय है, तो संस्कृतियों के अंतसतत्व की अनुभूति करने वाले लोगों के लिए अनुपम सौदर्य का हेतु। भारतीय चेतना-प्रवाह की नब्ज पकडने में अक्षम व्यक्ति इस साभ्यतिक सांस्कृतिक सातत्य की सैकडों व्याख्याएं करते हैं। उनमें से अधिकांश नकारात्मक होती हैं। कुछ कहते हैं भारतीयता जडता का शिकार है, इसमें प्रवाह जैसी कोई चीज नहीं है। कुछ अन्य का कहना है भारत सभ्यता-संस्कृति के प्रवाह जैसी किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं है। बाहरी आक्रांताओं ने जो यहां पर रोप दिया वही यहां की सभ्यता बन गयी, वही यहां की संस्कृति बन गयी।लेकिन चेतना -प्रवाह की अनुभूति करने वाले लोग यह जानते हैं कि यह तर्क नितांत सतही और सीमित हैं। शक, हूण जैसी सैकडों सभ्यताओं को अपने में आत्मसात करने वाली सभ्यता जड नहीं हो सकती। सभ्यता-संस्कृति विहीन समाज में अतीत की ऐसी स्मृतियां नहीं हो सकती जैसी भारतीयों में पायी जाती है।

भारतीय साभ्यतिक-सांस्कृतिक सातत्य का मूल कारण यहां के समाज की विजातीय तत्वों को आत्मसात करने की क्षमता और नई परिस्थितियों से पैदा हुई समस्याओं के हल के लिए पहल और प्रयोग करने की प्रवृत्ति रही है। भारतीय समाज की प्रबल जठराग्नि विजातीय तत्वों को पचा कर उनसे भी अपनी जीवनरस खींच लेती है। भारतीयता के सप्तधातुओं को पोषित करती है।इस बिंदु पर भारतीय समाज के इस प्रबल जठराग्नि के कारणों पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। भारत की दार्शनकि आध्यात्मिक थाती ही इस प्रबलता का कारण है। भारत के चेतना -प्रवाह को प्रभावित करनी वाली इस थाती में वैविध्यता को परममूल्य माना गया है, सौंदर्य का प्रतीक माना गया है।इसलिए भारतीयता के लिए कोई भी विजातीय तत्व ‘एलर्जन’ नहीं बन पाता और न ही यह एलर्जी का शिकार होती है। भारतीय चेतना के सम्पर्क में आने वाले सभी तत्वों से जीवनरस लेती है और बाकी को उत्सर्जन तंत्र से बाहर निकाल देती है। इसके अलावा सशक्त आत्मसातीकरण क्षमता का दूसरा कारण भारत की सामाजिक स्वायत्ता है। नई परिस्थितियां पैदा होने पर, विभिन्न प्रवृत्तियों के सम्पर्क में आने पर आगे की रणनीति भारतीय समाज खुद बनाता है। वह राजाज्ञाओं का मोहताज नहीं है। वह नई परिस्थितियों और प्रवृत्तियों के साथ सामंजस्य बैठाने के लिए खुद पहल करता है, नए प्रयोग करता है, नए रास्ते तलाशता है। कुछ अनुकूल बनता है, कुछ अनुकूल बनाता है।

भारतीय सामूहिक अवचेतन के इस प्रबल जठराग्नि अब भी मंद नहीं पडी है। समय के प्रवाह के साथ घट रही घटनाओं पर दृष्टिपात करने, उदाहरणों के जरिए समझने पर स्पष्ट हो जाता है कि विजातीय प्रवृत्तियों के आत्मसातीकरण की प्रकिया जारी है, विभिन्न विजातीय तत्वों का भारतीयकरण हो रहा है। हां, वैश्वीकरण के कारण इसकी गति कुछ मंद जरुर पडी है।

नए दौर में नई पीढी के कुछ लोगों को अभिवादन के समय एक ही व्यक्ति से दूर से हाथजोडकर नमस्ते करते और उसके बाद नजदीक आने पर हाथ मिलाते हुए देखा जा सकता है। हाथजोडने के बाद हाथमिलाने की यह अभिवादन पद्धति इतने स्वाभाविक ढंग से होती है कि करने वाले को भी इसका पता नहीं चलता। यह भारतीय पहचान के साथ नए प्रवृत्तियों के अपनाने की ललक की अभिव्यक्ति कही जा सकती है।

वर्तमान में चुनौती भारतीय सामाजिक अवचेतन को मुख्यधारा की चेतना के रुप में बनाए रखने की है क्योंकि बाजार -मीडिया प्रेरित एक नई उपभोक्तावादी चेतना इसको विस्थापित करने पर तुली हुई है। यह नई चेतना रोमन वर्ष का स्वागत पंचसितारा होटलों में शराब, शबाब और कबाब के साथ करने में विश्वास करती है।

इस नए परिप्रेक्ष्य में विद्वतजनों की भूमिका और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। उनको अपनी सीमाओं के प्रति जागरुक होना पडेगा। यह समझना होगा कि सामाजिक अवचेतन की नदी को व्यक्तिगत बौद्धिकता की अंजुरी में नही रोपा जा सकता। साथ ही विद्वतजनों को सामाजिक अवचेतन द्वारा किए जा रहे इस तरह के प्रयासों को सम्बल देना होगा, व्यवस्था में स्वीकृति प्रदान करनी होगी ताकि उसमें आत्मविश्वास जाग्रत हो सके और वह अन्य क्षेत्रों में भी विजातीय तत्वों के भारतीयकरण के प्रयोग कर सके। आइए !रोमनी साल के इस पडाव संतों की बढती हुई संख्या का स्वागत करें और कुछ ऐसे प्रयास करे की घाटों पर जुट रही दर्शनार्थियों की संख्या पर पंचसितारा होटलों की हुल्लडबाजी हावी न होने पाए। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन शुरु होने वाले भारतीय नववर्ष को आमजन से परिचित कराने का प्रयास एक ऐसा ही प्रयास होगा।

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जयप्रकाश सिंह
लेखक युवा पत्रकार और लोक-संस्कृति, लोक-ज्ञान तथा पर्यावरणीय विषयों के अध्येता हैं। अस्मिता -संकट के वर्तमान में दौर में 'भारतीय परिप्रेक्ष्य' के संधान में लगे हुए हैं। लेखक का मानना है कि भारतीय विशेषताओं की परख पश्चिमी कसौटियों पर किए जाने से ही भारतीयों में हीन-भावना और अंधानुकरण की प्रवृत्ति पनपी है। भारतीय विशेषताओं का भारतीय परिप्रेक्ष्य और कसौटियों पर मूल्यांकन करके विकास की सही दिशा और उर्जा प्राप्त की जा सकती है।

7 COMMENTS

  1. जयप्रकाश जी हम लोग पिछले ७०० सालो से “गुलाम” रहे है व हम इतने आत्म मुग्ध हो गये है कि हम अपनि हर पराजय को अपनि ताकत बताने लगे है जिन लोगो ने शको-हुणो-मन्गोलो को पचाया था वो हमरे पुर्वज कोयि ओर ही मिट्टि के थे उन्होने स्व्त्व को नही छोडा था उन्के किसि “फ़्रजी” तत्व को स्विकार नही किया था लेकिन आज हम इतने भ्रष्ट हो चुके है कि हम को नहि पत चलत कि हम जो कर रहे है कितन नुकसन दे रह है हम्ने भाषा छोडी,धर्म छोडा,ध्वज,चिन्तन,व्यव्स्था,पर्म्प्रा सब छोअद्ते जा रहे है अपने अक्शमता को स्थायि देने के लिये अब पुजा पाठ भी रोमन मे शरु कर देन्गे???फ़िर दिवालि-होलि-रक्षा बन्धन जैसे त्यौहार भी एसे हि मनाते है???जहा हमारा बस नही चलता है वहा ही रोमन काम मे आता है जो चिज सर्कार से जुडि हो वहा रोमन है जो समाज से जुडि है वहा भारत है अब आप क्या समाज को भी रोमन बनाना चाहते है???????????????

  2. आध्यात्मिकता का उदाहरण, चर्च में, जैसे प्रयुक्त होता है। बिल्कुल वैसे ही। अनुवाद करता तो कुछ शब्द अलग हो जाते।
    The Forgotten Name
    A missionary was traveling on the train and she had a long stopover in Cawnpore. Going into the station she found a woman sadhu crouched on a bench, and soon she began talking to her about God. As the missionary mentioned the name of Christ, the woman looked up happily, and with beaming countenance said, “That’s it, that’s His name! I had forgotten it! What you are saying is the truth! I know you are right because that’s His name! Tell me again, so I won’t forget.” And then this pitiful soul, transformed and radiating new life from God, began to tell her story. She told of how she was wandering through the jungles, chanting her pray­ers and repeating the name of her god—”Ram! Ram! Ram!—.” Suddenly a voice said to her, “Don’t worship Ram; worship Christ,” and each time she would say “Ram,” the same voice would say again, “Don’t worship Ram; worship Christ.” She came out of the jungle wondering what it all could mean, but in the meantime she had forgotten the name. When the missionary spoke of Christ, it came to her that He is the One to be worshiped. His name is Christ! What a rejoicing, not only in that railroad station, but among the heavenly host in Glory, for this lost sinner brought into the fold!—Independent Board Bulletin.

  3. अंग्रेज़ी महीनों के नाम, जैसे कि, सप्टेम्बर, ऑक्टोबर, नोह्वेम्बर, डिसेम्बर यह,
    संस्कृत==> सप्ताम्बर, अष्टाम्बर, नवाम्बर, दशाम्बर<== जैसे शुद्ध संस्कृत रूपोंसे मिलते क्यों प्रतीत होते हैं?

  4. abhishek ji kash ap pore article ko padhane ke baad comment karate. bhartiy samaj apni pachan kshmata kr karan jinda hai. rahi bat gulami ki to mere anya article bhi padh le . baat samajh me a jayegi ki mai kya kahana chah rah hun

  5. मैं जब यह लेख पढ़ रहा था तभी मुझे लग रहा था की इस लेख पर कोई टिपण्णी नहीं आयी होगी,क्योंकि मैंने देखा है की साधारणतः उन्ही लेखों पर अधिक टिप्पणियां आती है जो एकांगी होती है या पूर्वाग्रह से ग्रसित होती है.इस तरह के समन्वित और भारतीय संस्कृति को एक नया आयाम देने वाले लेख पर लोगों को टिपण्णी करने में शायद ज्यादा दिक्कत होती है.कहाँ तो हम एकतरफ प्रथम जनवरी को नव वर्ष का प्रथम दिन मानने को तैयार नहीं और कहाँ जगन्नाथ पूरी में भक्तों की सबसे ज्यादा भीड़ उसी दिन. यह बात एक तो भारतीय संस्कृति के तथाकथित समर्थकों के समझ में ही नहीं आयी होगी. दूसरे ऐसा करना उन्हें भारतीय सभ्यता और संस्कृति के खिलाफ लगा होगा.पर यह सत्य है की तिरुपति में भी सबसे ज्यादा भीड़ जनवरी के प्रथम दिन ही होती है.इससे स्पष्ट है की प्रथम जनवरी को नव वर्ष का प्रथम दिन मानने वाले केवल नई पीढ़ी वाले ही नहीं बल्कि परम्परा वाले भी हैं.और ऐसा होना भी चाहिए.जब हमने अपने दैनिक जीवन के प्रत्येक पग पर अंगरेजी महीनों को अपना लिया है तो फिर नव वर्ष का उत्सव प्रथम जनवरी को मनाने से परहेज क्यों?जय प्रकाश जी को इस विद्वता पूर्ण लेख के लिए बधाई.

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