योगेश्वर एवं वेदर्षि दयानन्द

0
316

-मनमोहन कुमार आर्य
आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द सरस्वती वेदों के उच्च कोटि के विद्वान एवं सिद्ध योगी थे। योग में सफलता, वेदाध्ययन व वेदज्ञान के कारण उन्हें सत्यासत्य का विवेक प्राप्त हुआ था। वह ईश्वर के वैदिक सत्यस्वरूप के जानने वाले थे। वेदों में सभी सत्य विद्यायें हैं। इन सब सत्य विद्याओं का ज्ञान भी उनको वेदाध्ययन एवं योग सिद्धि से ही प्राप्त हुआ था। उन्होंने घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। ऋषि दयानन्द से पूर्व महाभारतकाल पर्यन्त हमारे सभी ऋषि वेदों को सत्य ज्ञान का भण्डार स्वीकार करते थे। स्वामी दयानन्द जी ने ऋषि परम्पराओं को ही आगे बढ़ाया है। हमारे सभी ऋषि योगी होते थे। योग क्या है। योग आत्मा को परमात्मा से जोड़ने और ईश्वर का साक्षात्कार करने की विद्या को कहते हैं। योगमार्ग का आरम्भ महर्षि पतंजलि कृत योगदर्शन के अध्ययन से आरम्भ होता है। योग के आठ अंग हैं जो क्रमशः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। योग मार्ग पर आरूढ़ व्यक्ति को यम व नियमों का पालन करते हुए आसन और प्राणायाम का अभ्यास करना होता है। प्रत्याहार में इन्दियों को उनके विषयों से वियुक्त करते हैं और धारणा में चित्त को देह के किसी एक देश, अंग विशेष अथवा लक्ष्य विशेष में बांध देते है अथवा टिका देते हैं। ध्यान में चित्त को देह के जिस अंग विशेष व लक्ष्य प्रदेश में बांधा गया था उसमें पूर्ण रूपेण एकाग्रता को बनाये रखा जाता है। जब तक एकाग्रता बनी रहती है, यह अवस्था ध्यान की होती है। यदि एकाग्रता भंग होती है तो ध्यान टूट जाता है। ध्यान की निरन्तरता व ध्यान की अवस्था ही समाधि कहलाती है। ऋषि दयानन्द ने योग के सभी अंगों को सिद्ध किया हुआ था जिससे वह एक सफल योगी थे। मनुष्य योगी तो बन सकता है परन्तु ज्ञान प्राप्ति के लिए उसे वेदांग के अन्तर्गत शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त व निघण्टु आदि का अध्ययन करना पड़ता है। इसके बाद वेदांग के कल्प व ज्योतिष ग्रन्थों का अध्ययन पूर्ण कर वेदों का अध्ययन किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने वेदांग को स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से मथुरा में पढ़ा था। इससे उनमें वेदों का अध्ययन करने की योग्यता उत्पन्न हो गई थी। शिक्षा समाप्त कर उन्होंने वेदों को प्राप्त किया और उनका आद्योपान्त अध्ययन किया जिससे वह वेदों के विद्वान बने। योगी ही वेदों का उच्च कोटि का विद्वान बनता है और ऋषि वेदों के अपूर्व विद्वान बने जिससे उनका उच्च कोटि का योगी होना सिद्ध है। मन्त्रार्थ द्रष्टा होने से वह ऋषि कहलाये। उन्होंने वेदों का अध्ययन कर उसका यथोचित ज्ञान प्राप्त करने के बाद उसे अपनी व्यक्ति उन्नति तक ही सीमित नहीं किया अपितु उससे मानवमात्र को लाभान्वित करने के लिए उन्होंने वेद प्रचार का कार्य आरम्भ किया। इस कार्य को करने की प्रेरणा व आज्ञा उन्हें अपने विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से मिली थी।

योगेश्वर कृष्ण जी ने महाभारत युद्ध में पाण्डव पक्ष का साथ दिया और उन्हें विजय प्राप्त कराई थी। वह योगी थे और एक योगी का दो सेनाओं के बीच चल रहे युद्ध में एक पक्ष को, जो धर्मसम्मत पक्ष था, उसे सक्रिय सहयोग देना और उनके मार्गदर्शन में उनके पक्ष की युद्ध में विजयी होने के कारण उनको योगेश्वर कृष्ण के नाम से पुकारा जाता है। स्वामी दयानन्द जी ने भी देश व विश्व में प्रचलित अविद्याजन्य सभी मतों के विरुद्व वेद प्रचार रूपी आन्दोलन वा सत्याग्रह किया था। उन्होंने सब मतों के आचार्यों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। जिन लोगों ने उनसे शास्त्रार्थ किया उन सभी शास्त्रार्थों में स्वामी दयानन्द जी के वेद सम्मत पक्ष को विजय प्राप्त हुई थी। इस कारण वह दिग्विजयी संन्यासी बने। इस कार्य में जहां उनका वेदज्ञान सहयोगी था वहीं उनके ब्रह्मचर्य का बल व योग साधना का बल भी सम्मिलित था। साम्प्रदायिक सभी मतों पर विजय प्राप्त करने के उनके दो ही कारण थे, प्रथम वह सफल योगी थे और दूसरा उनका वेदज्ञान उच्च कोटि का था। अतः वह दो उपाधियों, योगेश्वर एवं वेदर्षि, के पात्र बनें। योगी होकर उन्होंने विश्व के इतिहास में जो अपूर्व धार्मिक संग्राम व सफल शास्त्रार्थ किये उनसे वह योगेश्वर सिद्ध होते हैं और वेद प्रचार व अपूर्व कोटि का वेदभाष्य करने के कारण ऋषि वा महर्षि के पद पर गौरवान्वित हैं। हमें उनके जैसा ऋषि व महर्षि विश्व के इतिहास में दूसरा दृष्टिगोचर नहीं होता है। वेदभक्त गुरु विरजानन्द जी धन्य है जिनका शिष्य संसार का उत्तम योगी व ऋषि बना और उनके माता-पिता भी धन्य हैं जिन्होंने ऋषि दयानन्द रूपी एक महान दिव्यात्मा को जन्म दिया था। 

ऋषि दयानन्द जी स्वयं तो उच्च कोटि योगी व वेदों के विद्वान थे, इसके साथ ही उन्होंने अपने सभी शिष्यों व अनुयायियों को भी योगी व वेदों का विद्वान बनाया है। सन्ध्या करके मनुष्य योगी बनता है और सत्यार्थप्रकाश पढ़कर वैदिक विद्वान बनता है। ऋषि दयानन्द जी से पूर्व भारत में चतुर्वेद भाष्यकारों में सायण का ही नाम मिलता है जिन्होंने स्वयं व अपने शिष्यों से चारों वेदों का भाष्य कराया। महीधर व उव्वट आदि के यजुर्वेद व उसके कुछ अंशों पर ही वेदभाष्य मिलत हैं। कुछ वेदभाष्यकारों के नाम तो इतिहास में ज्ञात होते हैं परन्तु उनका किया वेदभाष्य नहीं मिलता। ऋषि दयानन्द ही एक मात्र ऐसे योगी व ऋषि हुए हैं जिन्होंने चारों वेदों पर ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका जैसा महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा वहीं, वह सम्पूर्ण यजुर्वेद भाष्य संस्कृत व हिन्दी भाषा में पूर्ण कर दे गये हैं। लगभग साढ़े दस हजार मन्त्र वाले ऋग्वेद का भी लगभग आधा भाष्य वह हमें दे गये हैं। असामयिक मृत्यु के कारण वह वेदभाष्य का कार्य पूर्ण नहीं कर सके। उनका वेदभाष्य अपूर्व है जिसकी तुलना उनके पूर्ववर्ती किसी भाष्यकार से नहीं की जा सकती। क्रान्तिकारी एवं योगी अरविन्द ने उनके वेदभाष्य की प्रशंसा की है। गुणवत्ता की दृष्टि से ऋषि दयानन्द जी का भाष्य सर्वश्रेष्ठ है। उनके बाद उनके अनेक शिष्यों व अनुयायियों ने वेदों पर भाष्य किये हैं। कुछ नाम हैं पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. जयदेव विद्यालंकार, पं. आर्यमुनि, स्वामी ब्रह्ममुनि, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, पं. क्षेमकरण दास त्रिवेदी, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार, स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती आदि। स्वामी दयानन्द जी के अनेक शिष्यों ने वेदों पर उच्च कोटि के ग्रन्थ भी लिखे हैं जो स्वामी दयानन्द जी के काल में उपलब्ध नहीं होते थे। अतः स्वामी दयानन्द जी की वेदों को जो देन है उसे उनके जीवन व व्यक्तित्व का सर्वोत्कृष्ट गुण कह सकते हैं। यह सब कार्य वह एक सफल योग साधक होने के फलस्वरूप ही सम्पन्न कर सके थे। वेदों का हिन्दी में भी भाष्य व भाषार्थ करना तो उनकी ऐसी सूझ थी जिसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाये उतनी ही कम है। इससे पूर्व ऐसा विचार शायद किसी के मस्तिष्क में नहीं आया कि हिन्दी में भी वेदों का भाष्य होना चाहिये व इस कार्य को किया जा सकता। उनके इस कार्य से सहस्रों व लाखों संस्कृत न जानने वाले भी वेदों के ज्ञान व तात्पर्य से परिचित हुए हैं। हम भी उनमें से एक हैं। 

योग के क्षेत्र में स्वामी दयानन्द जी की एक प्रमुख देन हमें उनकी सन्ध्या पद्धति प्रतीत होती हैं। सन्ध्या भी ध्यान व समाधि प्राप्त कराने में साधन रूप एक प्रकार का योग का ही ग्रन्थ है। सन्ध्या के सफल होने पर साधक ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। यदि ईश्वर साक्षात्कार न भी हो तब भी योग के सात अंगों यथा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान को तो वह प्राप्त वा सिद्ध कर सकता व करता ही है। सन्ध्या का प्रयोगकर्ता वा साधक सन्ध्या से समाधि को या तो प्राप्त कर लेता है या कुछ दूरी पर रहता है। ऋषि दयानन्द की प्रेरणा व आन्दोलन के फलस्वरूप आज विश्व के करोड़ों लोग उनकी लिखी विधि से प्रातः व सायं सन्ध्या वा सम्यक् ध्यान करते हैं। सन्ध्या में अघमर्षण, मनसा-परिक्रमा, उपस्थान, समर्पण आदि मन्त्रों का विशेष महत्व प्रतीत होता है। अघमर्षण के मन्त्रों से पाप न करने वा पाप छोड़ने की प्रेरणा सन्ध्या करने वाले साधकों को मिलती है। मनसापरिक्रमा के मन्त्रों से भक्त व साधक ईश्वर को सभी दिशाओं में विद्यमान वा उपस्थित पाता है जो उसे हर क्षण हर पल देख रहा है। ईश्वर की दृष्टि हम पर हर पल व हर क्षण 24x7 रहती है। हम ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकते जो ईश्वर की दृष्टि में न आये। अतः हमंें अपने शुभ व अशुभ सभी कर्मों के फल अवश्यमेव भोगने होते हैं। अशुभ कर्मों का फल दुःख होता है। यह हमें कर्म के परिमाण के अनुसार ही मिलता है। जैसा व जितना शुभ व अशुभ कर्म होगा उसका वैसा व उतना ही सुख व दुःख रूपी परिणाम व परिमाण होगा। अतः सन्ध्या का साधक पाप करना छोड़ देता है। यह भी सन्ध्या की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है जबकि अन्य मतों में प्रायः ऐसा नहीं होता। उपस्थान मन्त्र में हम ईश्वर को अपने समीप व आत्मा के भीतर अनुभव करने का प्रयास करते हैं और विचार करने पर यह सत्य सिद्ध होता है कि ईश्वर सर्वव्यापक होने से हमारे बाहर व भीतर दोनों स्थानों पर है। सन्ध्या वा ध्यान करते हुए हम ईश्वर के गुणों का वर्णन करते हैं और उससे स्वस्थ शरीर, बलवान इन्द्रिय शक्ति और सौ व अधिक वर्षों की आयु मांगते हैं। गायत्री मन्त्र बोल कर हम ईश्वर से बुद्धि की पवित्रता व उसे सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा करने की प्रार्थना करते हैं। समर्पण मन्त्र बोलकर हम ईश्वर से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को आज व अभी सिद्ध करने वा प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं। ईश्वर को नमन के साथ हमारी सन्ध्या समाप्त होती है। वेदों का स्वाध्याय भी सन्ध्या का अनिवार्य अंग है। सभी वैदिक धर्मी अनुयायी वेदों का स्वाध्याय करते हैं जिससे वह अन्धविश्वास, मिथ्या ज्ञान व दुर्गुणों से बचते हैं। वैदिक सन्ध्या भी ऋषि दयानन्द की मानव मात्र को बहुत बड़ी देन है। यह बात अलग है कि कोई मनुष्य मत-मतान्तरों की अविद्या के कारण उसे ग्रहण न करे। जो करता है वह अपना लाभ करता है और जो नहीं करता वह अपनी हानि करता है। 

स्वामी दयानन्द जी सच्चे योगी एवं वेदर्षि थे। वह ईश्वरभक्त, वेदभक्त, देशभक्त, मातृ-पितृभक्त, आचार्य व गुरुभक्त, देश व समाज के हितैषी, देश के स्वर्णिम भविष्य के स्वप्नद्रष्टा, सच्चे समाज सुधारक, अविद्या व अन्धविश्वास निवारक, देशवासियों को सत्यपथानुगामी बनाने वाले, सामाजिक असमानता को दूर करने वाले, सबको वेदाधिकार दिलाने वाले, समाज से छुआछूत व ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करने वाले, दलितों व ब्राह्मण आदि सभी को वेद पढ़कर उच्च कोटि का विद्वान व योगी बनने की प्रेरणा करने व अधिकार दिलाने वाले इतिहास के अपूर्व आदर्श महापुरुष थे। उन्होंने हमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि अनेक दिव्य ज्ञान के ग्रन्थ प्रदान किये हैं। इनके कारण हम संसार में आज भी विश्व गुरु हैं। स्वामी दयानन्द के कारण मत-मतान्तरों के आचार्यों को उनके मतों व ग्रन्थों के अविद्यायुक्त होने का ज्ञान व अनुभव हुआ है। कोई न तो वैदिक सिद्धान्तों का खण्डन करता है और न आर्यसमाज के विद्वानों से किसी विषय पर शास्त्रार्थ के लिए तत्पर होता है। इससे वैदिक सिद्धान्तों व नियमों की सत्यता पुष्ट व प्रामाणित होती है। लेख को विराम देने से पूर्व हम यह कहना चाहते हैं कि स्वामी दयानन्द जी जैसा ब्रह्मचारी, योगी व वेदज्ञानी महाभारतकाल के बाद दूसरा नहीं हुआ। वह सचमुच योगेश्वर एवं वेदों वाले ऋषि थे। योगेश्वर एवं वेदर्षि विषेशण उनके व्यक्तित्व में स्पष्टतः उपलब्ध होते हैं। हम उनको नमन करते हैं। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,213 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress