समय से पहले जवान हो गए हैं बच्चे

समय से पहले जवान हो गए हैं बच्चे

 ध्यान न रखा तो जल्द ही हो जाएंगे बूढ़े

डॉ. दीपक आचार्य

इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा चमत्कार तो यही है कि आजकल समय से पहले जवान हो गए हैं बच्चे। वह जमाना बीत गया जब बच्चों को शिक्षा-दीक्षा देने के लिए हमें मशक्कत करनी पड़ती थी और वर्षों मेहनत करनी होती थी।

जहाँ देखो वहाँ बच्चों के भीतर से बालपन कम और कैशोर्य ज्यादा दिखता है। लगता है ऑटो प्रोमोशन हो गया है। शैशव से लेकर वार्द्धक्य तक एक स्टेप हर मामले में आगे बढ़ गई लगती है। कहाँ तो घर वाले भी मेहनत करते, स्कूल वाले भी, गुरुजी के लिए भी बच्चों का भविष्य सँवारना सबसे बड़ी चिन्ता हुआ करता था। स्वाध्याय पर जोर दिया जाता था और शौर्य, पराक्रम भरे इतिहास, आदर्श संस्कारों की सीख, व्यक्तित्व विकास की बुनियाद को मजबूती देने जैसे काम जरूरी हुआ करते थे। पूरी पीढ़ी को ही खपना पड़ता था नई पीढ़ी का भविष्य तैयार करने में।

अब वो सारी पुरानी बातें हवा होती जा रही हैं। भला हो कम्प्यूटर, इंटरनेट, टीवी और मोबाइल का, कि जिनकी बदौलत बच्चे अब बच्चे नहीं रहे, बहुत बड़े होते जा रहे हैं। और फिर फेस बुक, ऑर्कुट जैसी सोशल साईट्स और जाने कितनी तरह के ई-मेल प्रोवाइडर्स ने तो सोने में सुहागा ही भर दिया है।

बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ पूरी दुनिया में कोई दिखता है ये तो ये ही जड़ संसाधन जो बच्चों में चेतना जगाने लगे हैं। न दादा-दादी, नाना-नानी, पिता-माता, भाई-बहन और माँ-मौसी की जरूरत है, न किसी पड़ोसी या रिश्तेदार की।

आत्मीयों से लेकर रिश्तेदारों तक की भूमिका पूरी कर रहे हैं ये इलैक्ट्रॉनिक उपकरण और अदृश्य संचार सेतु। अब जिज्ञासाओं और शंकाओं का समाधान करने के लिए भी न गुरुओं के पास जाने की जरूरत है, न बड़े बुजुर्गों के पास। जो जानने की इच्छा हो जाए, बटन दबाते ही हाजिर। भले ही वह अधकचरा ज्ञान हो या पूरा कचरा ही हो। फिर दिन भर मोबाइल या कम्प्यूटर पर गेमिंग भी होती रहती है।

गाँवों में यह बीमारी कहीं कम-ज्यादा हो सकती है लेकिन कस्बों, शहरों और महानगरों में तो मोबाइल और इंटरनेट के बिना नई पीढ़ी का होना ही बेकार लगता है। इन संसाधनों का जिन लोगों के लिए उपयोग है उन्हें छोड़ दिया जाए तो भी 90 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनके लिए इनके बगैर भी जिन्दगी अच्छी तरह कट जाती है। फिर स्कूली बच्चों के लिए तो इंटरनेट वाला मोबाइल पेन-पेंसिल की तरह का उपकरण हो गया है जिसके बगैर शिक्षा-दीक्षा की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

मोबाइल, कम्प्यूटर और नेट जैसे संसाधनों के भरपूर बाहुल्य ने नई पीढ़ी को समय से पहले इतना जवान कर दिया है कि पुरानी पीढ़ी के बचे-खुचे लोग आश्चर्य करने लगते हैं। एक तो स्कूली बैग्स के भार ने बच्चों को कुली बना-बना कर करम तोड़ दी है, दूसरे टीवी, कम्प्यूटर, नेट, मोबाइल आदि ने उनकी एकाग्रता छीन ली है और पूरे समय हमारे भावी नागरिक ईयरफोन लगाए हुए अन्तरिक्ष यात्रियों या पायलट की तरह जाने क्या-क्या सुनते हुए उड़ते नज़र आते हैं। कोई गाने सुनता है, कोई पोप संगीत, तो कोई और कुछ। न सुनें तो खाना-पीना, नींद आदि किसी में मजा ही न आए।

लगातार फालतू चीजों पर नज़रें गड़ाए रखने की ऐसी आदत पड़ गई है कि लगातार अनावश्यक दर्शन की वजह से नाक पर चश्मों का बोझ़ स्थायी हो गया है और स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों से लेकर किशोरों तक को चश्माधारी होना पड़ा है।

स्कूल और घर की पढ़ाई से लेकर एक के बाद एक ट्यूशन के लिए होने वाली परिक्रमाओं और दिमाग पर पड़ने वाले असामयिक बोझ की वजह से विद्यार्थियों का शारीरिक सौष्ठव छिनता जा रहा है और लकड़बघ्घे या गधे की तरह परिभ्रमण करने के आदी हो गए हैं।

केवल नम्बर पाने और परीक्षा में अव्वल रहने का भूत इतना सवार है कि न मन-मस्तिष्क की पड़ी है, न शरीर की। दिमाग का दही बनता जा रहा है और शरीर अपने मनचाहे आकार में उन्मुक्त होकर इधर-उधर पसरने लगा है। कितने ही बच्चों को देखें तो लगता है कि जाने इतनी सारी चर्बी छोटी सी उमरिया में कहाँ से आ जमी। कई दुबले-पतले हैं तो काफी सारे मोटे-तगड़े इतने हैं कि शरीर तक संभल नहीं पाता। बचपन और किशोरावस्था में जब यह हालत है तो प्रौढ़ावस्था तक पहुंचते-पहुंचते अपनी सारी पुरानी कहावतें भी बौनी हो जाएंगी।

शिक्षा के नाम पर बच्चों के यांत्रिकीकरण और व्यवसायीकरण के भयानक दौर से हम गुजर रहे हैं। स्कूल वाले पैसा बनाने की फैक्ट्रियाँ होते जा रहे हैं और उन्हें सिर्फ पैसों से ही मतलब है, उन्हें क्या पड़ी है बच्चों के पूरे व्यक्तित्व निर्माण से। पढ़ाकू लेकिन भौंदू, व्यवहार शून्य, संस्कारहीन और बेड़ौल पीढ़ी की इतनी बुजुर्गियत के जो दृश्य हम इन दिनों देख रहे हैं उतना भारतीय इतिहास में कभी नहीं देखा गया।

पढ़ाई ही पढ़ाई के पीछे भाग रहे कौल्हू के बैलों के पास न इतना समय है कि शरीर का संतुलन बनाए रख सकें। और न ही तालीम के नाम पर धंधा चलाने वालों या शिक्षा के गलियारों में शेरों बनकर घूम रहे शिक्षाविदों या शिक्षाशास्त्रियों को फिक्र है। खेलने-कूदने के सारे संसाधन और अवसर, मैदान समाप्त होते जा रहे हैं और शिक्षा के नाम पर जो लोग नई पीढ़ी को सँवारने की ठेकेदारी संभाले हुए हैं उन्हें भी सिर्फ तनख्वाह से मतलब है, बच्चों के भविष्य से नहीं।

वह जमाना लद गया जब विद्यार्थियों के चेहरे से ओज टपकता था और शरीर में समाया हुआ बल मुँह बोलता था। आज ओजहीन पीढ़ी हमारे सामने है और ऐसे में इस पीढ़ी से राष्ट्र क्या उम्मीदें रखता है।

बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो कम्प्यूटर, टीवी के सामने रमे रहते हैं और रोजाना घण्टों बैठ जाने के बाद ऐसे ही उठ जाते हैं जैसे कोई घटिया उपन्यास पूरी कर लेने का संतोष हो गया हो। पाने के नाम पर कुछ नहीं, और खोने के नाम पर बेशकीमती क्षण, जिन्हें कभी लौटाया नहीं जा सकता।

सोशल नेटवर्किग साईट्स पर इन दिनों सर्वाधिक भरमार बच्चों की है और बच्चों का पूरा ध्यान पढ़ाई-लिखाई से हटकर फेसबुक या ऑर्कुट या दूसरी तीसरी साईट्स की ओर भटक गया है। फिर हर किसी बच्चे पर भूत सवार है फ्रैण्ड्स बनाने का। फिर आजकल फ्रैण्ड्स के नाम पर कैसे-कैसे लोग हैं, इस बारे में बताने की जरूरत नहीं है।

हमारे अपने इलाके की कई स्कूलों के सैकड़ों-हजारों बच्चे फेसबुक और अन्य साईटों पर घण्टों बरबाद कर रहे हैं। स्कूली बच्चों द्वारा क्रिएट किए हुए हजारों पेज होने के साथ ही पारस्परिक क्लब और म्युच्यूअल फ्रैण्ड्स भी खूब संख्या में हैं। ऐसे में ज्ञान का विस्फोट तो पहले से ही था, अब ज्ञान के आदान-प्रदान का महा विस्फोट हो रहा है जैसे सारे बच्चे मिलकर ब्रह्माण्ड के कण की खोज में लगे हुए हों।

घर वालों, स्कूल वालों और परिचितों को शायद यह पता नहीं भी हो, मगर बाहर के लोगों को पता है कि कितने सारे बच्चे पढ़ाई के नाम पर सोशल साईट्स में क्या-क्या नहीं कर रहे हैं। अभिभावकों की जिम्मेदारी है कि इन बच्चों की हरकतों पर निगाह रखें और उन्हें ऐसी सीख दें कि अपना पूरा समय पढ़ने-लिखने और खेलकूद में व्यतीत करें तथा इनके प्रति एकाग्र रहें।

आजकल हो यह रहा है कि सोशल साईट्स बच्चों को बिगाड़ रही हैं और इस पर अभी ध्यान नहीं दिया गया तो हमारे सामने हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य बरबाद होते देखने के सिवा कोई चारा नहीं होगा। वैसे ही प्रदूषण, परिवेश और दूसरे कारकों ने बच्चों को असमय जवान कर ही दिया है।

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