डॉ. रमेश ठाकुर
लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया में जनता जर्नादन ही सर्वोपरि होती है पर ये बात एकाध बंपर जीत करने के बाद सियासी दल भूल जाते हैं। आम आदमी पार्टी का जब से जन्म हुआ, उसके बाद दिल्ली में तकरीबन चुनावों में अप्रत्याशित जीत दर्ज कर अपने भीतर ये भ्रम पाल लिया कि उन्हें कोई हरा नहीं सकता लेकिन नियति की मार देखिएगा, केजरीवाल आखिरकार हार ही गए? दरअसल, भारतीय लोकतंत्र की यही सबसे खूबसूरत तस्वीर है जिसे स्वयं जनता कैनवास पर अपने मताधिकार से उकेरती है। जो आवाम नेताओं को सिर आंखों पर बिठाती है, वही जब अपने पर आती है तो अच्छे-अच्छों को आसमान से जमीन पर पटकने में भी देर नहीं करती?
दिल्ली की ये हार आम आदमी पार्टी को लंबे समय तक सताएगी। जब गढ़ ही गड़गड़ा गया, तो भविष्य की डगर निश्चित रूप से गडबड़ाएगी। केजरीवाल को पार्टी की हार उतनी नहीं सताएगी, जितनी उनके शीर्ष नेतृत्व के हारने से उनका मनोबल टूटेगा। केजरीवाल के कद्दावर नेताओं के नेताओं के हारने से पार्टी के जनाधार में भी यहीं से डेंट लगना आरंभ हो जाएगा क्योंकि सेना के साथ-साथ उनका सेनापति भी हार गए। भाजपा की जीत ने ‘आप’ का दिल्ली में लंबे समय तक राज करने का भ्रम भी तोड़ा है।
फिलहाल, राजधानी में कौन अगले पांच वर्ष तक सत्ता पर काबिज रहेगा, ये आठ तारीख को आए परिणाम से तय हो गया। भाजपा ने ‘आप’दा को मात देकर अपना 27 साल का सूखा मिटा लिया। भाजपा की जीत ने कई भ्रट तोड़े हैं। केजरीवाल की टीम ये ठाने बैठी थी कि उन्हें कोई हरा ही नहीं सकता। दलों को इस सच्चाई से वाकिफ होना चाहिए कि जीवंत लोकतंत्र में कोई दल स्थाई नहीं होता, सभी अस्थाई होते हैं? सियासी पार्टियों का बजूद जनता जनाधार की ताकत से ही मजबूत होता है। जनाधार जैसे ही खिसकता है, नींव भी कमजोर हो जाती है।
एक जमाना था, जब जनता पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियों का पश्चिम बंगाल से लेकर भारत के दूसरे छोर तक बोला बाला होता था। आज ये दल किन परिस्थितियों में हैं, सभी जानते हैं, बताने की जरूरत नहीं? मुठ्ठी भर कार्यकर्ता भी उनके पास नहीं बचे? इन पार्टियों के कार्यालयों में ताले पड़े हैं। ‘आम’ से ‘खास’ बनने के बाद ‘आप’ पार्टी के नेताओं के पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे। ‘अहम’ और ‘घंमड़’ उनमें आ गया था। खैर, उनके पास मौका अभी भी है, राजधानी वालों ने उनको विधानसभा में मुख्य और प्रचंड़ विपक्ष की भूमिका दी है जिसमें जनता उनकी परीक्षा लेगी।
‘आप’ वाले सरकार कैसे चलाते हैं, ये तो जनता ने अच्छे से देख लिया? विपक्ष में रहकर कैसा व्यवहार करेंगे हैं, ये उनको देखना है और परखना है। बहरहाल, दिल्ली में विगत 12 वर्षों से सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी यानी ’आप’ की हार और प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की अप्रत्याशित जीत के एक-दो नहीं, बल्कि बहुतेरे कारण हैं। हार के सियासी मायने भी दिलचस्प हैं। भारतीय राजनीति में इस परिणाम के असर दूर-दूर तक दिखेंगे। भाजपा की जीत से केंद्र में सत्तारूढ़ ’एनडीए’ की एकजुटता भी मजबूत होगी। वहीं देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘इंडिया गठबंधन’ में बिखराव का होना भी स्वाभाविक रहेगा। क्योंकि इस जीत से भाजपा ने विपक्ष पर जबरदस्त मनौवैज्ञानिक बढ़ा ली है।
भाजपा ने जिस अंदाज में पटकनी सत्ता दल को दी है, उन्हें उम्मीद नहीं थी। हारने के बाद केजरीवाल अब पुराने दिनों को जरूर याद करेंगे। गलतियां कहां-कहां हुईं, क्या खोया और क्या पाया? सभी मुद्दों पर गंभीरता से मंथन करेंगे। कैसे, उन्होंने अन्ना हजारे की आड़ लेकर अपनी राजनैतिक आभा चमकाई, और जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने ’आप’ का गठन करके कांग्रेस की दिल्ली में समूची सियायी जमीन ही हड़पी। आज कांग्रेस अपनी दुर्दशा पर उतनी दुखी नहीं है जितनी केजरीवाल के हारने से खुश है। केजरीवाल ने भी कुछ इसी अंदाज में कभी शीला दीक्षित सहित उनकी टॉप लीडरशिप को एक झटके में हराया था। वही तस्वीर आज फिर उभरी। शीला दीक्षित की आत्मा भी आज खुश होंगी।
केजरीवाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को लोगों ने उसी दिन से भांप लिया था। जब उन्होंने सन-2013 में धर्मनिरपेक्षता की आड़ में उसी कांग्रेस के सहयोग से भाजपा विरोधी गठबंधन सरकार का गठन किया जिसका विरोध करके वह चुनाव जीते थे और त्रिशंकु विधानसभा की नौबत आई थी हांलाकि, कांग्रेस की उस एक मात्र भूल ने ही आगे चलकर 2015 के मध्यावधि चुनाव में जहां उसका पूरा का पूरा सफाया हुआ। दूसरे चुनाव में ‘आप’ को मुस्लिम मतदाताओं ने भी खूब प्यार दिया। उनके एकतरफा समर्थन ने केजरीवाल की पार्टी को दिल्ली में रिकॉर्ड जीत दिलाई थी।
वैसे, अधिकांश दिल्ली वाले बदलाव चाह रहे थे। वायु प्रदूषण, मैली यमुना, प्रदूषण जैसे नारकीय हालातों से लोग आहत थे। दिल्ली वाले यह महसूस करने लगे थे कि ‘आप’ की सरकार के रहते दिल्ली का अब और विकास नहीं हो सकता, इसलिए उन्होंने भाजपा की ओर मूव किया। केजरीवाल ने भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति देने के नाम पर दलितों, पिछड़ों और सवर्णों के अलावा पूर्वांचलियों और पहाड़ियों के साथ-साथ पंजाबियों-बनियों ने भी ‘आप’ को सिर आंखो पर बिठाया था। ये सभी वर्ग भी नाखुश थे।
डॉ. रमेश ठाकुर