कमलेश पांडेय
आखिर विदेशी आक्रांताओं से जुड़ी स्मृतियों को सहेज कर, समेट कर और सँवार कर क्यों रखें भारतवासी, यह यक्ष प्रश्न यहां के विशाल जनमानस को अकसर कुरेदता रहता है जबकि जरूरत ‘थी, है और रहेगी’ समय रहते ही उन्हें मिटा देने की. अलबत्ता यह सकारात्मक पहल स्वतंत्र भारत की सरकारें अब तक क्यों नहीं कर पाई और उसके क्या दुष्परिणाम हुए या हो सकते हैं, यह जानना और समझना सबके लिए जरूरी है ताकि एक ऐसे सामर्थ्यवान भारत का निर्माण किया जा सके जहां सत्य-अहिंसा-प्रेम जैसी उदात्त सनातनी सोच तो हो पर इसके उलट हिंसा-प्रतिहिंसा जैसी दुर्भावना दूर-दूर तक दिखाई-सुनाई नहीं पड़े। यह असंभव नहीं है बल्कि समवेत सांविधानिक प्रयास करने की जरूरत है
मेरी सोच है कि आसेतु हिमालय भूमि यानी दक्षिण-पूर्व एशिया स्थित भारत और उसके पड़ोसी देशों, यथा- अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तिब्बत (चीन), नेपाल, भूटान, बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका और मालदीव आदि सनातन भूमि है, अहिंसक धरती है, इसलिए यहां हिंसक प्रवृति वाले विदेशी आक्रांताओं या उनकी ही जैसी नकारात्मक सोच रखने वाले उनके अनुगामियों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह सुनिश्चित करना ही हमारी सरकार यानी भारत सरकार का राजधर्म होना चाहिए।
कहने का तातपर्य यह कि विदेशी आक्रांताओं का कोई प्रतीक चिन्ह यहां नहीं होना चाहिए। उनसे जुड़ा कोई भी साहित्य यहां नहीं रहना चाहिए। यहां तक कि उनके कट्टर समर्थक जैसा कि भारत में यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई पड़ रहे हैं, भी यहां नहीं दिखाई पड़ने चाहिए क्योंकि ये हमारी दुखती रग हैं, जिनका बार बार स्मरण कराए जाने की कोई भी पहल हमारे सामाजिक सेहत के लिए ठीक नहीं है, इसलिए हमारी सरकार ऐसे कानूनी प्रबंध करे और इस पर राष्ट्रद्रोही राजनीति की गुंजाइश भी न छोड़े।
सवाल है कि आखिर विदेशी आक्रांताओं को महिमामंडित करके आप (सनातनी हिन्दू) अपनी भावी पीढ़ी को कौन सी शिक्षा देना चाहते हैं. इनके नाम पर सड़कों का नामकरण, भवनों का नामकरण, बच्चों का नामकरण, पुस्तकों का नामकरण आखिर क्यों होना चाहिए? क्या यह बताने के लिए कि मुस्लिमों और अंग्रेजों ने भारतीयों पर, खासकर हिंदुओं पर बहुत जुल्म किए हैं. चूंकि इसे याद करके हिंदू जनमानस उद्वेलित होगा और प्रतिशोधात्मक कार्रवाई करेगा, इसलिए इससे बचने की जरूरत है।
सच कहूं तो विदेशी आक्रांताओं और उनसे जुड़ी स्मृतियां भारतीय उपमहाद्वीप के लिए कोढ़ में खाज की तरह हैं जो रह-रह कर खुजलाती रहती हैं, हमारे जनमानस को कुरेदती रहती हैं। वहीं जब से ये सियासी प्रवृत्ति बन चुकी हैं, सबको सालती रहती हैं। खासकर वोटों का ध्रुवीकरण तो इनके नाम पर कदापि नहीं होना चाहिए. ऐसी व्यवस्था चुनाव आयोग करे। वहीं, हमारे प्रशासकों और न्यायाधीशों को इस विषय पर बेहद संजीदा होना चाहिए। वहीं, प्रिंट, टीवी, वेब संपादकों और फ़िल्मी निर्देशकों से भी यही अपेक्षा की जाती है।
ऐसा इसलिए कि इनसे जुड़ीं दुखदाई परिस्थितियों का पुनःस्मरण करके, या फिर करवाकर हम लोगों को क्यों अशांत करें। आखिर इनके बारे में अरब समाज सोचे. हम क्यों फिक्रमंद हों? कहना न होगा कि इनसे जुड़ीं नाजायज हरकतें रह-रह कर जहां तहां घाव के मवाद की भांति रिसती रहती हैं और हमें मानसिक रूप से संक्रमित करती हैं जिसका समुचित इलाज अपेक्षित है। यही लोकतांत्रिक न्याय होगा।
हालांकि इस नजरिए से ‘भारत सरकार’ खुद अपने अस्तित्व की हिफाजत के कठघरे में खड़ी है जिसे सुधारना भी हम बुद्धिजीवियों का ही आपद धर्म है। सच कहूं तो विदेशी आक्रांताओं से जुड़ी स्मृतियों को इतिहास रूपी कब्रगाह में दफन करना पहले हिन्दू राजाओं, और फिर ‘भारत सरकार’ का राजधर्म था . खासकर धर्म के आधार पर राष्ट्र विभाजन के बाद से ही उन्हें ऐसी नीतियां अपनानी चाहिए थीं जिससे कि 7 वीं सदी से पूर्व का सहनशील और सद्भावी भारत पुनर्स्थापित हो जाए।
लेकिन हमारे अदूरदर्शी राजनेताओं ने समस्याओं को सुलझाने के बजाय इस कदर उलझा दिया कि आज ‘और कितने पाकिस्तान’ नहीं बल्कि खुद भारत वर्ष का वजूद ही पुनः खतरे में पड़ चुका है ! आलम यह है कि इतिहास के दुहराव की चेतावनी तक को हमारा शासन-प्रशासन नजरअंदाज कर रहा है। इस देश में मौजूद हिंसा-प्रतिहिंसा की ‘संवैधानिक प्रोत्साहन प्रवृत्ति’ को न तो वह समझ पा रहा है और न ही उसका कारगर इलाज कर पा रहा है।
कहना न होगा कि इस प्रशासनिक लापरवाही से ‘भारत के इस्लामीकरण’ की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है। उनके हौसले बुलंद हैं। वहीं, जब से भारत पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अमेरिका, रूस और चीन आदि देशों के समकक्ष आ खड़ा हुआ है, जापान, फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, तुर्किये आदि से आंख में आंख मिलाकर बातें कर रहा है, तब से भारत के इस्लामीकरण की फंडिंग के अरब स्रोतों की अपेक्षा अमेरिकी, रूसी और चीनी स्रोतों में हुए इजाफे की चर्चा दिल्ली के सियासी गलियारे में है ताकि दुनिया के लिए आकर्षक हथियार बाजार और उपभोक्ता बाजार समझा जाने वाला हिंदुस्तान खुद हथियारों और उपभोक्ता सामग्रियों का निर्यातक नहीं बन सके।
बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी कुत्सित सोच से विदेशी फंडिंग द्वारा भारत में ब्राह्मणवादी उत्पीड़न, मनुवादी शोषण, जातिवाद, आरक्षण, सांप्रदायिकता, नक्सलीकरण, आतंकवादीकरण, पाकिस्तानीकरण, बंगलादेशीकरण, चीनी पर्ल मूवमेंट आदि न जाने कितने वैचारिक विवादों को शह दिये जा रहे हैं ताकि तेजी से बढ़ता हुआ भारत आपसी गृहयुद्ध या पड़ोसी देशों से युद्ध में उलझ जाए।
इसे रोकने का जिम्मा भी यहां की विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और समाजपालिका यानी सिविल सोसायटी का है जो अपने दायित्वों के निर्वहन में कुछ कुछ विफल प्रतीत हो रही हैं।
वहीं विडंबना ये भी है कि ये संवैधानिक सत्ताएं सनातन संस्कृति की संरक्षा करने के बजाय उस तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करने में जुटी हुई हैं जो पूरी दुनिया के इस्लामीकरण और ईसाइयत के निर्विघ्न प्रचार-प्रसार का कानूनी हथियार व मानसिक उपचार मानिंद है . विश्वास न हो तो इनके अनुपालन में मौजूद वैश्विक भेदभावों पर गौर कर लीजिए।
देखा जाए तो इससे सबसे ज्यादा खतरा पूरी मानव जाति और प्राणिमात्र का शुभचिंतक समझे जाने वाले सनातन धर्म व हिन्दू मत को है, जो जनसेवा और त्याग आधारित जनविकास का मौलिक स्त्रोत माना जाता है। आखिर उदात्त सनातनी सोच के रहते हुए हिंसा और भोगवाद को जायज नहीं ठहराया जा सकता है, इसलिए इसको जड़ से मिटाने के लिए दुनियावी ताकतें एकजूट हो चुकी हैं।
आपको यह समझना होगा कि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ सनातनियों का मूलमंत्र रहा है जिसकी कमजोरियों का फायदा उठाकर ही तो विदेशी आक्रांताओं ने हम पर अनेक जुल्म किए। हिंदुओं को जातीय आधार पर तोड़कर और उन्हें उनके ही राजाओं के खिलाफ भड़काकर सबको अपना गुलाम बना लिए।
सवाल है कि तब ऐसी नकारात्मक प्रवृत्ति के सफल होने का तात्पर्य तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग की उदासीनता नहीं तो और क्या हो सकती है, समीचीन विषय है? आत्मावलोकन कीजिए, आत्मविवेचना कीजिए। यह मौजूदा बुद्धिजीवियों के लिए एक चेतावनी भी है कि सोइये मत, समय रहते ही जाग जाइए। दलित साहित्य, ओबीसी साहित्य के पीछे के षड्यंत्रों को समझिए और सनातनी साहित्य रचिए, क्योंकि हमेशा से ही समाज को जागरूक रखने का दायित्व बुद्धिजीवियों ने ही तो निभाया है- कभी साहित्य सृजन करके तो कभी नाटक, फ़िल्म और लौकिक उपदेशक बनकर।
आप मानें या न मानें पर धर्म का आविर्भाव भी तो इसी प्रक्रियागत अनुशीलन का तकाजा है। वहीं, देखा जाए तो भारत वर्ष के मौलिक स्वरूप यानी आसेतु हिमालय के भारतीय उपमहाद्वीप के एकछत्र साम्राज्य में जो वक्त वक्त पर धार्मिक विखंडन हुआ, उसके लिए स्वार्थी मुगल बादशाह और ब्रिटिश शासक दोनों ही जिम्मेदार थे।
लिहाजा, अफगानिस्तान, तिब्बत, नेपाल, म्यांमार, भूटान, श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान, बंगलादेश आदि राष्ट्र आज यदि भारत से अलग हैं तो इसके लिए हमारे शासक की संकीर्ण सोच ही कहीं न कहीं जिम्मेदार रही हैं। इसलिए अब वह समय आ गया है, जब हमारी पीढ़ी इस परमाण्विक विखंडनवादी सोच को हतोत्साहित करे, ऐसी ही मिलीजुली लोकतांत्रिक प्रवृत्ति को कुंठित करे और यूनिफिकेशन ऑफ इंडिया यानी भारत के एकीकरण हेतु एकजूट हो।
बहरहाल चीनी साम्राज्यवाद से मुकाबले के लिए भी यह नीति समसामयिक रूप से प्रासंगिक है। जरा सोचिए और महाभारत से लेकर मगध साम्राज्य तक के इतिहास को पढ़ लीजिए, उपरोक्त कथित सभी भूभाग भारत के राजाओं द्वारा प्रशासित रहे हैं या मित्र राज्य रहे हैं। इसलिए मुस्लिम शासकों और ब्रिटिश शासकों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वो भारत का हित सोचेंगे।
वहीं, उनके नक्शे कदम पर चलने वाली ‘भारत सरकार’ से भी यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह भारत को वैश्विक तौर पर मजबूत बना पाएगी! एक प्रधानमंत्री के तौर पर जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की विफलता के पीछे भी मौलिक कारण यही दुविधाजन्य परिस्थिति रही है।
लेकिन हिन्दू हित से जुड़े सवाल तब ज्यादा सुलगने लगे जब 1925 में स्थापित हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), उसकी राजनीतिक इकाई जनसंघ और उसके विघटन के पश्चात बनी भाजपा, जिसका अभी पूरे देश पर शासन है, के लोग वोट बैंक की मृगमरीचिका में अपने गठन के नैसर्गिक उद्देश्य से ही भटकने लगे। इन्होंने भी ब्रेक के बाद उन्हीं कांग्रेसी, वामपंथी व समाजवादी नीतियों का अनुशरण प्रारंभ कर दिया, जो भारत वर्ष की दुर्गति के मौलिक कारण समझे जाते हैं।
देशज नीतियों को यदि गुजश्ते वक्त की कसौटी पर कसा जाए तो प्रतीत होता है कि चाहे जातिवादी सोच हो या साम्प्रदायिक सोच, इनसे जुड़ीं नीतियां, कभी भी भारत का समग्र भला नहीं कर सकतीं हैं क्योंकि आजादी हासिल करने के आठ दशक होने के बावजूद यदि शांत और सुसंस्कृत समझी जाने वाली भारतीय भूमि अशांत और उच्छश्रृंखलित है, तो इसकी वजह भी उन्हीं नीतियों में छिपी हुई हैं।
इसलिए हमारे हिन्दुमिजाजी सियासी शासकों का यह मौलिक कर्तव्य बनता है कि अब वह अतीत से सबक लेते हुए एक बेहतर भविष्य के निर्माण के खातिर कुछ मौलिक सनातनी सोच विकसित करें ताकि भारतीय उपमहाद्वीप में सनातन संस्कृति को आंख दिखाने वालों के लिए कोई जगह ही नहीं बचे। इसके लिए विश्व विरासत संरक्षण जैसे साम्राज्यवादी हथकंडों की उपेक्षा करनी पड़े तो भी नहीं हिचकिचाया जाए।
मसलन, इसके खातिर हमें कांग्रेस, वामपंथी, समाजवादी और कुछ क्षेत्रीय दलों के विदेशी आक्रांता परस्त यानी मुस्लिम हितैषी सोच की भी स्थायी काट ढूंढनी पड़ेगी
लेकिन जब वैश्विक दबाव में और प्रशासनिक मजबूरी वश भाजपा व उसके समर्थक दलों ने जिस तरह से अन्य राजनीतिक दलों का अनुशीलन किया, उससे सनातनी सोच, उसके संसाधन और समर्थक अवाम, सबका भविष्य खतरे में पड़ गया है।
सवाल है कि ‘विश्व इस्लामिक संगठन’ द्वारा प्रोत्साहित अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद, पाकिस्तान और बंगलादेश द्वारा भारत में आतंकवादियों को भेजे जाने की प्रवृत्ति, इन दोनों देशों द्वारा धर्मनिरपेक्षता का परित्याग करते हुए प्रशासनिक तौर पर इस्लामीकरण को तरजीह देने, और इसी के चलते जब पूरे विश्व में अशांति फैलने की घटनाएं घट रही हैं, तो हमारे भारतीय हुक्मरान क्या कर रहे हैं, चिंतनीय पहलू है।
आखिर में उन्हें यह समझना होगा और मानना पड़ेगा कि जब तलवार के दम पर मुस्लिम शासक, हिंदुओं को शासित नहीं कर पाए और जगह-जगह उनके खिलाफ जनविद्रोह होने लगे तो उन्होंने अपनी शासकीय सुविधा के लिए सूफीवाद को बढ़ावा दिया, फिर ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ और ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता’ जैसे कपोलकल्पित और अव्यवहारिक विचारों और दिखावटी जनसरोकारों को शह/प्रश्रय देकर हिन्दू समाज को बरगलाया।
बाद के वर्षों में उनकी ही तरह ब्रिटिश प्रशासकों ने ‘धर्मनिरपेक्षता’ की आड़ में ‘फूट डालो और शासन करो’ जैसी नीतियां अपनाई। बहरहाल, ‘आरक्षण’ इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिसने हिंदुओं की जातीय भावनाओं को उभार कर इस पूरे समाज को ही कमजोर कर दिया है। हैरत अंगेज बात तो यह है कि इसी अल्पसंख्यक शब्द के संवैधानिक हथकंडे से हिन्दू धर्म में भी विखंडन की प्रक्रिया तेज हुई और सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म को अल्पसंख्यक का तमगा मिला। आज आदिवासी भी अलग सरना धर्म को मान्यता और अल्पसंख्यक का दर्जा चाहते हैं जो उनके संवैधानिक हितों के प्रतिकूल सोच है पर इसे ही वो बढ़ावा दे रहे हैं। हालिया झारखंड विधानसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा की जीत के पीछे भी इस मुद्दे का बड़ा हाथ रहा है।
सुलगता सवाल है कि चाहे धर्म के आधार पर भारत/पाकिस्तान का विभाजन हुआ हो या फिर लोकतंत्र और मताधिकार के आधार पर विभाजित भारत में सबको समान सहूलियत देने की वकालत करना, इन सबका एकमात्र उद्देश्य विदेशी आक्रांताओं और उनके वंशजों-अनुयायियों को भारत में सुरक्षित रखने का प्रयत्न नहीं तो क्या था।
यह समझना इसलिए भी जरूरी है कि आज आठ दशक में अपनी जनसंख्या बेहिसाब बढ़ा लेने के बाद वे चाहते क्या हैं? सिर्फ पाकिस्तान और बंगलादेश वाली परिस्थिति भारत में भी पैदा करना। क्या इसी दुर्दिन को देखने के लिए महात्मा गांधी और बाबा साहब अंबेडकर ने संविधान में अल्पसंख्यकों को नानाविध सुविधाएं दी थीं और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय संसाधनों पर इनका पहला अधिकार मान लिया था।
इन्हीं अव्यवहारिक विचारों का फायदा उठाकर भारत के पाकिस्तानीकरण और बंगलादेशीकरण के प्रयास तेज हुए हैं। जिन्ना और मुस्लिम लीग जैसी तत्कालीन सियासत की जगह अब ओवैसी और उनकी एआईएमआईएम ने ले ली है। वहीं, गांधी, नेहरू, पटेल, अंबेडकर आदि की जगह घेरे आधुनिक नेतागण भी उन्हीं की तरह ‘कालीदासी मूर्खता’ भरी दलीलें अपने भाषणों में दे रहे हैं। इससे न केवल भारत का अस्तित्व खतरे में है बल्कि उसके मूल में निहित सनातन धर्म के हर हिस्से पर कुठाराघात किया जाना अब आम बात हो चुकी है।
ऐसा इसलिए संभव हो पा रहा है कि हिंदुओं के जेहन में गहरी पैठ जमा चुकी जाति आधारित वोट बैंक की जनतांत्रिक राजनीति, कथित धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकवाद की मनगढ़ंत परिकल्पना ने इनकी सोच को कुंठित कर दिया है ! ये लोग अपने व्यक्तिगत हितों के खातिर राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने में भी सकुचाते नहीं हैं क्योंकि इन्हें समवेत तौर पर इनके मौलिक उद्देश्यों से भटका दिया गया है।
आलम यह है कि ये लोग विदेशी आक्रांताओं से नफरत करने के बजाय उनके संरक्षक बन बैठे हैं । आश्चर्य होता है कि हिंदुओं के हिस्से वाले हिंदुस्तान की सरकार भी जाने-अनजाने उन्हीं नीतियों को तवज्जो दे रही है जिनकी धूम पाकिस्तान व बंगलादेश में मची है और जिनको प्रश्रय दिये जाने से पाकिस्तान और बंगलादेश में हिंदुओं की आबादी घटी जबकि भारत में मुस्लिमों की आबादी खूब बढ़ी।
इसलिए वक्त का तकाजा है कि आरएसएस और भाजपा आत्मावलोकन करे। वह शिवसेना जैसे अपने साथियों का सम्मान करे। वह एनडीए के शुभचिंतकों का शुक्रगुजार रहे। वह अपनी नीतियों पर अटल रहे। वह समकालीन दुनिया की परवाह नहीं करे बल्कि उन नीतियों को पल्लवित-पुष्पित करे जिनसे आसेतु हिमालय के कन्वर्टेड, जो भारतीय हिन्दू रहे हैं, पुनः परिवर्तित हिन्दू बन जाएं।
यदि ऐसा होगा तो सोमनाथ और अयोध्या जैसी पुनर्निर्माण और जीर्णोद्धार की प्रक्रिया पर सवाल उठाने वाले भी नहीं बचेंगे। चाहे मथुरा हो या काशी, संभल हो या वैसे ही लगभग 2-3 अन्य ढांचागत अवशेष, जिनके साक्ष्य उन्हीं जगहों पर दफन हैं, के जीर्णोद्धार का पथ भी प्रशस्त होगा।
भारत सरकार की नीतियां इतनी ठोस व जनोन्मुखी होनी चाहिए कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तिब्बत, बंगलादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव आदि देशों के लोग भारत में अपना विलय करके हमारे राज्य बन जाएं और सुख-शांति से जीवन-बसर करें क्योंकि चीन की ओर उनका झुकाव देर-सबेर उनके लिए ही दुखदाई साबित होने वाला है।
यह सब कुछ हम लोग तभी कर पाएंगे जबकि हमारे विचार भारतीय संस्कृति से प्रेरणा लेंगे, उन्हें संरक्षित करेंगे और पूरी दुनिया में प्रोत्साहित करेंगे। साथ ही ईसाइयत व इस्लाम के मानने वालों को हिंदू बनाने के लिए मुहिम छेड़ेंगे, जैसा कि अबतक वे लोग करते आए हैं। इसके अलावा, हमें ऐसे उपाय भी ढूंढने होंगे जिससे सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म का हिन्दू धर्म में पुनर्विलय संभव हो सके।
सच कहूँ तो इस दिशा में भले ही सियासतदानों की लाख मजबूरियां हों लेकिन आरएसएस जैसे संगठन को नहीं भटकना चाहिए क्योंकि एक बेहतर विश्व के निर्माण के लिए पूरी दुनिया उससे उम्मीद लगाए बैठी है। बस शर्त सिर्फ इतना कि वह एक बेहतर भारत का निर्माण कर ले और विदेशी आक्रांताओं से जुड़ी नकारात्मक स्मृतियों को मिटा दे। अपने जन्मशती वर्ष में इतना तो वह कर ही सकता है। मेरी शुभकामनाएं हैं।
कमलेश पांडेय