संजय सिन्हा
बांग्लादेश की स्थिति नाजुक बनी हुई है। हालात बदलाव की ओर इशारे कर रहा है। बांग्लादेश की सेना ने वहां के कार्यवाहक प्रधानमंत्री मोहम्मद युनूस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है जिसकी वजह से मोहम्मद युनूस अपने पद से इस्तीफा देने का विचार कर रहे हैं। उनका कहना है कि बांग्लादेश के मौजूदा हालातों में उनका काम कर पाना मुश्किल हो रहा है। बांग्लादेश में भी पाकिस्तान की तरह ही सरकार पर सेना का प्रभुत्व रहता आया है। आखिरकार बांग्लादेश पाकिस्तान का ही हिस्सा रहा है
जिसे भारत ने 1971 में पाकिस्तान से काटकर अलग देश बनवा दिया था किन्तु बांग्लादेश भी पाकिस्तान की राह पर ही चलने लगा है। इसमें हैरत वाली कोई बात नहीं है। पाकिस्तान की तरह ही बांग्लादेश में जब सेना के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार बनी और उसने बेहतर काम करके दिखाया तो अमेरिका के इशारे पर बांग्लादेश की सेना ने शेख हसीना का तख्ता पलट दिया और अमेरिका ने अपने पिटठू मोहम्म्द युनूस को बांग्लादेश की बागडोर सौंप दी जिनके नेतृत्व में बांग्लादेश में हिंसा का तांडव हुआ। अब बांग्लादेश की सेना मोहम्मद युनूस की कार्यप्रणाली से बुरी तरह खफा हो गई है और उन्हें पद से हटाकर अब बांग्लादेश की सेना के आर्मी चीफ खुद सत्ता की बागडोर संभालने के इच्छुक बन गये हैं। बांग्लादेश की सेना वहां जल्द चुनाव कराने की मांग करती आ रही है लेकिन मोहम्मद युनूस अपनी कुर्सी पर काबिज रहने के लिए चुनाव से कतराते रहे हैं।
इसी मुद्दे को लेकर मोहम्मद युनूस और सेना के बीच मतभेद इस कदर गहरा गये हैं कि अब बांग्लादेश की सेना मोहम्मद युनूस की छुट्टी करने पर उतारू हो गई है। ऐसे में बांग्लादेश में कभी भी तख्तापलट हो सकता है और मोहम्मद युनूस बांग्लादेश छोड़कर लौट के बुद्धु घर को आये की तर्ज पर वापस अमेरिका लौट सकते हैं। आपको बता दूं कि सरकार ने उत्तर-पूर्वी राज्यों (असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम) के जमीनी मार्गों के जरिए बांग्लादेश से भेजे जाने वाले कई सामानों पर पाबंदी लगा दी है। ये मार्ग बांग्लादेश के लिए अहम व्यापारिक गलियारे थे। भारत ने बांग्लादेश के उन सभी सामानों पर भी प्रतिबंध लगाया है जो उत्तर-पूर्वी राज्यों के जरिए तीसरे देशों को निर्यात किए जाते थे। एक अनुमान के मुताबिक भारत के इस फैसले से बांग्लादेश को सालाना 5800 करोड़ रुपए के कारोबार से हाथ धोना पड़ सकता है। पिछले साल शेख हसीना के सत्ता से बेदखल होने के बाद बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के भारत विरोधी रुख को देखते हुए यह कड़ा फैसला जरूरी था। हालांकि सरकार का कहना है कि यह कदम बांग्लादेश के व्यापार को सीमित करने और भारत के कपड़ा, प्रोसेस्ड खाद्य जैसे स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देने के मकसद से उठाया गया है। यह कदम आत्मनिर्भर भारत नीति के अनुरूप है। नीति का लक्ष्य आयात पर निर्भरता कम कर स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देना है।
ताजा पाबंदियों से बांग्लादेश के रेडीमेड गारमेंट उद्योग पर गहरा असर पडऩे के आसार है। यह उद्योग उसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। बांग्लादेश के गारमेंट निर्यात का बड़ा हिस्सा उत्तर-पूर्वी भारत के जमीनी मार्गों के जरिए होता था। इससे लागत और समय की बचत होती थी। अब निर्यात सिर्फ समुद्री मार्गों तक सीमित होने से बांग्लादेश के निर्यातकों को अतिरिक्त लागत और समय की परेशानी झेलनी पड़ेगी। भारत का अहम व्यापारिक साझेदार रहा बांग्लादेश सत्ता बदलने के बाद हमारे हितों की अनदेखी कर चीन और पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ा रहा है। इसे देखते हुए भी उसे कड़ा संदेश देने की जरूरत थी।
बांग्लादेश भूल रहा है कि उसकी आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने के साथ भारत का उसके लोकतांत्रिक और आर्थिक विकास में भी बड़ा योगदान रहा है। वहां की अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस ने एक तरफ कट्टरपंथियों को खुली छूट दे रखी है तो दूसरी तरफ चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर नए भू-राजनीतिक समीकरणों को हवा दे रहे हैं। बांग्लादेश में चीन निवेश भी बढ़ा रहा है और उसे सैन्य मदद भी दे रहा है। हाल ही चीनी अफसरों की एक टीम बांग्लादेश में लालमोनिरहाट में बन रहे एयरबेस का निरीक्षण करने पहुंची। यह बेस भारत की ‘चिकन नेक’ सिलीगुडी कॉरिडोर के करीब है।
पूर्वोत्तर भारत को दिल्ली से जोडऩे वाले इस कॉरिडोर पर यूनुस सरकार के बयान चिंता बढ़ाने वाले हैं। अगर बांग्लादेश के इस एयरबेस तक पाकिस्तान या चीन की वायुसेना की पहुंच होती है तो भारत के लिए यह भी चिंता की बात होगी। पाकिस्तान पहले भी बांग्लादेश के जरिए पूर्वोत्तर में अशांति की साजिश रच चुका है। भारत को पूर्वोत्तर की सीमा के पार चल रही बांग्लादेश की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखनी होगी। अपने सुरक्षा हित सुनिश्चित करने के लिए बांग्लादेश पर कूटनीतिक और रणनीतिक दबाब भी बढ़ाया जाना चाहिए।
बांग्लादेश की वर्तमान सरकार जिसे छात्रों के नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शन के बाद प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपदस्थ करके स्थापित किया गया था, वह अपने ही आदर्शों पर खरी उतरने में नाकाम रही है। मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस के अधीन काम कर रही इस सरकार से अपेक्षा थी कि वह साफ-सुथरे और निष्पक्ष चुनाव कराने का माहौल तैयार करेगी परंतु उसने इस दिशा में सीमित प्रयास किए और कई अवसरों पर तो उसने विरोध प्रदर्शन के दौरान और उसके बाद समाज में उभरे विभाजन को ही बढ़ावा दिया है।कुछ सप्ताह पहले अंतरिम सरकार के प्रभावी सदस्यों ने अलग होकर एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने का निर्णय लिया और गत सप्ताह सरकार ने हसीना की अवामी लीग को चुनाव लड़ने से रोकने का निर्णय लिया। कोई भी निष्पक्ष पर्यवेक्षक इसे इस रूप में देखेगा कि नया प्रतिष्ठान चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है। चूंकि हसीना की प्रमुख आलोचना यही है कि उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए लोकतांत्रिक संस्थानों को प्रभावित किया इसलिए यह समझना मुश्किल है कि नया प्रतिष्ठान वही काम करने के बाद नैतिक रूप से ऊंचे स्तर पर रहने का दावा कैसे कर सकता है? वे खुद ही चुने हुए नहीं हैं।
यूनुस की पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए थी कि देश में आर्थिक स्थिरता बहाल हो और राजनीतिक शांति का माहौल बने। बहरहाल, ऐसा नहीं हुआ। आर्थिक स्थिरता इस बात पर निर्भर करीती है कि बड़े कारोबारी साझेदारों के साथ रिश्ते किस तरह सुधारे जा सकते हैं और निवेशक समुदाय को बांग्लादेश के भविष्य के बारे में सुरक्षित कैसे महसूस कराया जा सकता है। भारत के साथ बढ़ते तनाव और देश में कानून-व्यवस्था की कमजोर हालत को देखते हुए (अवामी लीग के विरुद्ध कदम उठाने के लिए न्यायिक प्रक्रिया को खुलकर धता बताया गया) यह समझ पाना मुश्किल है कि निवेशक देश की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था को उदारता से कैसे देखेंगे। बांग्लादेश रेडीमेड कपड़ों के निर्यात पर बहुत अधिक निर्भर है। ऐसे में अगले वर्ष कम विकसित अवस्था से बाहर निकलने और यूरोपीय संघ जैसे कुछ बाजारों में शुल्क मुक्त पहुंच खोने पर उसे कठिन ढांचागत सुधारों से गुजरना होगा। ऐसे में उसकी प्राथमिकता अन्य साझेदारियों को बढ़ावा देना होना चाहिए न कि उन्हें खत्म होने देना।
भारत ने अब बांग्लादेश के निर्यात पर कुछ कारोबारी प्रतिबंध लागू किए हैं। ऐसा तब किया गया जब यूनुस ने भारत के पूर्वोत्तर इलाके को लेकर कुछ गलत टिप्पणियां कीं। बहरहाल, भारत ने शायद पिछले कुछ सालों के अनुभव से सबक नहीं लिया। पहले उसने हसीना को खुलकर समर्थन दिया और इसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश के नागरिकों के बीच हसीना की अलोकप्रियता ने भारत के साथ उसके द्विपक्षीय रिश्तों में नकारात्मकता पैदा की।भारत समय रहते हसीना के विरोधियों के साथ पिछले रास्ते की कूटनीतिक राह निकालने में नाकाम रहा और हसीना-विरोधी आंदोलन की कामयाबी ने उसे अजीब स्थिति में डाल दिया। अब वह नए सत्ता प्रतिष्ठान के साथ संबद्धता नहीं कायम कर रहा। ऐसा रुख मौजूदा विश्व में कामयाब नहीं होगा। भारत अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे बड़ा समर्थक था लेकिन अब उसे समझ में आ रहा है कि तालिबान के साथ रिश्तों को नए सिरे से आकार देना ही देश के हित में है। क्या हमारे कूटनयिक यह मानते हैं कि तालिबान से बात करना सही है लेकिन बांग्लादेश के साथ नहीं? स्पष्ट है कि इस बारे में काफी चर्चा हो सकती है।
भारत को यह बात समझनी चाहिए कि बांग्लादेश के समाज में भारत को लेकर अविश्वास का माहौल है और यह हसीना को समर्थन देने से उत्पन्न हुआ जबकि वह अधिनायकवाद की राह पर बढ़ गई थीं। ऐसे में रिश्ते बहाल करने की ओर पहला कदम भारत को बढ़ाना होगा। चाहे जो भी हो, बड़े देश को हमेशा छोटे पड़ोसी की चिंताओं को दूर करने के लिए आगे बढ़ना होता है। इस मामले में यह जरूरत दोगुनी है। पड़ोस में स्थिरता लाने के लिए बातचीत की शुरुआत की जानी चाहिए।बातचीत से मसले हल हो जाते हैं।
संजय सिन्हा