—विनय कुमार विनायक
बार-बार जिसके खिलाफ लिखते कविता
वे पढ़ते नहीं,मरती नहीं उनकी मानसिकता
हर बार मर जाती तेरी कविता!
जिसे रोज-रोज ही नोनिआए ईंट के माफिक
एक-एक सड़े अवयव को फेंकते रहते
और चिपका देते हो तुम नव खरपाक ईंटें
फिर क्यों बालू की भीत सी
भहरा-भहरा जाती तेरी लिखी कविताएं!!

तेरी कविता तेरी रहती,होती नहीं उनकी
जबतक वो नहीं पढ़ते जिनके लिए लिखी होती!
तेरी कविता सड़क पर टोहते
आटो-टोटो बस-टैक्सी वाले नहीं पढ़ते
जो कालेज से लौटती बिटिया को
घर पहुंचाने के बजाय पहुंचा देता श्मशान!
तेरी कविता तुम्हारे पास ही धरी रहती,
उस दुराचारी-पापी तक फटकने नहीं पाती,
जो किसी धर्मस्थल में झाड़-फूंक से मारता
जादू टोना पर विश्वास करनेवाली परेशान
अभावग्रस्त-जवान बीमार महिलाओं को!
तेरी कविताओं को काली स्याह सड़कें नहीं पढ़ती,
तेरी कविताएं मंदिर-मस्जिद-चर्च के कोर्स में नहीं!
तेरी कविता से हसीन-वादियां अंजान-अपढ़ होती!
तेरी कविताएं अनाथालय में अनाथ सी होती,
धर्मशाला से मधुशाला तक में निषिद्ध होती!
तेरी कविता पाठशाला में पढ़ी पढ़ाई जाती होगी,
पर आटो-टोटो,बस-टैक्सी-ट्रेन पाठशाला नहीं जाते!
सदियों से जाहिल होते बस पड़ाव, रेलवे स्टेशन,धर्मशाला,
मदिरालय,झील-झरना-उद्यान,पिकनिक स्थल निरक्षर होते!
तेरी कविता निरक्षर नहीं पढ़ते, जाहिलों तक नहीं जाती,
तेरी कविताएं बालक-बालिका-नारी के दुश्मन नहीं पढ़ते,
हर बार मर जाती तेरी कविताएं जन्म लेने के बाद हीं!